Book Title: Jain Nyay me Smruti Pratyabhigyan tatha Tarka
Author(s): Basistha Narayan Sinha
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 2
________________ -- यतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार२. अनुभवरूप-यह स्मृति का वह रूप है, जिसके संबंध के कारण प्रमाण है तथा स्मृति आप्तोक्त होने के कारण प्रमाण में माणिक्यनन्दी, हेमचन्द्र आदि आचार्यों ने परिभाषाएँ प्रस्तुत की कोटि में आती है। की हैं। यह हमारे अनुभव का विषय है। यह व्यक्ति के अनुभव न्याय तथा भाट मीमांसक--अनभव रूपी स्मति के पर आधारित होता है, इसलिए इसे स्मृति का वैयक्तिक रूप कह संबंध में उनके विचार इस प्रकार हैं-- सकते हैं। १. स्मृति यदि यथार्थ अनुभव को उपस्थित करती है तो वह जैनेतर मान्यताएँ वैदिक - स्मृति प्रमाण है कि नहीं? प्रमाण है। इसका समाधान करते समय पहले ग्रन्थ रूप स्मृति सामने आती है। इसके संबंध में डॉ. महेन्द्रकुमार जैन की उक्ति है--वैदिक २. स्मृति यदि अयथार्थ अनुभव को प्रस्तुत करती है तब वह अप्रमाण है। परंपरा में स्मृति को स्वतंत्र प्रमाण न मानने का एक ही कारण है। यदि एक जगह भी उसका प्रामाण्य स्वीकार किया जाता है, तो ३. स्मृति यदि यथार्थ अनुभव की अन्यथा उपस्थिति है तो वह वेद की अपौरूषेयता और उसका कर्म विषयक निर्बाध अंतिम प्रमाण नहीं हो सकती। प्रामाण्य समाप्त हो जाता है। प्राभाकर मीमांसक-इनके अनुसार कोई भी ज्ञान अयथार्थ इस कथन से तो ऐसा लगता है कि स्मृति सर्वथा अप्रमाण नहीं होता। स्मरण आदि ज्ञान भी अयथार्थ नहीं होते। है। किन्तु आगे वे यह भी प्रस्तुत करते हैं कि स्मृतियाँ जहाँ तक बौद्ध-यह क्षणभंगवाद का प्रतिपादन करता है। इसके श्रुतियों का अनुगमन करती है वहाँ तक प्रमाण है अन्यथा अनुसार कोई भी वस्तु एक क्षण से अधिक नहीं रहती। स्मृति अप्रमाण है। दरअसल स्मृति की प्रमाणता-अप्रमाणता संबंधी भूत की याद दिलाती है। यह बौद्धदर्शन के अनुसार संभव नहीं चार कोटियां बनती हैं जो इस प्रकार है-- है। क्योंकि जिस समय वस्तु का प्रत्यक्षीकरण होता है वह क्षणभर १. स्मृति यदि वेदानुगमन करती है तो वह प्रमाण है। बाद ही समाप्त हो जाती है और जो कुछ भी हमें ज्ञान होता है, वह अनुमान के रूप में होता है अथवा अनुमान के माध्यम से २. स्मृति में यदि कोई सिद्धान्त प्रतिपादित है किन्तु वेद में वह होता है। अतः स्मृति अलग प्रमाण नहीं बन सकती। नहीं है तो भी वह प्रमाण की कोटि में आ सकती है। स्मृति के संबंध में यह समस्या आती है कि यह अनुभूत ३. स्मृति में प्रतिपादित सिद्धान्त वेद में है अथवा नहीं, किन्तु ज्ञान को प्रस्तुत करती है अथवा ज्ञानमात्र इसका विषय है। यदि उससे वेद का किसी प्रकार से विरोध नहीं हो रहा है तो उसे यह अनुभूत विषय को प्रस्तुत करती है तो ऐसा देखा जाता है प्रमाण कहेंगे। कि एक ही वस्तु या विषय की अनुभूति दो व्यक्तियों को होती ४. वेद में जो कुछ कहा गया है उसका विरोध यदि स्मृति के है। ऐसी स्थिति में एक ही विषय किसकी स्मति के रूप में द्वारा हो रहा है तो ऐसी स्थिति में स्मृति प्रमाण नहीं मानी प्रस्तत होगा। यदि स्मति ज्ञान मात्र को ग्रहण करती है तब स्मति जाएगी। के सिवा अन्य कोई प्रमाण हो ही नहीं सकता। स्मृति ग्रन्थ रूप में प्रमाण है उसकी जानकारी इस मान्यता जैनमत-स्मृति प्रमाण है। इस बात को मात्र जैन दर्शन ही के आधार पर भी होती है-- मानता है। इसके लिए जैनशास्त्र में अनेक विवेचन मिलते हैं। वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। समकालीन जैन-विद्वान पंडित कैलाशचन्द्र शास्त्री ने स्मृति को यतत् चतुर्विधम् प्राहुः साक्षात् धर्मस्य लक्षणम्।। प्रमाण सिद्ध करने के लिए इस पर संभावित सभी आरोपों को अर्थात्, वेद, स्मृति, सदाचार तथा आत्मा को जो प्रिय सामन रखा ह आर उनका खडन किया है। स्मृति प्रमाण नहीं है, लगे, ये चार धर्म के साक्षात लक्षण हैं।यहाँ पर स्मति को वेद के क्योंकि इसमें निम्नलिखित दोषों की संभावनाएँ हैं-- समान ही मान्यता दी गई है। इसके अलावा वेद ईश्वरोक्त होने (१) गृहीतग्राही ज्ञान का निरूपण-यह कोई नया ज्ञान नहीं aniraniranirantarbadnaanird6d6dmiranirdsrid-id[४८Hamriduridwaraniramidniardwardwordwordwordabrand Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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