Book Title: Jain Nyay me Smruti Pratyabhigyan tatha Tarka Author(s): Basistha Narayan Sinha Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 6
________________ - यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार - यस्तर्केणनुसन्धते स धर्मं वेद नेतरम्॥12/106 मीमांसा-इस दर्शन में तर्क के लिए ऊह शब्द का प्रयोग जो मनुष्य ऋषिदृष्ट वेद तथा तन्मलक स्मतिशास्त्रों को हुआ है।" ऊह के तीन प्रकार होते हैं--(१) मंत्र-संबंधी. (२) साम-संबंधी तथा (३) संस्कारसंबंधी। न्यायदर्शन की तरह वेदानुकूल तर्क से विचारता है, वह धर्मज्ञ है, दूसरा नहीं। मीमांसादर्शन भी मानता है कि ऊहकी गणना प्रमाणों में नहीं हो महाभारत३- शुष्कतर्क परित्यज्य आश्रयस्व श्रुति सकती, यद्यपि यह प्रमाणों का सहायक है। तर्क के विषय में -स्मृति म्-- जयन्त भट्ट ने कहा है कि दो विरोधी पक्षों में से एक को शिथिल -शुष्क तर्क को त्यागकर श्रुति एवं स्मृति का अनुगमन करके दूसरे को अनुकूल कारण के आधार पर सुदृढ़ बनाना ही करना चाहिए। तर्क का काम है २९। जैन-ग्रन्थ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में भी ऊह शब्द का प्रयोग हुआ है। उसमें कहा गया है२०- ईहा ऊहः तर्कः आचारांग -- तक्का जत्थ व विज्जई। परीक्षा विचारणा जिज्ञासा इत्यनर्थान्तरम्। १/१५ कठोपनिषद् की उक्ति से ऐसा लगता है कि तर्कवाद अर्थात्-ईहा, ऊह, तर्क, परीक्षा, विचारणा तथा जिज्ञासा विवाद है जिसके आधार पर किसी मत का खंडन हो सकता है, ह, में कोई भी अंतर नहीं है। उसे त्यागा जा सकता है। स्मृति में उस तर्क को मान्यता दी गई है जो वेदानुकूल हो। महाभारत में जो कुछ भी कहा गया है उससे पाश्चात्य दर्शन-पाश्चात्य दर्शन में तर्क के लिए लॉजिक यह जात होता है कि जो विचार या तर्क व्यक्ति को अति और (Logic) शब्द आया है। तर्क को शास्त्र के रूप में प्रतिष्ठित करने स्मृति से अलग रखता है वह शुष्क है और त्याज्य है। का श्रेय ग्रीक दार्शनिक अरस्तू को प्राप्त है। तर्क को बुद्धि का विज्ञान (Science of Reasoning) अथवा चिंतन की विधियों बौद्ध दर्शन - इसके अनुसार तर्क प्रमाण की कोटि में । का विज्ञान (Science of the Lows of Thought) कहते हैं । नहीं आता, क्योंकि वह प्रत्यक्षपृष्ठभावी है। यद्यपि वह व्याप्तिग्राहक अरस्तु के अनुसार तर्क का प्रमुख सिद्धान्त है - निगमन (Deहोता है, किन्तु प्रत्यक्ष द्वारा ग्रहण किए हुए ज्ञान को ग्रहण करता ductive) है। इसलिए प्रमाण नहीं माना जा सकता।२५ जैनदर्शन-तर्क को परिभाषित करते हुए आचार्य न्याय - न्याय-दर्शन ने अपनी तत्त्वमीमांसा में सोलह माणिक्यनन्दी तथा आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है३२ - पदार्थों को मान्यता दी है। उनमें से आठवाँ पदार्थ तर्क है। इसके उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानसमूहः। उपलम्भ तथा विषय में कहा गया है--तर्क उस उक्ति को कहते हैं जिसमें अनुपलम्भ के निमित्त से जो व्याप्तिज्ञान प्राप्त होता है, उसे किसी प्रतिपाद्य विषय की सिद्धि के लिए उसकी विपरीत कल्पना तर्क कहते हैं। उसकी दूसरी संज्ञा ऊह भी है। के दोष दिखलाए जाते हैं। यह एक प्रकार का ऊह (कल्पना) है। इसलिए यह प्रमाणों के अंदर नहीं आता। लेकिन यथार्थ (१) उपलम्भ-लिंग के सद्भाव से साध्य का सद्भाव। ज्ञान की प्राप्ति में यह बडा सहायक होता है २६ । न्यायभाष्य में धूम लिग है तथा अग्नि साध्य। धूम के होने से अग्नि का होना स्पष्ट लिखा है-- जाना जाता है। अर्थात् धूम देखने से अग्नि का ज्ञान होता है। 'तर्को न प्रमाणसंगृहीतो न प्रमाणान्तरं प्रभाणानामनुग्राहकस्तत्वज्ञानाय कल्पते' 27-1/1/9 (२) अनुपलम्भ-साध्य के असद्भाव से लिंग का असद्भाव। अग्नि के न रहने पर धूम का न रहना। अर्थात्, तर्क प्रमाण में संग्रहीत नहीं है और न तो इसे प्रमाणान्तर ही मान सकते हैं, बल्कि यह प्रमाणों का अनुग्राहक अविनाभावः-दो वस्तुओं के बीच जो अविनाभाव संबंध है और तत्त्वज्ञान के लिए उपयोगी है। तर्क प्रमाणों का अनग्राहक होता है, उसे तर्क ग्रहण करता है। अविनाभाव पर प्रकाश डालते इसलिए माना जाता है कि इससे ही अनुमान आदि प्रमाणों की हुए आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है - भूमिका तैयार होती है। सहक्रमभाविनो सहक्रभावनियमोऽविनाभाव:ऊहात् तन्निश्चयः -२/१०-११- अर्थात् दो वस्तुओं में जो.सहभाव और redadarsansarodaisarowaridroidrodarod ५ २drinidinsioritorioritoriridroidsraordinarooran Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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