Book Title: Jain Nyay me Smruti Pratyabhigyan tatha Tarka
Author(s): Basistha Narayan Sinha
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 7
________________ यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ क्रमभाव होते हैं उन्हें ही अविनाभाव कहते हैं। सहभाव उसे कह.. हैं जब दो वस्तुएँ हमेशा एक साथ देखी जाती हैं और क्रमभाव उसे कहते हैं जब दो घटनाएँ हमेशा ही क्रम में देखी जाती हैं अर्थात् एक के होने पर दूसरी उसके बाद अवश्य घटती है । सहभाव के दो प्रकार होते हैं -- (१) सहकारी संबंध- जैसे रूप रस का एक साथ पाया जाना । (२) व्यापत और व्यापक संबंध जैसे छात्रत्व और मनुष्यत्व । क्रमभाव के भी दो प्रकार होते हैं -- (१) पूर्ववर्ती और परवर्ती के बीच का क्रमभाव जैसे- रविवार के बाद सोमवार का आना। (२) कार्य-कारण संबंध जैसे धूम और अग्नि का संबंध | व्याप्य के रहने पर व्यापक का रहना तथा व्यापक के रहने पर ही व्याप्य का रहना ही व्याप्ति-संबंध है। धूम और अग्नि में व्याप्य और व्यापक का संबंध है। अतः जब धूम रहता है तो अग्नि रहती है और जब अग्नि रहती है तो धूम रहता है। धूम के बिना अग्नि के नहीं हो सकता यद्यपि कभी-कभी अग्नि होती है पर धूम नहीं होता । किन्तु धूम होने का मतलब ही होता है कि अग्नि है। इस प्रकार उपलम्भ, अनुपलम्भ, अविनाभाव तथा व्याप्ति संबंध एक ही है, यद्यपि समझने, समझाने में इन्हें विभिन्न नामों से प्रस्तुत किया जाता है। ये ही तर्क अथवा तर्क के विषय हैं। यह व्याप्ति सार्वकालिक तथा सार्वलौकिक होती है। धूम और अग्नि के संबंध को यद्यपि कोई व्यक्तिविशेष किसी समय अथवा स्थान विशेष पर देखकर उसका ज्ञान प्राप्त करता है, किन्तु यह संबंध तब से है जबसे धूम और अग्नि हैं और जहाँ कहीं भी धूम तथा अग्नि होगी वहाँ यह संबंध देखा जाएगा। अतः यह सभी समय और सभी स्थान के लिए है। इसे किसी समय विशेष तथा स्थान विशेष के अंतर्गत सीमित नहीं कर सकते। जैन-साधना एवं आचार व्याप्ति और प्रत्यक्ष - व्याप्ति संबंध को प्रत्यक्ष से ग्रहण नहीं किया जा सकता । प्रत्यक्ष किसी सीमित विषय को ग्रहण करता है। इसका संबंध वर्तमान से होता है। किन्तु व्याप्ति सार्वकालिक होती है। इसलिए व्याप्ति का प्रत्यक्षीकरण नहीं हो सकता । व्याप्ति-व्याप्तिज्ञान को जैनदर्शन में तर्क कहा गया है। ३४ । अतः यह समस्या उठती है कि व्याप्ति क्या है। व्याप्य और व्यापक के बीच पाया जाने वाला संबंध व्याप्ति के नाम से जाना जाता है। इसके संबंध में आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है ३५__ व्याप्तिर्व्यापकस्य व्याप्ये सतिभाव एव, व्याप्यस्य वा तत्रैव भावः । Jain Education International व्याप्ति और अनुमान अनुमान से भी व्याप्ति का बोध नहीं हो सकता, क्योंकि अनुमान तो स्वयं तर्क पर आधारित होता है। तर्क द्वारा प्रतिष्ठित व्याप्ति संबंध ही अनुमान की आधारशिला है। अतः तर्क को प्रत्यक्ष और अनुमान के अंतर्गत समाहित नहीं किया जा सकता, यह एक स्वतंत्र प्रमाण है, ऐसा जैन चिंतक मानते हैं। जैन विचारकों के मत में तर्क का कौन सा स्वरूप है और कितना इसका महत्त्व है, उसे हम संक्षिप्त में डा. सागरमल जैन के शब्दों में समझ सकते हैं " वस्तुतः तर्क को अन्तर्बोधात्मक ज्ञान अर्थात् प्रातिभज्ञान कहना इसलिए आवश्यक है कि उसकी प्रकृति इंद्रियानुभावात्मक ज्ञान अर्थात् लौकिक प्रत्यक्ष (Empirical Knowledge or Pereception) से और बौद्धिक निगमनात्मक (Deductive inference) दोनों से भिन्न है। तर्क अतीन्द्रिय (Non-Empirical) और अति बौद्धिक (Super Rational) है क्योंकि वह अतीन्द्रिय एवं अमूर्त संबंधों (Non-empirical Relations) को अपने ज्ञान का विषय बनाता है। उसके विषय हैं--जाति-उपजाति संबंध, जाति-व्यक्ति संबंध, सामान्य- विशेष संबंध, कार्य-कारण संबंध आदि। वह आपादान (Implication), अनुवर्तिता (Entailment), वर्ग सदस्यता (Class - Membership), कार्य-कारणता (Causality) और सामान्यता (Universality) का ज्ञान है । " जैन दर्शन में तर्क तथा व्याप्ति की एक और विशेषता यह बताई गई है - "व्याप्ति ग्रहण करने वाले योगीव प्रमाता । " अर्थात् जिस समय प्रमाता व्याप्ति का बोध करता है, वह योगी के समान हो जाता है, क्योंकि सार्वकालिक और सार्वलौकिक वस्तु को योगी के सिवा अन्य कोई ग्रहण नहीं कर सकता । अतः व्याप्ति ग्रहण की अवस्था योगावस्था है। সটটিটমিটএ५३ समीक्षा - स्मृति, प्रत्यभिज्ञान तथा तर्क-संबंधी विभिन्न विचार-विमर्शो को देखने के बाद जैन-दर्शन के संबंध में जो सामान्य धारणा बनती है, वह इस प्रकार है--अन्य दर्शन स्मृति For Private Personal Use Only PEMESANA www.jainelibrary.org

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