Book Title: Jain Nirvan Parampara aur Parivrutta Author(s): Ishwar Dayal Publisher: USA Federation of JAINA View full book textPage 9
________________ ण काऊ रुहे ण संगे ण इत्थी ण पुरिसे, ण अन्नहा परिणे स उमा विज अरूवी सत्ता अपयस्स पयं णत्थि जैन निर्वाण: परम्परा और परिवृत " वह न तिक्त है न कटुक न कसैला, न खट्टा, न मीठा न कठोर, न कोमल, न भारी, न हल्का न स्निग्ध न रूखा" । "कोई शरीर नहीं है जिसका " " कभी जन्म नहीं होगा जिसका " " स्पर्श नहीं कर सकता जिसको कोई " Jain Education International "वह न स्त्री है, न पुरुष, अन्य कुछ भी नहीं" "वह ज्ञाता है, चेतन है" "कोई उपमा नहीं है उसकी " "अरूपी सत्ता है" "उस निर्विशेष की कोई विशेषता नहीं कही जा सकती" यह है निर्वाण की परम स्थिति जो गुणातीत है, शब्दातीत है, अद्वैत । द्वैत रूप गुणात्मक होते हैं । शरीर के पार, मन के पार रूप- गुणों की सत्ता नहीं रहती । अतः द्वैत की सत्ता भी नहीं रहती । उसे शून्य कहें या सर्व दोनों मात्र दो शब्द हैं । महाप्राण निराला ने लिखा है - "शून्य को ही सब कुछ कहें या कुछ भी नहीं, दोनों एक ही चीज है " ( शून्य और शक्ति ) लोक- अलोक की सारी सीमाएँ उस ज्ञाता की परम सत्ता के समक्ष अदृश्य हो जाती हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने में 'कहा है : समयसार आदाणा पाणं गाणं णेय प्पमाणमुदिट्ठ | यं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं || ज्ञाता ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है, तथा ज्ञेय है लोकालोक प्रमाण । अतः सर्वगत है ज्ञान, सर्वगत है ज्ञाता - आत्मा अपनी शुद्ध-बुद्ध सत्ता में महावीर के शब्दों में आत्मा एक है - एगे आया । इस एक को जो जानता है वह सब को जानता है - जे एगं जाणइ से सव्वं जाण । यही वेदान्त, बौद्ध, ताओ, कनफ्यूसियस, ईसाई, जरथुस्त्र - दर्शन का मन्तव्य है । भेद हैं तो शब्दों के, जो देशकाल व परम्परा सापेक्ष होते हैं। लेकिन अभेद है सत्य, एक है सत्य, भगवान् है सत्य - सच्चं भगवं । ११५ सर्वोदय महाविद्यालय पत्रा० - गंध भड़सरा रोहतास, विहार- ८०२२१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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