Book Title: Jain Nirvan Parampara aur Parivrutta Author(s): Ishwar Dayal Publisher: USA Federation of JAINA View full book textPage 7
________________ जैन निर्वाण : परम्परा और परिवत ११३ आत्मा को माप-जोख पारम्परिक जैन मान्यता यह है कि निर्वाण के समय आत्मा पूर्व शरीर के ही दो तिहाई आकार में होती है। क्योंकि कर्म-परमाणुओं के निकल जाने पर खाली हुए प्रदेशों को भर कर आत्म-परमाणु घनीभूत हो जाते हैं। इसका कारण परम्परा यह मानती है कि शैलेषी अवस्था के साथ ही सारे कर्म समाप्त हो जाते हैं और कर्म के अभाव में आत्मा की कोई गति संभव नहीं। लेकिन यह मान्यता निम्न दृष्टियों से देखने पर कुछ प्रश्नों को जन्म देती है। • जैन परम्परा मानती है कि आत्मा के प्रदेश का विस्तार सारे लोक तक हो सकता है। केवलि समुद्घात के समय सारे लोक में आत्म-प्रदेश फैल कर व्याप्त हो जाते हैं । दिगम्बर परम्परा की मान्यता है कि निर्वाण के पूर्व केवलि समुद्घात होता है। फिर आत्मा के सारे प्रदेश पुनः संकुचित होकर शरीर का दो तिहाई विस्तार ग्रहण कर लेते हैं। इससे यह ध्वनित होता है कि आत्मा स्वभाव से लोकव्यापी है। * अगर कर्म शेष होने के कारण आत्मा अपना मूल लोकव्यापी विस्तार नहीं पा सकती तो कर्म के अभाव में वह संकोच की प्रक्रिया भी कैसे सम्पन्न कर सकती है ? * अगर कर्म-द्रव्य के अभाव से शून्य प्रदेशों को भरने के लिए उसका संकुचित होना आवश्यक है तो कर्मावरणों के क्षीण होकर समाप्त हो जाने पर उसका फैल कर अपना असीम आयाम ग्रहण कर लेना भी आवश्यक होना चाहिए। * क्या आत्मा का सघनतम आयाम मानव-शरीर का दो तिहाई ही है अपनी मूल स्थिति में संकुचित और घनीभूत होते समय अगर मानव-शरीर का दो तिहाई ही उसकी संकोच सीमा है और उससे अधिक उसका संकोच संभव ही नहीं तो निगोदिया जीव, जिसकी अवगाहना सबसे कम होती है, में वह कैसे रह पाती है ? अगर संकुचित होकर आत्मा अपनी मूल द्रव्यात्मक सत्ता ही पाना चाहे तो वह निगोदिया जीव से भी छोटी होनी चाहिए क्योंकि उसमें आत्मा तथा द्रव्यपुद्गल दोनों होते हैं और वह मानवीय आत्मा के समान ही अपनी मूल सत्ता में होती है । • अगर कर्म से ही सारी गति होती है, तो कर्म-मुक्ति की गति-शून्य अवस्था एक भयंकर बन्धन हो गई क्योंकि मरण-काल की स्थिति में ही उसे अनन्त काल तक सिद्धशिला पर रहना होगा। * अगर आत्मा में खाली प्रदेश हो ही नहीं सकते और अजीव-द्रव्य के निकलते ही उसे उन्हें भर कर घनीभूत होना ही पड़ता है तो सिद्धों की आत्माओं की परस्पर अवगाहना कैसे संभव होती है ? * शरीर से मुक्त होने का अर्थ है रूप से मुक्त होना-आकार से मुक्त होना क्योंकि रूप की परिधि मात्र ही आकार है। अरूप निराकार होगा, निराकार निःसीम होगा क्योंकि आकार सीमा ही है। और निःसीम दो नहीं हो सकते क्योंकि ऐसी स्थिति में वे दोनों एक दूसरे की सीमा को ससीम कर अपनी निःसीम सत्ता ही समाप्त कर डालेंगे । अतः आत्मा की सत्ता पर अनेकात्मकता ठहर नहीं पाती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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