Book Title: Jain Nirvan Parampara aur Parivrutta
Author(s): Ishwar Dayal
Publisher: USA Federation of JAINA

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Page 1
________________ जैन निर्वाण : परम्परा और परिवत ईश्वर दयाल प्रास्ताविक भारतीय और पाश्चात्य दर्शन-परम्पराओं में विभेद का एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु है-निर्वाण । पाश्चात्य धार्मिक-दार्शनिक परम्परा स्वर्ग पर आकर रुक जाती है चाहे उसे यूनानियों का एलीजियम कहें, ईसाइयों का पैराडाइज या यहूदियों और मुस्लिम परम्पराओं का मधु और दुग्ध से भरा प्रदेश । भारतीय दर्शन यह मानता है कि दुःख से एकांतिक मुक्ति और सुख की एकांतिक उपलब्धि मात्र कल्पना है। सुख और दुःख का अपरिहार्य सम्बन्ध है। अगर दुःखों के पार जाना है तो सुख के पार भी जाना होगा। सुखों के पार जाना है तो कामनाओं के पार भी जाना होगा। निष्कामता और वीतरागता ही मार्ग है उनका जो महावीर के शब्दों में “पारं गमा" है-पार चले गये हैं, "तोरं गमा" है-किनारे पहुँच चुके हैं, "ओघं तरा" है-समुद्र को पार कर चुके हैं। वह "पार" क्या है ? वह लक्ष्य क्या जिसे केन्द्र बनाकर भारतीय दर्शन-परम्पराओं की सारी साधनाएं चल रही हैं ? निर्वाण जैन एवं बौद्ध परम्पराओं में निव्वाण या निब्बाण शब्द अनेकशः आया है और आत्म-साधना के परम लक्ष्य के रूप में उस पर गहरा विवेचन भी उपलब्ध है। उसी अर्थ में वैदिक परम्परा में भी “निर्वाण' का प्रयोग मिलता है। गीता में "ब्रह्मनिर्वाण" शब्द प्रयुक्त हुआ है। उपनिषदों में भी बार-बार इस शब्द का प्रयोग आया है। इसका अर्थ आत्म-साक्षात्कार तथा ब्रह्मलीनता है। व्युत्पत्ति अभिधम्म महाविभाषा में “निर्वाण" शब्द की अनेक व्युत्पत्तियां प्रज्ञप्त हैं, यथा : * वाण का अर्थ है "पुनर्जन्म का रास्ता"। "निर" अर्थात् "छोड़ना" । अतः निर्वाण का अर्थ हुआ "स्थायी रूप से पुनर्जन्म के रास्ते को छोड़ना" । * "वाण" का अर्थ है दुर्गन्ध' । 'निर' अर्थात् नहीं । इस सन्दर्भ में निर्वाण का अर्थ है "वह स्थिति जो दुःख देने वाले कर्मों की दुर्गन्ध से सर्वथा मुक्त है"। ___* "वाण का अर्थ है “घना जंगल'। निर अर्थात् इससे छुटकारा पाना। अतः “निर्वाण" का अर्थ हुआ "एक ऐसी स्थिति जिसमें स्कन्धों, तीन प्रकार की अग्नि ( उत्पत्ति, स्थिति और विनाश ) के घने जंगल से छटकारा पा लिया गया हो"। १ भारतीय दर्शन में मोक्ष चिन्तन : डा० अशोक कुमार लाड, मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, पृ०६४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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