Book Title: Jain Nari Samaj me Prayukta Vishishta Shabdavali Author(s): Alka Prachandiya Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf View full book textPage 3
________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ध्वनि की दृष्टि से प्रत्येक अक्षर और अर्थ-अभिधा, लक्षणा, व्यंजना की दृष्टि से प्रत्येक शब्द जिस प्रकार भाषा में एक इकाई होता है अर्थ अभिप्राय की दृष्टि से प्रत्येक मुहावरा भी भाषा की एक इकाई ही होता है। प्रश्न है, जैसे भाव होते हैं भावाभिव्यक्ति में उसी प्रकार की शब्दावलि और उसी प्रकार की शब्द शक्ति और उसका प्रयोग आवश्यक हो जाता है। हिंसक प्रधान परिवारों की शब्दावलि. हिंसाप्रधान होगी। कसाई, शिकारी अथवा मांसाहारियों के घरों में बोली आने वाली शब्दावलि भिन्न प्रकार की होती है । अहिंसक, सत्याचरण तथा शाकाहारियों के घरों में प्रयोग में आनेवाली शब्दावलि सर्वथा अहिंसाप्रधान होगी। यहाँ जैन परिवारों में परम्परा से प्रयोग में आनेवाली प्रचलित शब्दावलि पर संक्षेप में विचार करना हमारा मूल अभिप्रेत रहा है । खान-पान हमारे विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है । लोक में कहावत प्रचलित है कि 'जैसा खाओगे अन्न वैसा होगा मन्न' । खाने का मन पर प्रभाव पड़ा करता है। इसीलिए भोजन की शुद्धता पर आरम्भ से ही बल दिया गया है। भारतीय परिवारों में भोजन व्यवस्था गृहिणी के अधीन हुआ करती है। यहाँ चौका की मान्यता है । यद्यपि यह रूढ़ि शब्द रूढ़ि अर्थ में ही प्रयोग में आने लगा है। क्षेत्र विशेष को लेकर लकीर खींचकर उसे अन्य से पृथक कर लिया जाता है। उसमें आम प्रवेश प्रायः वजित रहता है । जैन परिवारों में चौका का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहाँ चौका शब्द से इतना भर तात्पर्य नहीं है। इसके मूल में चार प्रकार की शुद्धियों का अभिप्राय अन्तनिहित है। यथा(१) क्षेत्र शुद्धि, (२) द्रव्य शुद्धि, (३) काल शुद्धि, (४) भाव शुद्धि। जहाँ भोजन बनने और जीमने की प्रक्रिया सम्पन्न होती है वह क्षेत्र शुद्ध होना चाहिए । इसी को क्षेत्र शद्धि कहा गया है। इन घरों में रसोई का क्षेत्र सुनिश्चित बनाया जाता है जिस ई का क्षेत्र सुनिश्चित बनाया जाता है जिसमें प्रवेश पाने के लिए व्यक्ति को शरीर शुद्धि और भाव शुद्धि को अपेक्षा रहती है । द्रव्य शुद्धि से तात्पर्य रसोई में प्रयोग में आने वाला द्रव्य-पदार्थ शुद्ध होना चाहिए । पके फलों, शाक-सब्जियों के साथ-साथ अन्य पदार्थों की शुद्धि पर विचारपूर्वक ध्यान दिया जाता है। जल का प्रयोग होता है तो वह छना हुआ होता है। कच्चे और अल्पावधि के शाक सब्जियों का प्रयोग निषेध । चौथी बात है कि ऐसे फलों में निगोदकायिक जीवों की प्रधानता रहती है। उदाहरण के लिए, पतली और छोटी-छोटी ककरियों तथा लोका अथवा अन्य फल पूर्णता प्राप्त करने पर ही प्रयोग में लेने का विधान निर्देश है। काल शुद्धि से तात्पर्य है दिवा भोजन का प्रयोग करना। सूर्य ऊर्जा का केन्द्र है । इसके प्रकाश में पोषणकारी तत्त्वों की प्रधानता रहती है । फलस्वरूप हिंसापरक समस्याएँ कम, बहुत कम रह जाती हैं। जैन परिवारों में सूर्य प्रकाश का अतिशय महत्व है। यहाँ सूर्य की इसीलिए प्रतिष्ठा है। मात्र उसे 'सूर्य नारायण' कहकर नमस्कार करना और छुट्टी ले लेना यहाँ अभिप्रेत नहीं है । जैन-आचारों में सूर्यजन्य गुणों का उपयोग आरम्भ से ही किया जाता रहा है। इसीलिए सूर्य-प्रकाश में भोजन बनाने और जीमने का चर्या-विधान है । यही वस्तुतः कालशुद्धि कहलाती है । इन त्रय शुद्धियों से भी महत्वपूर्ण है भाव शुद्धि । भोजन करने-कराने के उद्देश्य, उपयोग तथा भावना पर सावधानीपूर्वक विचार किया जाता है । मन से, वचन से तथा काय से शुद्धि अर्थात् शुभ भावपूर्वक भोजन करना-कराना अनिवार्य है । चित्त मे दुराव अथवा छिपाव के साथ भाव + + + ५HHHHHH २७८ | छठा खण्ड : नारी समाज के विकास में जैन साध्वियों का योगदान www.jaineiraPage Navigation
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