Book Title: Jain Nari Samaj me Prayukta Vishishta Shabdavali
Author(s): Alka Prachandiya
Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf

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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ HHHHH जैन नारी-समाज में प्रयुक्त विशिष्ट शब्दावलि और उसमें व्यंजित धार्मिकता -श्रीमती डा. अलका प्रचण्डिया [एम० ए० (संस्कृत), एम० ए० (हिन्दी), पी-एच. डी० (अपभ्रंश)] प्राणी द्रव्य अथवा तत्त्व पर्याय धारण कर नाना गतियों में सुख-दुःख अनादि काल से भोगता रहा है। नरक गति में अनन्त दुःख और देव गति में अनन्त सुख, तिर्यंच गति में अधिक दुःख और बहुत कम सुख भोगने का अवसर मिला करता है। मनुष्य गति में भली प्रकार से दुःख और सुख भोगने की शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त होती है । बड़ी बात यह है कि केवल मनुष्य गति को पाकर प्राणी संयम और तप साधना के अवसर प्राप्त करता है। इसी से वह अपने पुराने कर्मजाल को काटने का सद्प्रयास कर सकता है । अन्यगति में यह सुविधा प्राप्त नहीं है। मनुष्य गति का जीवन व्यवस्था और आस्था सम्पन्न होता है। गृह होता है। गृहपति होता है, और गृह-स्वामिनी भी होती है। यही परिवार की इकाई कहलाती है। इसी से प्राणी कल्याणकारी संस्कार प्राप्त करता है और यहीं से मिथ्यात्व के वशीभूत अधोगति की ओर उन्मुख होता है। मानवी समुदाय और समाज की इकाई में पुरुष और नारी का समवेत महत्व और दायित्व होता है। ___ भारतीय तथा चीनी-संस्कृतियाँ मिलकर संसार की प्राचीनतम संस्कृति के रूप को स्वरूप प्रदान करती हैं । यूनानी संस्कृति में समाज की प्रधानता है, भारतीय संस्कृति में व्यक्ति की प्रमुखता है जबकि चीनी संस्कृति में परिवार की मुख्यता । __ भारतीय संस्कृति में वैदिक, बौद्ध और जैन संस्कृतियों का समीकरण है । जैन संस्कृति में व्यत्ति. तज्जन्य गुणों की वंदना का विधान है । व्यक्ति ही अपने भाग्य का निर्मापक होता है। व्यक्ति कर्म करता है और वह स्वयं ही अपने कर्मफल का भोक्ता होता है । यहाँ आरम्भ से यही प्रेरणा रही है कि सुधरे व्यक्ति, समाज व्यक्ति से उसका असर राष्ट्र पर हो। राष्ट्र अथवा अन्तर्राष्ट्र सुधारना है तो व्यक्ति का २७६ | छठा खण्ड : नारी समाज के विकास में जैन साध्वियों का योगदान मानस www.jaine

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