Book Title: Jain Murtikala ki Parampara Author(s): Maruti Nandan Prasad Tiwari Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 4
________________ विभिन्न साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक साक्ष्यों ज्ञात होता है कि मौर्यकाल ( चौथी - तीसरी शती ई० पू० ) में जैन मूर्तियों का निर्माण निश्चित रूप से प्रारम्भ हो गया था । जैन परम्परा के अनुसार जैन धर्म को लगभग सभी समर्थ मौर्य शासकों का समर्थन प्राप्त था । चन्द्रगुप्त मौर्य का जैन धर्मानुयायी होना तथा जीवन के अन्तिम वर्षों में भद्रबाहु के साथ दक्षिण भारत जाना सुविदित है ।" कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जयन्त, वैजयन्त, अपराजित एवं अन्य जैन देवों की मूर्तियों का उल्लेख है। अशोक बौद्ध धर्मानुयायी होते हुए भी जैन धर्म के प्रति उदार था उसने निर्धन्यों एवं आजीविकों को दान दिये थे। सम्प्रति को भी जैन धर्म का अनुयायी कहा गया है। किन्तु मौर्य शासकों से संबद्ध इन परम्पराओं के विपरीत पुरातात्त्विक साक्ष्य के रूप में लोहानीपुर से प्राप्त केवल एक जिन मूर्ति ही, है, जिसे मौर्य युग का माना जा सकता है। जैन मूर्तिकला की परम्परा पटना के समीप लोहानीपुर से मिली मौर्यकालीन मूर्ति जिन मूर्ति का प्राचीनतम ज्ञात उदाहरण है । यह मूर्ति सम्प्रति पटना संग्रहालय में सुरक्षित है । मौर्ययुगीन चमकदार आलेप से युक्त ल० तीसरी शती ई० पू० की इस मूर्ति के सिर, भुजा और जानु के नीचे का भाग खण्डित है मूर्ति की नग्नता और कायोत्सर्ग मुद्रा इसके जिनमूर्ति होने । की सूचना देते हैं । कायोत्सर्ग मुद्रा में जिन समभंग में सीधे खड़े होते हैं और उनकी दोनों भुजाएँ लंबवत् घुटनों तक प्रसारित होती हैं। ज्ञातव्य है कि यह मुद्रा केवल जैन तीर्थकरों के मूर्त अंकन में ही प्रयुक्त हुई है। लोहानीपुर के उत्खनन में प्राप्त होने वाली मौर्ययुगीन ईंटें एवं एक रजत आर्हतमुद्रा भी उपर्युक्त मूर्ति के मौर्यकालीन होने के समर्थक साक्ष्य हैं । इस मूर्ति के निरूपण में यक्ष मूर्तियों का प्रभाव दृष्टिगत होता है । यक्षमूर्तियों की तुलना में मूर्ति की शरीर रचना में भारीपन के स्वान पर सन्तुलन है, जिसे जैन धर्म में योग के विशेष महत्व का परिणाम स्वीकार किया जा सकता है । शरीर रचना में प्राप्त सन्तुलन मूर्ति के मौर्ययुग के उपरान्त निर्मित होने का नहीं वरन् उसके तीर्थंकर मूर्ति होने का सूचक है । मौर्य शासकों द्वारा जैन धर्म को समर्थन प्रदान करना और अर्थशास्त्र एवं कलिंग शासक खारवेल (ल० पहली शती ई० पू० ) के लेख के उल्लेख लोहानीपुर मूर्ति के मौर्ययुगीन मानने के अनुमोदक तथ्य हैं । खारवेल के लेख में उल्लेख है कि कलिंग की जिस जिन प्रतिमा को नन्दराज 'तिवससत' वर्ष पूर्व कलिंग से मगध ले गया था, उसे खारवेल पुनः वापस ले आया । 'तिवससत' शब्द का अर्थ अधिकांश विद्वान् ३०० वर्ष मानते हैं । इस प्रकार लेख के आधार पर भी जिन-मूर्ति की प्राचीनता मौर्यकाल (ल० चौथी-तीसरी शती ई० पू० ) तक जाती है । शुंगकुषाण एवं बाद के युगों में जिन मूर्तियों का क्रमश: विकास होता गया और उनमें नवीन विशेषताएँ जुड़ती चली गयीं । लोहानीपुर जिन मूर्ति के बाद की दूसरी जिन-मूर्ति ल० पहली शती ई० पू० की है। मस्तक पर सर्पफणों के छत्र से युक्त यह पार्श्वनाथ मूर्ति प्रिंस आव वेल्स संग्रहालय, बम्बई में संग्रहीत है। पार्श्वनाथ निर्वस्त्र हैं और कायोत्सर्ग १ द्रष्टव्य - मुखर्जी, आर० के०, चन्द्रगुप्त मौर्य एण्ड हिज टाइम्स, दिल्ली, १९६६ ( पु० मु० ), पृ० ३९-४१. २ भट्टाचार्य बी० सी०, दि जैन आइकनोग्राफी, लाहौर, १६३२, पृ० ३२. ३ ४ १५३ द्रष्टव्यथापर रोमिला अशोक एन्ड दि डिक्लाइन आव दि मौर्याज आक्सफोर्ड, १९६३ (५० मु० ),. पृ० १३६-८१ मुखर्जी, आर० के०, अशोक, दिल्ली, १६७४, पृ० ५४-५५. परिशिष्टपर्वन ९.५४; द्रष्टव्य - थापर रोमिला, पूर्वनिर्दिष्ट, पृ० १८७. ५ जायसवाल, के० पी०, जैन इमेज आव मौर्य पिरियड, जर्नल बिहार, उड़ीसा रिसर्च सोसायटी, खं० २३, भाग १, १९३७, पृ० १३०-३२. रे, निहार रंजन, मौर्य एण्ड शुंग आर्ट, कलकत्ता, १९६५, पृ० १५५. सरकार, डी० सी०, सेलेक्ट इन्स्क्रिप्शनस, बं० १, कलकत्ता, १६६५, पृ० २१५ पादटिप्पणी ६. ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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