Book Title: Jain Murtikala ki Parampara Author(s): Maruti Nandan Prasad Tiwari Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 3
________________ १५२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड मति के प्राचीनतम उल्लेख आगम ग्रन्थों से सम्बन्धित छठी शती ई. के बाद की उत्तरकालीन रचनाओं, यथानियुक्तियों, भाष्यों, चूणियों आदि में ही प्राप्त होते हैं। इन ग्रन्थों से कौशल, उज्जैन, दशपुर (मंदसौर), विदिशा, पुरी एवं वीतभयपट्टन में जीवन्तस्वामी मूर्तियों की विद्यमानता की सूचना प्राप्त होती है। जीवन्तरवामी मूर्ति का उल्लेख सर्वप्रथम वाचक संघदासगणि कृत वसुदेवहिण्डी (६१० ई० या लगभग एक या दो शताब्दी पूर्व की कृति) में प्राप्त होता है। ग्रन्थ में आर्या सुव्रता नाम की एक गणिनी के जीवन्तस्वामी मति के प्रजनार्थ उज्जैन जाने का उल्लेख है। जिनदास कृत आवश्यकचूणि (६७६ ई०) में जीवन्तस्वामी की प्रथम मति की कथा प्राप्त होती है। इसमें अच्युत इन्द्र द्वारा पूर्वजन्म के मित्र विद्युन्माली को महावीर की मूर्ति के पूजन की सलाह देने, विद्य न्माली के गोशीर्ष चन्दन की मूर्ति बनाने एवं प्रतिष्टा करने, विद्युन्माली के पास से मूति एक वणिक के हाथ लगने, कालान्तर में महावीर के समकालीन सिन्धु-सौवीर में वीतभयपत्तन के शासक उदायन एवं उसकी रानी प्रभावती द्वारा उसी मूर्ति के वणिक् से प्राप्त करने एवं रानी प्रभावती द्वारा मूर्ति की भक्ति भाव से पूजा करने का उल्लेख है। यही कथा हरिभद्रसूरि की आवश्यकवत्ति में भी वर्णित है। इसी कथा का उल्लेख हेमचन्द्र (११६६-७२ ई०) ने त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र (पर्व १०, सर्ग ११) में कुछ नवीन तथ्यों के साथ किया है । हेमचन्द्र ने स्वयं महावीर के मुख से जीवन्त स्वामी मूर्ति के निर्माण का उल्लेख कराते हए लिखा है कि क्षत्रियकुण्ड ग्राम में दीक्षा लेने के पूर्व छदमस्थ काल में महावीर का दर्शन विद्युन्माली ने किया था। उस समय उनके आभूषणों से सुसज्जित होने के कारण ही विद्युन्माली ने महावीर की अलंकरणयुक्त प्रतिमा का निर्माण किया । अन्य स्रोतों से भी ज्ञात होता है कि दीक्षा लेने का विचार होते हुए भी अपने ज्येष्ठ भ्राता के आग्रह के कारण महावीर को कुछ समय महल में ही धर्म-ध्यान में समय व्यतीत करना पड़ा था। हेमचन्द्र के अनुसार विद्य - न्माली द्वारा निर्मित मूल प्रतिमा विदिशा में थी। हेमचन्द्र ने यह भी उल्लेख किया है कि चौलुक्य शासक कुमारपाल ने वीतभयपट्टन में उत्खनन करवाकर जीवन्त स्वामी की प्रतिमा प्राप्त की थी। जीवन्तस्वामी मति के लक्षणों का उल्लेख हेमचन्द्र के अतिरिक्त अन्य किसी भी जैन आचार्य ने नहीं किया है। क्षमाश्रमण संघदास रचित बृहत्कल्पभाष्य के भाष्य गाथा २७५३ पर टीका करते हुए क्षेमकीति (१२७५ ई०) ने लिखा है कि मौर्य शासक संप्रति को जैन धर्म में दीक्षित करने वाले आर्य सुहस्ति जीवन्तस्वामी मूर्ति के पूजनार्थ उज्जैन गये थे। सम्पूर्ण अध्ययन से स्पष्ट है कि पांचवीं-छठी शती ई० के पूर्व जीवन्तस्वामी के सम्बन्ध में हमें किसी प्रकार की ऐतिहासिक सूचना नहीं प्राप्त होती है । उपलब्ध साहित्यिक (वसुदेव हिाडी) एवं पुरातात्विक (3 कोटा से मिली जीवन्तस्वामी मूर्तियाँ) साक्ष्य पाँचवीं-छठी शती ई० के ही हैं । इस सन्दर्भ में महावीर के गणधरों द्वारा रचित आगम साहित्य में जीवन्तस्वामी मूर्ति के उल्लेख का पूर्ण अभाव जीवन्तस्वामी मूर्ति की धारणा की परवर्ती ग्रन्थों द्वारा प्रतिपादित महावीर की समकालिकता पर एक स्वाभाविक सन्देह उत्पन्न करता है। कल्पसूत्र एवं ई० पू० के अन्य ग्रन्थों में भी जीवन्तस्वामी मूर्ति का अनुल्लेख इसी सन्देह की पुष्टि करता है। वर्तमान स्थिति में जीवन्तस्वामी मति की धारणा को महावीर के समय तक (छठी शती ई० पू०) ले जाने का हमारे पास कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। १ जैन, हीरालाल, भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, भोपाल, १९६२, पृ० ६२. २ द्रष्टव्य, जैन जे० सी०, लाईफ इन ऐन्शण्ट इण्डिया : ऐज डेपिक्टेड इन दि जैन केननस, बम्बई, १६४७, पृ० २५२, ३००, ३२५. ३ द्रष्टव्य -- शाह, यू० पी०, श्री जीवन्तस्वामी, जैन सत्यप्रकाश, वर्ष १७, अंक ५-६, पृ० १८. ४ वसुदेवहिण्डी (संघदास कृत), खं० १, सं० मुनि श्री पुण्यविजय, आत्मानन्द जैन ग्रन्थमाला ८०, भावनगर, १६३०, भाग १, पृ० ६१. ५ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, १०-११,३७९-८०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5