Book Title: Jain Kavi Kumarsambhav Author(s): Satyavrat Publisher: Z_Arya_Kalyan_Gautam_Smruti_Granth_012034.pdf View full book textPage 3
________________ [६८] AIAITI H AARAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAILI पुत्र-रत्न की प्राप्ति होगी। तुम्हारे पति का वचन मिथ्या नहीं हो सकता । तुम्हारे पुत्र के नाम से (भरत से) यह भूमि 'भारत' तथा वाणी 'भारती' कहलाएगी। मध्याह्न-वर्णन के साथ काव्य सहसा समाप्त हो जाता है। जयशेखर को प्राप्त कालिदास का दाय : कालिदास के महाकाव्यों तथा जैन कुमारसम्भव के तुलानात्मक अध्ययन से स्पष्ट है कि जैन कवि की कविता, कालिदास के काव्यों, विशेषतः कुमारसम्भव से बहत प्रभावित है। कालिदास-कृत कुमारसम्भव की परिकल्पना, कथानक के संयोजन, घटनाओं के प्रस्तुतीकरण तथा काव्यरूढियों के परिपालन में पर्याप्त साम्य है। यह बात अलग है कि कालिदास का मनोविज्ञानवेत्ता ध्वनिवादी कवि वस्तुव्यापारों की योजना करके भी कथानक को समन्वित बनाए रखने में सफल हया है जब कि जयशेखर महाकवि के प्रबल आकर्षण के आवेग में अपनी कथावस्तु को न संभाल सका । कालिदास के कुमारसम्भव का प्रारम्भ हिमालय के हृदयग्राही वर्णन से होता है, जैन कुमारसम्भव के प्रारम्भ में अयोध्या का वर्णन है। कालिदास के हिमालय वर्णन के बिम्ब-वैविय, यथार्थता तथा सरस शैली का प्रभाव होते हए भी अयोध्या का वर्णन कवि की कवित्वशक्ति का परिचायक है । महाकवि के काव्य तथा जैन कुमारसम्भव के प्रथम सर्ग में क्रमशः पार्वती तथा ऋषभ देव के जन्म, शैशव, यौवन तथा तज्जन्य सौन्दर्य का वर्णन है । कुमारसम्भव के द्वितीय सर्ग में तारक के अातंक से पीड़ित देवताओं का एक प्रतिनिधि-मण्डल ब्रह्मा की सेवा में जाकर उनसे कष्ट निवारण की प्रार्थना करता है। जयशेखर के काव्य में स्वयं इन्द्र ऋषभ को विवाहार्थ प्रेरित करने आता है, और प्रकारान्तर से उस कर्म की पूर्ति करता है जिसका सम्पादन कुमारसम्भव के षष्ठ सर्ग में सप्तर्षि अोषधिप्रस्थ जाकर करते हैं। दोनों काव्यों के इस सर्ग में एक स्तोत्र का समावेश किया गया है । किन्तु जहाँ ब्रह्मा की स्तुति में निहित दर्शन की अन्तर्धारा उसे दर्शन के उच्च धरातल पर प्रतिष्ठित करती है, वहाँ जैन कुमारसम्भव में ऋषभदेव के पूर्व भवों तथा सुकृत्यों की गणना मात्र कर दी गयी है। फलतः कालिदास के स्तोत्र के समक्ष जयशेखर का प्रशस्तिगान शुष्क तथा नीरस प्रतीत होता है । महाकविकृत कुमारसम्भव के तृतीय सर्ग में इन्द्र तथा वसन्त का संवाद पात्रों की व्याहारिकता, प्रात्मवास, शिष्टाचार तथा काव्यमत्ता के कारण उल्लेखनीय है। जैन कवि ने भी इसी सर्ग में इन्द्र-ऋषभ के वार्तालाप की योजना की है, जो उस कोटि का न होता हा भी रोचकता से परिपूर्ण है। इसी सर्ग में सुमंगला तथा सुनन्दा की और चतुर्थ सर्ग में ऋषभदेव की विवाह पूर्व सज्जा का विस्तृत वर्णन सप्तम सर्ग के शिव-पार्वती के अलंकरण पर आधारित है। कालिदास का वर्णन संक्षिप्त होता हसा भी यथार्थ एवं मामिक है, जबकि जैन कुमारसम्भव का वरवधू के प्रसाधन का चित्रण अपने विस्तार के कारण सौन्दर्य के नखशिख निरूपण की सीमा तक पहुँच गया है । कालिदास की अपेक्षा वह अलंकृत भी है, कृत्रिम भी, यद्यपि दोनों में कहीं-कहीं भावसाम्य अवश्य दिखाई देता है। कालिदास के काव्य में सर्य, ब्रह्मा, विष्ग प्रादि देव तथा लोकपाल शंकर की सेवा में उपस्थित होते हैं। जैन कुमारसम्भव में लक्ष्मी, सरस्वती, मन्दाकिनी तथा दिक्कूमारियाँ वधों के अलंकरण के लिये प्रसाधन-सामग्री भेट करती हैं। जैन कुमारसम्भव के पंचम सर्ग में पुरसुन्दरियों की चेष्टायों का वर्णन रघवंश तथा कुमारसम्भव के ३ कुमारसम्भव, ७६, ११, १४, २१ तथा जैन कुमारसम्भव, ४।१५, १७, ३।६४, ४।३१ आदि ४ कुमारसम्भव, ७४४३-४५ ५ जैन कुमारसम्भव, ३५१-५५ શ્રી આર્ય કરયાણાગતમ સ્મૃતિગ્રંથ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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