Book Title: Jain Kathasahitya Ek Parichay Author(s): Shreechand Jain Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 2
________________ प्रो० श्रीचन्द्र जैन : जैन कथा-साहित्य : एक परिचय : म सुलभ व प्रभावशाली साधन मानते थे और उन्होंने इसी दृष्टि से उपरोक्त सभी भाषाओं में, गद्य-पद्य दोनों में ही कहानी कला को चरम विकास की सीमा तक पहुंचाया. उनकी कथाएँ दैनिक जीवन की सरल से सरल भाषा में होती थीं. कोईकोई कथाएँ तो केवल एक ही साधारण कथा हुआ करती थी पर अधिकांशतः कथाओं में बहुत सी गौण कथाएँ इस ढंग से मिली रहती थीं कि कथा का क्रम नहीं टूटने पाता था और काफी लम्बे समय तक वही कथा चलती रहती थी ( जैसे पंचतंत्र ). 'उनका कथा कहने का ढंग अन्यों की अपेक्षा कुछ विशेषता युक्त है. कथा के प्रारंभ में जैन साधु कोई प्रसिद्ध धर्मवाक्य या पद्यांश कहते हैं और फिर बाद में कथा कहना शुरू करते हैं. कथा की लम्बाई या छोटाई पर वे जरा भी ध्यान नहीं देते. उनकी कथाएँ बहुत ही रोमांटिक घटनाओं (अधिकांश घटनाएँ एक दूसरे से गुवी रहती है) से युक्त रहती हैं. कहानी के अन्त में वे पाठकों का परिचय एक केवली - त्रिकालदर्शी जैन साधु से कराते हैं. जो कथा से सम्बद्ध नगर में आता है और कथा के पात्रों को सन्मार्ग पर आने का उपदेश देता है. केवली का उपदेश सुनकर कथा के पात्र पूछते हैं कि संसार में प्राणियों को दुःख क्यों सहने पड़ते हैं, दुखों से छूटकारा पाने का उपाय क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में केवली जैनधर्म के प्रमुख तत्त्व कर्म का वर्णन करने लग जाता है-प्राणी के पूर्वकृत कर्मों के फलस्वरूप में ही उसे सुख या दुःख की प्राप्ति होती है. अपने इस कथन का सम्बन्ध वह कहानी के पात्रों के जीवन में घटित घटनाओं से स्पष्ट करता है. भारतीय कथाकला की विशेषताओं के रूप में हम जैन कथावृत्तान्तों को ले सकते हैं. भारतीय जनता के प्रत्येक वर्ग के आचार-विचारों एवं व्यवहारों के विषय में उनसे यथार्थ एवं सविस्तार परिचय मिलता है. जैन- कथा - वृत्तान्त विशाल भारतीय साहित्य के एक प्रमुख अंग के रूप में अपना महत्त्व प्रदर्शित करते हैं. वे केवल भारतीय लोककथाओं के क्षेत्र में ही नहीं, वरन् भारतीय सभ्यता व संस्कृति के इतिहास के क्षेत्र में भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं. जैनों के कथा कहने के ढंग में बौद्धों के ढंग से कई बातों में काफी अन्तर है. जैनों की कथा की मूल वस्तु भूत को वर्तमान से सम्बद्ध रखती है. वे अपने सिद्धांतों का सीधा उपदेश नहीं देते, उनके कथानकों से ही अप्रत्यक्ष रूप से उनका उपदेश प्रकट होता है. एक सब से बड़ा अन्तर जो है, वह यह कि उनकी कथाओं में 'बोधिसत्व' के समान भविष्य के 'जिनके रूप में कोई पात्र नहीं आता." (व्र० पं० चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रंथ ( पृष्ठ ४२८-४३० ). डा० सत्येन्द्र, एम० ए०, पी-एच० डी० ने भी जैन लोक कथाओं पर विचार प्रकट किए हैं. वे लिखते है- 'जैन साहित्य में तो बौद्ध साहित्य से भी अधिक कहानियों का भण्डार मिलता है. ये कहानियाँ कुछ तो धर्म के सिद्धांत ग्रंथों में आयी है. ये बहुधा तीर्थकरों तथा उनके भ्रमण अनुयायियों तथा शलाकापुरुषों की जीवन-झांकियों के रूप में जहाँ यहाँ मिल जाती है. कहीं-कहीं इन ग्रंथों में किसी कथा का संकेत मात्र मिलता है. आचारांग और कल्पसूत्र में महावीर के जीवन पर प्रकाश पड़ता है. नेमिनाथ और पार्श्वनाथ के सम्बन्ध में भी इनमें वृत्त मिल जाते हैं. 'नायाधम्मकहाओ' में अनेकों दृष्टांत स्वरूप रूपक कहानियाँ (पैरेवल ) भी हैं. ' जैन कथाओं का वर्गीकरण जैन कथाओं का विभाजन करना सुगम नहीं है, फिर भी पात्रों, एवं वर्ण्य विषयों आदि के आधार पर इन्हें विभाजित किया जा सकता है. पात्रों पर आधारित विभाजन इस प्रकार हो सकता है : १. महाराजा और महारानी सम्बन्धी कथाएँ. २. महाराजकुमार और महाराजकुमारी सम्बन्धी कथाएँ. ३. उच्चवर्णीय मानव सम्बन्धी कथाएँ. Jain Education Internation १. ब्रज लोक साहित्य का अध्ययन, पृष्ठ ४१६ *** *** *** *** wwwwwwwww. *** Dj.orgPage Navigation
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