Book Title: Jain Kathasahitya Ek Parichay
Author(s): Shreechand Jain
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 1
________________ प्रो. श्रीचन्द्र जैन एम० ए०, एल-एल० बी० अध्यक्ष हिन्दी विभाग, गर्व० कालेज, खरगोन जैन कथा-साहित्य : एक परिचय भारतीय लोक-कथाओं में जैन कथाओं का विशिष्ट स्थान है. उनकी संख्या भी पर्याप्त है और उनके विषय-विवेचन में भी विशिष्ट मौलिकता है. संसार के समस्त अनुभवों को अपने आँचल में छिपाए हुए उन कथाओं ने विरक्ति और सदाचार को विशेषतः प्रतिफलित किया है. यथार्थवाद के धरातल पर निर्मित इनकी रूप-रेखाओं में आदर्शवाद का ही रंग गहरा है. इन्होंने एक बार नहीं हजार बार बताया है कि मानव का लक्ष्य मोक्षप्राप्ति है और इसमें सफल होने के लिए उसे संसार से विरक्त होना पड़ेगा. यद्यपि पुण्य सुखकर है और पाप की तुलना में इसकी उपलब्धि श्रेयस्कर है फिर भी पुण्य की कामना का परित्याग एक विशेष परिस्थिति में आत्म-शुद्धि के लिए आवश्यक है. इस परम पुनीत उद्देश्य का स्मरण इन कथाओं के माध्यम से पाठकों को बारम्बार कराया गया है. इन कथाओं से स्पष्ट है कि समस्त प्राणियों की चिन्ता करने वाले जैन-धर्म के सिद्धांतों में सर्वभूतहिताय' की भावना सदैव स्पंदित रही है. वर्ग-भेद अथवा जाति-भेद की कल्पना के लिए यहाँ स्थान है ही नहीं. पशु-पक्षी, देव-दानव, राजा रंक और श्वपच को भी समान रूप से धर्मोपदेश सुनाकर जैनमुनियों ने अपनी उदारता का परिचय दिया है. जैनआचार्यों ने जैन-धर्म के सिद्धांतों को समझाने के लिए जिन कथानों का सहारा लिया है, वे कोरी काल्पनिक नहीं है वरन उनकी कथावस्तु में वास्तविकता है तथा आदर्शवाद की परिपुष्टि में उनका अवसान हुआ है. कर्मसिद्धांत के निरूपण से इन कथाओं में पाप-पुण्य की विशद व्याख्या भी हुई है. प्रत्येक जीव को अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है. इस अटल सिद्धांत की परिधि के बाहर न देवता जा सकते हैं और न नरपति. ऋषि-मुनियों को भी अपने कृत्यों के शुभाशुभ परिणामों का अनुभव करना पड़ता है. जिस प्रकार एक पुण्यवान् मानव पावन कार्य करके स्वर्ग के सूखों को भोगता है उसी प्रकार एक वन-पशु भी सामान्य व्रतों के पालन से देव बन जाता है. इसी प्रकार नरपालक अपने पापों के वशीभूत होकर नरकगामी हो जाता है. जैन-धर्म पुनर्जन्म के सिद्धांत में पूर्ण आस्थावान् है. इसीलिए कर्मवाद की अभिव्यक्ति अधिक प्रभावशालिनी बन जाती है. किसी कारण विशेष से यदि कोई जीव अपने वर्तमान जीवन में अपने कर्मों का फल नहीं भोग पाता तो उसे दूसरे जन्म में अवश्य ही भोगना पड़ता है. जैन लोक-कथा-साहित्य पर लिखते हुए श्रीमती मोहनी शर्मा ने कहा है कि-"जैन कथा-साहित्य मात्रा में बहुत ही विशाल है. उसमें रोमांस, वृत्तान्त, जीवजन्तु लोक, परम्परा प्रचलित मनोरंजक, वर्णनात्मक, आदि सभी प्रकार की कथाएँ, प्रचुर मात्रा में मिलती हैं. जनसाधारण में अपने सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए जैन-साधु कथाओं को सबसे *** ** * ** * ** * * **

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