Book Title: Jain Kathasahitya Ek Parichay Author(s): Shreechand Jain Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 5
________________ ८८८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय wanawwwwwwwwwwwwww तन काल की विशेषता कही जाय तो अनुचित न होगा. नरपति तथा धनिक वर्ग अनेक पत्नियों का पति बन कर अपनी कामवासना की पूर्ति करता था. हरिण्यवर्मा ने एक हजार कुमारियों को अपनी पत्नियों के रूप में रखा था. [देखिएजयकुमार-सुलोचना की कथा]. तत्कालीन नरेश अपनी प्रजा का पूर्ण रूपेण संरक्षण करते थे और निष्पक्ष न्याय के कारण बड़े लोक-प्रिय थे. सामाजिक जीवन सुखी और समृद्ध था तथा सांसारिक सुखों का भोग मानव-समाज सुरुचि से करता रहता था. समय आने पर मुक्तकरों से दान भी देता था. परोपकार-निरतता उस काल की विशेष देन थी. सुन्दर वेश-भूषा एवं सुगंधित पदार्थों का बाहुल्य धन संपन्न का प्रतीक था. विविध लोकविश्वासों के साथ-साथ स्वप्नों के प्रति मानवों की प्राचीन काल में विशेष आस्था थी. वे इन स्वप्नों के द्वारा शुभाशुभ का परिज्ञान कर लिया करते थे. [देखिए नन्दिमित्र की कथा-राजा चन्द्रगुप्त के १६ स्वप्न]. पुरातन कथा-साहित्य के अध्ययन से प्रकट होता है कि जीवन सहरी के चुनाव में जातिगत बन्धन नगण्य थे. युवक अपनी इच्छानुसार युवती को चुन लेता था. देखिए अर्द्धदग्ध महापुरुषों और बकरे की कथा-वसन्तिलका और चारुदत्त की प्रणयकथा] इन कथाओं के अनुशीलन से भी ज्ञात होता है कि जैनधर्म के पालनार्थ किसी जातिविशेष की परिधि चिह्न नहीं थी. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के अतिरिक्त शूद्र और अन्त्यज भी जैन धर्म की आराधना से वंचित नहीं किये जाते थे. देखिए भील-भीलिनी की कथा एवं माली की लड़कियों की कथा] पशु भी जैन धर्म के श्रद्धान से परमसुख को प्राप्त हो सकते हैं [देखिए सुग्रीव बैल की कथा एवं बन्दर की कथा]' इस प्रकार ये कथाएँ प्राचनी जैन संस्कृति का एक सुहावना बहुरंगी चित्र उपस्थित करती है. १. 'जिन कथाओं का यहाँ संकेत किया गया है. वे पुण्यात्रब कथा-कोष में संग्रहीत हैं.' Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15