Book Title: Jain Katha Sangraha Part 05
Author(s): Kalyanbodhivijay, 
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 16
________________ श्रीजैन कथासंग्रहः ॥६॥ |||||||||||||| 200 200 20 20 20 20 20 20 20 20 20 20 20 20 20 20 20 20 20 20 0 200 200 200 203 दोहदान् गर्भाद्रोहदान् श्रेष्ठ्यपूरयत् । सम्पूर्णसमये देवतुल्यं सुतमसौदसौ ।। ५५ ।। ततश्च प्रस्फुरत्तूरगीतनृत्यमनोहरम् । आयदक्षतपात्रौघं, मान्यमानमहाजनम् ॥ ५६ ॥ कुलसीमन्तिनीवर्गसीमन्तप्र' कुङ्कम् । स्थालक्षिप्तपत्रपूगनालिकेरदुकूलकम् ॥ ५७ ॥ दुःस्थे मनोरथातीतदीयमान - महाधनम् । विधीयमानदेवाचं, वर्धापनमजायत ।। ५८ ।। ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ मास्यतीतेऽस्य रूपेण, देवतुल्यस्य सोत्सवम् । पितृभ्यामभिधा देवकुमार इति निर्ममे ॥ ५९ ॥ धात्रीभिः पञ्चभिरथ, लाल्यमानवपुर्लतः । प्रवृद्धः प्रतिपच्चन्द्र इव स प्रतिवासरम् ॥ ६० ॥ सुचित्राणि विचित्राणि, वस्त्राण्याभरणान्यपि । दत्तो व्यधापयत्तस्य चित्तवित्तानुरूपतः ।। ६१ ।। कलाचार्यं समाहूयार्पयच्च स्वसुतं पिता । तस्याभ्यासे कलाभ्यासस्तस्य शस्यः क्रमादभूत् ।। ६२ ।। पित्राऽथ शिक्षाचार्याय, दत्तं वित्तं तथा यथा । भुज्यमानमपि निष्ठां, न यात्यासप्तमं कुलम् ।। ६३ ।। अथेभ्यकन्यया सार्धं, समानकुलशीलया । पित्रा चित्रोत्सवं देवकुमारः परिणायितः ॥ ६४ ॥ वार्तामपि स नैतस्याः, पृच्छति स्म ततः पिता । प्रचिक्षेप दुर्ललितगोष्ठ्यां तं भोगहेनवे ॥ ६५ ॥ स याति तैः समं देवकुलाऽऽदिप्रेक्षणे क्षणे । पुनराकार्यमाणोऽपि, पण्यस्त्रीणा गृहे पुनः ॥ ६६ ॥ श्रेष्ठी पृच्छति वृत्तान्तं, सुतस्यैते यथातथम् । कथयन्ति वदन्तेऽथ दूयते तदभोगतः ॥ ६७ १ प्रत्न जुनु 30 30 30 30 30 30 30 300 300 380 BE SE 308 BHE BHESE 30 30 30 30 30 30 30 30 338 348 306 305 306 346 306 308 308 308 308 308 308 308 305 306 308 308 306 308 306303 300 ॥ श्रीदेवकुमार चरित्रम् ॥ ॥६॥

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