Book Title: Jain Karm Siddhant Ek Vishleshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 3
________________ जैन कर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण २०१ और कौन सा कर्म बन्धन का कारण नहीं होगा, इसकी एक कसौटी प्रत्येक हलचल चाहे वह मानसिक हो, वाचिक हो या शरीरिक हो, प्रस्तुत कर दी गई है। आचारांग में प्रतिपादित ममत्व की अपेक्षा कर्म है। किन्तु जैन परम्परा में जब हम 'कर्म' शब्द का प्रयोग करते इसमें प्रमत्तता और कषाय को बन्धन का प्रमुख कारण माना गया है। हैं, तो वहाँ ये क्रियायें तभी कर्म बनती हैं, जब ये बन्धन का कारण यदि हम बन्धन के कारणों का ऐतिहासिक दृष्टि से विश्लेषण हों। मीमांसादर्शन में कर्म का तात्पर्य यज्ञ-याग आदि क्रियाओं से करें, तो यह पाते हैं कि प्रारम्भ में ममत्व (मेरेपन) को बन्धन का कारण लिया जाता है। गीता आदि में कर्म का अर्थ अपने वर्णाश्रम के माना गया, फिर आत्मविस्मृति या प्रमाद को। जब प्रमाद की व्याख्या अनुसार किये जाने वाले कर्मों से लिया गया है। यद्यपि गीता एक का प्रश्न आया, तो स्पष्ट किया गया कि राग-द्वेष की उपस्थिति ही व्यापक अर्थ में भी कर्म शब्द का प्रयोग करती है। उसके अनुसार प्रमाद है। अतः राग-द्वेष को बन्धन का कारण बताया गया है। इनमें मनुष्य जो भी करता है या करने का आग्रह रखता है, वे सभी मोह मिथ्यात्व और कषाय का संयुक्त रूप है। प्रमाद के साथ इनमें प्रवृत्तियाँ कर्म की श्रेणी में आती हैं। बौद्धदर्शन में चेतना को ही कर्म अविरति एवं योग के जुड़ने पर जैन परम्परा में बन्धन के ५ कारण माने कहा गया है। बुद्ध कहते हैं कि --"भिक्षुओं कर्म, चेतना ही है", जाने लगे। समयसार आदि में प्रमाद को कषाय का ही एक रूप ऐसा मैं इसलिए कहता हूँ कि चेतना के द्वारा ही व्यक्ति कर्म को मानकर बन्धन के चार कारणों का उल्लेख मिलता है। इनमें योग करता है, काया से, मन से या वाणी से१४। इस प्रकार बौद्धदर्शन बन्धनकारक होते हुए भी वस्तुत: जब तक कषाय के साथ युक्त नहीं में कर्म के समुत्थान या कारक को ही 'कर्म' कहा गया है। बौद्धदर्शन होता है, बन्धन का कारण नहीं बनता है। अतः प्राचीन ग्रन्थों में बन्धन में आगे चलकर चेतना कर्म और चेतयित्वा कर्म की चर्चा हुई है। के कारणों की चर्चा में मुख्य रूप से राग-द्वेष (कषाय) एवं मोह चेतना कर्म मानसिक कर्म है, चेतयित्वा कर्म वाचिक एवं कायिक (मिथ्यादृष्टि) की ही चर्चा हुई है। कर्म हैं१५। किन्तु हमें ध्यान रखना चाहिए कि जैन कर्मसिद्धान्त में जैन कर्मसिद्धान्त के इतिहास की दृष्टि से कर्मप्रकृतियों का कर्म शब्द अधिक व्यापक अर्थ में गृहीत हुआ है। उसमें मात्र क्रिया विवेचन भी महत्त्वपूर्ण माना जाता है। कर्म की अष्ट मूलप्रकृतियों का को ही कर्म नहीं कहा गया, अपितु उसके हेतु (कारण) को भी कर्म सर्व प्रथम निर्देश हमें ऋषिभाषित के पार्श्व नामक अध्ययन में उपलब्ध कहा गया है। आचार्य देवेन्द्रसूरि लिखते हैं--जीव की क्रिया का हेतु होता है११। इसमें ८ प्रकार की कर्मग्रन्थियों का उल्लेख है। यद्यपि वहाँ ही कर्म है१६। किन्तु हम मात्र हेतु को भी कम नही कह सकते हैं। इनके नामों की कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। ८ प्रकार की हेतु, उससे निष्पन्न क्रिया और उस क्रिया का परिणाम, सभी मिलकर कर्मप्रकृतियों के नामों का स्पष्ट उल्लेख हमें उत्तराध्ययन के ३३वें जैन दर्शन में कर्म की परिभाषा को स्पष्ट करते हैं। पं० सुखलाल जी अध्याय में और स्थानांग में मिलता है।१२ स्थानांग की अपेक्षा भी संघवी लिखते हैं कि-- मिथ्यात्व, कषाय आदि कारणों से जीव द्वारा उत्तराध्ययन में यह वर्णन विस्तृत है, क्योंकि इसमें अवान्तर कर्म जो किया जाता है कर्म कहलाता है। मेरी दृष्टि से इसके साथ ही प्रकृतियों की चर्चा भी हुई है। इसमें ज्ञानावरण कर्म की ५, दर्शनावरण साथ कर्म में उस क्रिया के विपाक को भी सम्मिलित करना होगा। की ९, वेदनीय की २, मोहनीय की २ एवं २८, नामकर्म की २ एवं इस प्रकार कर्म के हेतु, क्रिया और क्रिया-विपाक, सभी मिलकर अनेक, आयुष्यकर्म की ४, गोत्रकर्म की २ और अन्तराय कर्म की ५ कर्म कहलाते हैं। जैन दार्शनिकों ने कर्म के दो पक्ष माने हैं--१. अवान्तर प्रकृतियों का उल्लेख मिलता है१३। आगे जो कर्मसाहित्य राग-द्वेष एवं कषाय-- ये सभी मनोभाव, भाव कर्म कहे जाते हैं। २. सम्बन्धी ग्रन्थ निर्मित हुए उनमें नामकर्म की प्रकृतियों की संख्या में कर्म-पुद्गल द्रव्यकर्म कहे जाते हैं। ये भावकर्म के परिणाम होते हैं, और भी वृद्धि हुई, साथ ही उनमें आत्मा में किस अवस्था में कितनी साथ ही मनोजन्यकर्म की उत्पत्ति का निमित्त कारण भी होते हैं। यह कर्मप्रकृतियों का उदय, सत्ता, बन्ध आदि होते हैं, इसकी भी चर्चा हुई। भी स्मरण रखना होगा कि ये कर्म हेतु (भावकर्म) और कर्मपरिणाम वस्तुत: जैन कर्मसिद्धान्त ई.पू. आठवीं शती से लेकर ईस्वी सन् की (द्रव्यकर्म) भी परस्पर कार्य-कारण भाव रखते हैं। सातवीं शतीं तक लगभग पन्द्रह सौ वर्ष की सुदीर्घ अवधि में व्यवस्थित सभी आस्तिक दर्शनों ने एक ऐसी सत्ता को स्वीकार होता रहा है। यह एक सुनिश्चित सत्य है कि कर्मसिद्धान्त का जितना किया है, जो आत्मा या चेतना की शुद्धता को प्रभावित करती है। गहन विश्लेषण जैन परम्परा के कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी साहित्य में हुआ, उसे वेदान्त में माया, सांख्य में प्रकृति, न्यायदर्शन में अदृष्ट एवं उसना अन्यत्र किसी भी परम्परा में नहीं हुआ है। मीमांसा में अपूर्व कहा गया है। बौद्धदर्शन में उसे ही अविद्या और संस्कार (वासना) के नाम से जाना जाता है। योगदर्शन इसी आत्मा 'कर्म' शब्द का अर्थ की विशुद्धता को प्रभावित करने वाली शक्ति को कर्म कहता है। जैन जब हम जैन कर्मसिद्धान्त की बात करते हैं, तो हमें यह दर्शन में कर्म के निमित्त कारणों के रूप में कर्म पद्गल को भी स्मरण रखना चाहिये कि उसमें 'कर्म' शब्द एक विशेष अर्थ में स्वीकार किया गया है, जबकि इसके उपादान के रूप में आत्मा को प्रयुक्त हुआ है। वह अर्थ कर्म के उस सामान्य अर्थ की अपेक्षा ही माना गया हैं। आत्मा के बन्धन में कर्म पुद्गल निमित्त कारण है अधिक व्यापक है। सामान्यतया कोई भी क्रिया कर्म कहलाती है, और स्वयं आत्मा उपादान कारण होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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