Book Title: Jain Karm Siddhant Ek Vishleshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 2
________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ कर्मसिद्धान्त की मौलिक स्वीकृति यहीं है कि प्रत्येक शुभाशुभ क्रिया जैन कर्मसिद्धान्त का विकास क्रम का कोई प्रभाव या परिणाम अवश्य होता है। साथ ही उस कर्म विपाक या परिणाम का भोक्ता वही होता है, जो क्रिया का कर्त्ता होता है और कर्म एवं विपाक की यह परम्परा अनादि काल से चल रही है। कर्मसिद्धान्त की उपयोगिता कर्मसिद्धान्त की व्यावहारिक उपयोगिता यह है कि वह न केवल हमें नैतिकता के प्रति आस्थावान बनाता है, अपितु वह हमारे सुख-दुःख आदि का स्रोत हमारे व्यक्तित्व में ही खोजकर ईश्वर एवं प्रतिवेशी अर्थात् अन्य व्यक्तियों के प्रति कटुता का निवारण करता है। कर्मसिद्धान्त की स्थापना का प्रयोजन यही है कि नैतिक कृत्यों के अनिवार्य फल के आधार पर उनके प्रेरक कारणों एवं अनुवर्ती परिणामों की व्याख्या की जा सके, तथा व्यक्तियों को अशुभ वा दुष्कर्मों से विमुख किया जा सके। जैन कर्मसिद्धान्त और अन्य दर्शन ऐतिहासिक दृष्टि से वेदों में उपस्थित ऋत का सिद्धान्त कर्म नियम का आदि खोत है। यद्यपि उपनिषदों के पूर्व के वैदिक साहित्य में कर्म सिद्धान्त का कोई सुस्पष्ट विवेचन नहीं मिलता, फिर भी उसमें उपस्थित ऋत के नियम की व्याख्या इस रूप में की जा सकती है। पं० दलसुख मालवणिया के शब्दों में कर्म (जगत् वैचित्र्य का) कारण है, ऐसा वाद उपनिषदों का सर्वसम्मतवाद हो, नहीं कहा जा सकता। भारतीय चिन्तन में कर्म सिद्धान्त का विकास जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराओं में हुआ है। यद्यपि यह एक भिन्न बात है कि जैनों ने कर्मसिद्धान्त का जो गंभीर विवेचन प्रस्तुत किया वह अन्य परम्पराओं में उपलब्ध नहीं है" । वैदिकों के लिए जो महत्त्व ऋत का, मीमांसको के लिए अपूर्व का, नैयायिकों के लिए अदृष्ट का, वैदान्तियों के लिए माया का और सांख्यों के लिए प्रकृति का है, वही जैनों के लिए कर्म का है। यद्यपि सामान्य दृष्टि से देखने पर वेदों का ऋत, मीमांसकों का अपूर्व, नैयायिकों का अदृष्ट, अद्वैतियों की माया, सांख्यों की प्रकृति एवं बौद्धों की अविद्या या संस्कार पर्यायवाची से लगते हैं, क्योंकि व्यक्ति के बन्धन एवं उसके सुख-दुःख की स्थितियों में इनकी मुख्य भूमिका है, फिर भी इनके स्वरूप में दार्शनिक दृष्टि से अन्तर भी है, यह बात हमें दृष्टिगत रखनी होगी। ईसाईधर्म और इस्लामधर्म में भी कर्म-नियम को स्थान मिला है। फिर भी ईश्वरीय अनुग्रह पर अधिक बल देने के कारण उनमें कर्म-नियम के प्रति आस्था के स्थान पर ईश्वर के प्रति विश्वास ही प्रमुख रहा है। ईश्वर की अवधारणा के अभाव के कारण भारत की श्रमण परम्परा कर्मसिद्धान्त के प्रति अधिक आस्थावान रही, बौद्ध दर्शन में भी जैनों के समान ही कर्म-नियम को सर्वोपरि माना गया। हिन्दूधर्म में भी ईश्वरीय व्यवस्था को कर्म-नियम के अधीन लाया गया, उसमें ईश्वर कर्म-नियम का व्यवस्थापक होकर भी उसके अधीन ही कार्य करता है । Jain Education International २०० जैन कर्मसिद्धान्त का विकास किस क्रम में हुआ, इस प्रश्न का समाधान उत्तना सरल नहीं है, जितना कि हम समझते हैं। सामान्य विश्वास तो यह है कि जैन धर्म की तरह यह भी अनादि है, किन्तु विद्वत्-वर्ग इसे स्वीकार नहीं करता है। यदि जैन कर्मसिद्धान्त के विकास का कोई समाधान देना हो तो, वह जैन आगम एवं कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी अन्धों के कालक्रम के आधार पर ही दिया जा सकता है, इसके अतिरिक्त अन्य विकल्प नहीं है। जैन आगमसाहित्य में आचाएंग प्राचीनतम है इस ग्रन्थ में जैन कर्मसिद्धान्त का चाहे विकसित स्वरूप उपलब्ध न हो, किन्तु उसकी मूलभूत अवधारणाएँ अवश्य उपस्थित हैं। कर्म से उपाधि या बन्धन होता है, कर्म रज है, कर्म का आस्त्रव होता है, साधक को कर्मशरीर को धुन डालना चाहिए आदि विचार उसमें परिलक्षित होते हैं। इससे यह फलित होता है कि आचारांग के काल में कर्म को स्पष्ट रूप से बन्धन का कारण माना जाता था और कर्म के भौतिक पक्ष की स्वीकृति के साथ यह भी माना जाता था कि कर्म की निर्जरा की जा सकती है। साथ ही आचारांग में शुभाशुभ कर्मों का शुभाशुभ विपाक होता है, यह अवधारणा भी उपस्थित है। उसके अनुसार बन्धन का मूल कारण ममत्व है। बन्धन से मुक्ति का उपाय ममत्व का विसर्जन और समत्व का सर्जन है । सूत्रकृतांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध भी आचारांग से किंचित ही परवर्ती माना जाता है सूत्रकृतांग के काल में यह प्रश्न बहुचर्चित । था, कि कर्म का फल संविभाग सम्भव है या नहीं ? इसमें स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया है कि व्यक्ति अपने स्वकृत कर्मों का ही विपाक अनुभव करता है। बन्धन के सम्बन्ध में सूत्रकृतांग (१/ ८/२) स्पष्ट रूप से कहता है कि कुछ व्यक्ति कर्म को और कुछ अकर्म को वीर्य (पुरुषार्थ) कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि कर्म के सन्दर्भ में यह विचार लोगों के मन में उत्पन्न हो गया था, कि यदि कर्म ही बन्धन है तो फिर अकर्म अर्थात् निष्क्रियता ही बन्धन से बचने का उपाय होगा, किन्तु सूत्रकृतांग के अनुसार अकर्म का अर्थ निष्क्रिष्यता नहीं है। इसमें प्रतिपादित है कि प्रमाद कर्म है और अप्रमाद अकर्म है (१/८/३) । वस्तुतः किसी क्रिया की बन्धकता उसके क्रिया रूप होने पर नहीं, अपितु उसके पीछे रही प्रमत्तता या अप्रमत्तता पर निर्भर है। यहाँ प्रमाद का अर्थ है आत्मचेतना (Selfawareness) का अभाव। जिस आत्मा का विवेक जागृत नहीं हैं। और जो कषावयुक्त है, वहीं परिसुप्त या प्रमत्त है और जिसका विवेक जागृत है और जो वासना मुक्त है वही अप्रमत्त है। सूत्रकृतांग (२/२/१) में ही हमें क्रियाओं के दो रूपों की चर्चा भी मिलती है१. साम्परायिक और २. ईर्यापथिक । राग, द्वेष, क्रोध आदि कषायों से युक्त क्रियायें साम्परायिक कही जाती हैं, जबकि इनसे रहित क्रियायें ईर्यापथिक कही जाती हैं। साम्परायिक क्रियायें बन्धक होती हैं जबकि ईर्यापथिक बन्धनकारक नहीं होती। इससे इस निष्कर्ष पर पहुचते हैं कि सूत्रकृतांग में कौन सा कर्म बन्धन का कारण होगा - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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