Book Title: Jain Karm Siddhant Ek Vishleshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf View full book textPage 1
________________ जैन कर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण कर्मसिद्धान्त का उद्भव एवं विकास - कर्मसिद्धान्त का उद्भव सृष्टि वैचित्र्य, वैयक्तिक भिन्नताओं, व्यक्ति की सुख-दुःखात्मक अनुभूतियों एवं शुभाशुभ मनोवृत्तियों के कारण की व्याख्या के प्रयासों में ही हुआ है। सृष्टि वैचित्र्य एवं वैयतिक भिन्नताओं के कारण की खोज के इन प्रयासों से विभिन्न विचारधारायें अस्तित्व में आयीं। श्वेताश्वतरोपनिषद्, अंगुत्तरनिकाय और सूत्रकृतांग में हमें इन विभिन्न विचारधाराओं की उपस्थिति के संकेत मिलते हैं। महाभारत के शान्तिपर्व में इन विचारधाराओं की समीक्षा भी की गई है। इस सम्बन्ध में प्रमुख मान्यताएँ निम्न हैं- १. कालवाद यह सिद्धान्त सृष्टि वैविध्य और वैयक्तिक विभिन्नताओं -- - - का कारण काल को स्वीकार करता है। जिसका जो समय या काल होता है तभी वह घटित होता है, जैसे- अपनी ऋतु (समय) आने पर ही वृक्ष में फल लगते हैं। - -- २. स्वभाववाद - संसार में जो भी घटित होगा या होता है, उसका आधार वस्तुओं का अपना-अपना स्वभाव है। संसार में कोई भी स्वभाव का उल्लंघन नहीं कर सकता है। ३. नियतिवाद-संसार का समग्र घटनाक्रम पूर्व नियत है, जो जिस रूप में होना होता है वैसा ही होता है, उसे कोई अन्यथा नहीं कर सकता। ४. यदृच्छावाद किसी भी घटना का कोई नियत हेतु या कारण नहीं होता है। समस्त घटनाएँ मात्र संयोग का परिणाम हैं। यदृच्छावाद हेतु के स्थान पर संयोग (Chance) को प्रमुख बना देता है। Jain Education International ५. महाभूतवाद समग्र अस्तित्व के मूल में पंचमहाभूतों की सत्ता रही है। संसार उनके वैविध्यमय विभिन्न संयोगों का ही परिणाम है। ६. प्रकृतिवाद विश्व वैविध्य त्रिगुणात्मक प्रकृति का ही खेल है मानवीय सुख-दुःख भी प्रकृति के ही अधीन है। ७. ईश्वरवाद - ईश्वर ही इस जगत् का रचयिता एवं नियामक है, जो कुछ भी होता है, वह सब उसकी इच्छा या क्रियाशक्ति का परिणाम है। ८. पुरुषवाद- वैयक्तिक विभिन्नता और सांसारिक घटनाक्रम के मूल में पुरुष का पुरुषार्थ ही प्रमुख है। वस्तुत: जगत्-वैविध्य और वैयक्तिक भिन्नताओं की तार्किक या के इन्हीं प्रयत्नों में कर्मसिद्धान्त का विकास हुआ है जिसमें श्रुरूषवाद की प्रमुख भूमिका रही है। कर्मसिद्धान्त उपर्युक्त सिद्धान्तों का पुरुषवाद के साथ समन्वय का प्रयत्न है। श्वेताश्वतरोपनिषद् के प्रारम्भ में ही प्रश्न उठाया गया है कि हम किसके द्वारा प्रेरित होकर संसार यात्रा का अनुवर्तन कर रहे हैं। आगे ऋषि यह जिज्ञासा प्रकट करता है कि क्या काल, स्वभाव नियति यदृच्छा, भूत-योनि अथवा पुरुष या इन सबका संयोग ही १९९ " इसका कारण है। वस्तुतः इन सभी विचारधाराओं में पुरुषवाद को छोड़कर शेष सभी विश्व वैचित्र्य और वैयक्तिक वैविध्य की व्याख्या के लिए किसी न किसी बाह्य-तथ्य पर ही बल दे रही थीं। हम इनमें से किसी भी सिद्धान्त को मानें वैविध्य का कारण व्यक्ति से भिन्न ही मानना होगा, किन्तु ऐसी स्थिति में व्यक्ति पर नैतिक दायित्व का आरोपण सम्भव नहीं हो पाता है। यदि हम जो कुछ भी करते हैं और जो कुछ भी पाते हैं, उसका कारण बाह्य तथ्य ही हैं, तो फिर हम किसी भी कार्य के लिए नैतिक दृष्टि से उत्तरदायी ठहराये नहीं जा सकते। यदि व्यक्ति काल, स्वभाव, नियति अथवा ईश्वर की इच्छाओं का एक साधन मात्र है, तो वह उस कठपुतली के समान है, जो दूसरे के इशारों पर ही कार्य करती है। किन्तु ऐसी स्थिति में पुरुष में इच्छा - स्वातन्त्र्य का अभाव मानने पर नैतिक उत्तरदायित्व की समस्या उठती है । सामान्य मनुष्य को नैतिकता के प्रति आस्थावान बनाने के लिए आवश्यक है। कि व्यक्ति को उसके शुभाशुभ कर्मों के प्रति उत्तरदायी बनाया जा सके और यह तभी सम्भव है जब उसके मन में विश्वास हो कि उसे उसकी स्वतन्त्र इच्छा से किये गये अपने ही कर्मों का परिणाम प्राप्त होता है। यही कर्मसिद्धान्त है। ज्ञातव्य है कि कर्मसिद्धान्त ईश्वरीय कृपा या अनुग्रह के विरोध में जाता है, वह यह मानता है कि ईश्वर भी कर्मफलव्यवस्था को अन्यथा नहीं कर सकता है। कर्म का नियम ही सर्वोपरि है। कर्मसिद्धान्त और कार्यकारण का नियम आचार के क्षेत्र में इस कर्मसिद्धान्त की उतनी ही आवश्यकता है जितनी विज्ञान के क्षेत्र में कार्य-कारण- सिद्धान्त की। जिस प्रकार कार्यकारण सिद्धान्त के अभाव में वैज्ञानिक व्याख्यायें असम्भव होती है, उसी प्रकार कर्म सिद्धान्त के अभाव में नीतिशास्त्र भी अर्थ - शून्य हो जाता है। - प्रो० वेंकटरमण के शब्दों में कर्मसिद्धान्त कार्यकारण- सिद्धान्त के नियमों एवं मान्यताओं का मानवीय आचार के क्षेत्र में प्रयोग है, जिसकी उपकल्पना यह है कि जगत् में सभी कुछ किसी नियम के अधीन है। मैक्समूलर लिखते हैं कि यह विश्वास कि कोई भी अच्छा बुरा कर्म बिना फल दिए समाप्त नहीं होता, नैतिक जगत् का वैसा ही विश्वास है, जैसा भौतिक जगत् में ऊर्जा की अविनाशिता का नियम है। यद्यपि कर्मसिद्धान्त एवं वैज्ञानिक कार्यकारण सिद्धान्त में सामान्य रूप से समानता प्रतीत होती हैं किन्तु उनमें एक मौलिक अन्तर भी है। यह कि जहाँ कार्य-कारण सिद्धान्त का विवेच्य जड़ तत्व के क्रियाकलाप हैं वहीं कर्म सिद्धान्त का विवेच्य चेतना सत्ता के क्रिया-कलाप हैं। अतः कर्मसिद्धान्त में वैसी पूर्ण नियतता नहीं होती, जैसी कार्यकारण सिद्धान्त में होती है। यह नियतता एवं स्वतंत्रता का समुचित संयोग है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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