Book Title: Jain Karm Siddhant
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf

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Page 23
________________ प्रो. सागरमल जैन 116 लगभग सभी दर्शन प्रकारान्तर से राग-द्वेष एवं मोह (मिथ्यात्व) को बन्धन का कारण मानते बन्धन के चार प्रकारों से बन्धनों के कारण का सम्बन्ध५ जैन कर्म सिद्धान्त में बन्धन के चार प्रारूप कहे गए हैं :- 1. प्रकृति बन्ध, 2. प्रदेश बन्ध, 3. स्थिति बन्ध एवं 4. अनुभाग बन्ध। 1. प्रकृतिबन्ध -- बन्धन के स्वभाव का निर्धारण प्रकृति. बन्ध करता है। यह, यह निश्चय करता है कि कर्मवर्गणा के पुद्गल आत्मा की ज्ञान, दर्शन आदि किस शक्ति को आवृत करेगें। 2. प्रदेश बन्ध -- यह कर्मपरमाणुओं की आत्मा के साथ संयोजित होने वाली मात्रा का निर्धारण करता है। अतः यह मात्रात्मक होता है। 3. स्थितिबन्ध -- कर्मपरमाणु कितने समय तक आत्मा से संयोजित रहेगें और कब निर्जेरित होगें, इस काल-मर्यादा का निश्चय स्थिति-बन्ध करता है। अतः यह बन्धन की समय-मर्यादा का सूचक है। 4. अनुभागबन्ध -- कर्मों के बन्धन और विपाक की तीव्रता एवं मन्दता का निश्चय करना, यह अनुभाग बन्ध का कार्य है। दूसरे शब्दों में यह बन्धन की तीव्रता या गहनता का सूचक है। उपरोक्त चार प्रकार के बन्धनों में प्रकृति बन्ध एवं प्रदेश बन्ध का सम्बन्ध मुख्यतया योग अर्थात् कायिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओं से है, जबकि बन्धन की तीव्रता (अनुभाग) एवं समयावधि (स्थिति) का निश्चय कर्म के पीछे रही हुई कषाय-वृत्ति और मिथ्यात्व पर आधारित होता है। संक्षेप में योग का सम्बन्ध प्रदेश एवं प्रकृति बन्ध से है, जबकि कषाय का सम्बन्ध स्थिति एवं अनुभाग बन्ध से है। आठ प्रकार के कर्म और उनके बन्धन के कारण जिस रूप में कर्मपरमाणु आत्मा की विभिन्न शक्तियों के प्रकटन का अवरोध करते हैं और आत्मा का शरीर से सम्बन्ध स्थापित करते हैं -- उनके अनुसार उनके विभाग किये जाते हैं। जैनदर्शन के अनुसार कर्म आठ प्रकार के हैं -- 1. ज्ञानावरणीय 2. दर्शनावरणीय 3. वेदनीय 4. मोहनीय 5. आयुष्य 6. नाम 7. गोत्र और 8. अन्तराय । 1. ज्ञानावरणीय कर्म -- जिस प्रकार बादल सूर्य के प्रकाश को ढंक देते हैं, उसी प्रकार जो कर्मवर्गणाएँ आत्मा की ज्ञानशक्ति को टैंक देती है और ज्ञान की प्राप्ति में बाधक बनती है, वे ज्ञानावरणीय कर्म कही जाती हैं। ज्ञानावरणीय कर्म के बन्धन के कारण -- जिन कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म के परमाणु आत्मा से संयोजित होकर ज्ञान-शक्ति को कुंठित करते हैं, वे छः हैं -- 1. प्रदोष -- ज्ञानी का अवर्णवाद (निन्दा ) करना एवं उसके अवगुण निकालना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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