Book Title: Jain Karm Siddhant
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf

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Page 31
________________ प्रो. सागरमल जैन 124 124 8. अन्तराय कर्म अभीष्ट की उपलब्धि में बाधा पहुंचाने वाले कारण को अन्तराय कर्म कहते हैं। यह पाँच प्रकार का है-- 1. दानान्तराय -- दान की इच्छा होने पर भी दान नहीं किया जा सके, 2. लाभान्तराय -- कोई प्राप्ति होने वाली हो लेकिन किसी कारण से उसमें बाधा आ जाना, 3. भोगान्तराय -- भोग में बाधा उपस्थित होना. जैसे व्यक्ति सम्पन्न हो, भोजनगृह में अच्छा सुस्वादु भोजन भी बना हो लेकिन अस्वस्थता के कारण उसे मात्र खिचड़ी ही खानी पड़े, 4. उपभोगान्तराय -- उपभोग की सामग्री के होने पर भी उपभोग करने में असमर्थता, 5. वीर्यान्तराय -- शक्ति के होने पर भी पुरुषार्थ में उसका उपयोग नहीं किया जा सकना। (तत्त्वार्थसूत्र, 8.14) जैन नीति-दर्शन के अनुसार जो व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के दान, लाभ, भोग, उपभोगशक्ति के उपयोग में बाधक बनता है, वह भी अपनी उपलब्ध सामग्री एवं शक्तियों का समुचित उपयोग नहीं कर पाता है। जैसे कोई व्यक्ति किसी दान देने वाले व्यक्ति को दान प्राप्त करने वाली संस्था के बारे में गलत सूचना देकर या अन्य प्रकार से दान देने से रोक देता है अथवा किसी भोजन करते हुए व्यक्ति को भोजन पर से उठा देता है, तो उसकी उपलब्धियों में भी बाधा उपस्थित होती है अथवा भोग-सामग्री के होने पर भी वह उसके भोग से वंचित रहता है। कर्मग्रन्थ के अनुसार जिन-पूजा आदि धर्म-कार्यों में विघ्न उत्पन्न करने वाला और हिंसा में तत्पर व्यक्ति भी अन्तराय कर्म का संचय करता है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार भी विघ्न या बाधा डालना ही अन्तराय-कर्म के बन्ध का कारण है। घाती और अघाती कर्म कर्मों के इस वर्गीकरण में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय -- इन चार कर्मों को 'घाती और नाम, गोत्र, आयुष्य और वेदनीय -- इन चार कर्मों को 'अघाती माना जाता है। घाती कर्म आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति नामक गुणों का आवरण करते है। ये कर्म आत्मा की स्वभावदशा को विकृत करते हैं, अतः जीवन-मुक्ति में बाधक होते हैं। इन घाती कर्मों में अविद्या स्प मोहनीय कर्म ही आत्मस्वरूप की आवरण-क्षमता, तीव्रता और स्थितिकाल की दृष्टि से प्रमुख है। वस्तुतः मोहकर्म ही एक ऐसा कर्म-संस्कार है, जिसके कारण कर्म-बन्ध का प्रवाह सतत् बना रहता है। मोहनीय कर्म उस बीज के समान है, जिसमें अंकुरण की शक्ति है। जिस प्रकार उगने योग्य बीज हवा, पानी आदि के सहयोग से अपनी परम्परा को बढ़ाता रहता है, उसी प्रकार मोहनीय रूपी कर्म-बीज, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय स्प हवा, पानी आदि के सहयोग से कर्म-परम्परा को सतत् बनाये रखता है। मोहनीय कर्म ही जन्म-मरण, संसार या बन्धन का मूल है, शेष घाती कर्म उसके सहयोगी मात्र है। इसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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