Book Title: Jain Jyotish evam Jyotish Shastri Author(s): Lakshmichandra Jain Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf View full book textPage 3
________________ ३६४ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ ला सकते हैं । ये काम्प्यूटर के कार्य को अधिक विस्तृत कर सकते हैं। आबाधा काल सम्बन्धी सामग्री नाभि-विज्ञान के टाइम-लेग सम्बन्धी ज्ञान को प्रस्फुटित कर सकती है। प्रश्नव्याकरण (१०.५) में समस्त नक्षत्रों को कुल, उपकुल और कुलोपकूलों में विभाजित किया गया है। यह प्रणाली महत्त्वपूर्ण है। कुल संज्ञा धनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद, अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, उत्तराफाल्गुनी, चित्रा, विशाखा, मूल और उत्तराषाढ़ा को दी गयी है। उपकुल संज्ञा वाले श्रवण, पूर्वाभाद्रपद, रेवती, भरणी, रोहिणी, पुनर्वसु, आश्लेषा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, स्वाति, ज्येष्ठा और पूर्वाषाढ़ा हैं । कुलोपकुल संज्ञक अभिजित्, शतभिष, आर्द्रा एवं अनुराधा हैं । यह विभाजन पूर्णमासी को होने वाले नक्षत्रों के आधार पर किया गया प्रतीत होता है। प्रत्येक मास की पूर्णमासी को उस मास का प्रथम नक्षत्र कुल संज्ञक, दूसरा उपकुल संज्ञक और तीसरा कुलोपकुल संज्ञक होता है। श्रावण (धनिष्ठा, श्रवण और अभिजित), भाद्रपद (उत्तराभाद्रपद, पूर्वाभाद्रपद, शतभिष), आश्विन (अश्विनी, रेवती), कार्तिक (कृत्तिका, भरणी), अगहन या मार्गशीर्ष (मृगशिरा, रोहिणी), पौष (पुष्य, पुनर्वसु, आर्द्रा), माघ (मघा, आश्लेषा), फाल्गुन (उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाफाल्गुनी), चैत्र (चित्रा, हस्त), वैशाख (विशाखा, स्वाति), ज्येष्ठ (ज्येष्ठा, मूल, अनुराधा), आसाढ़ (उत्तराषाढ़ा, पूर्वाषाढ़ा) ये १२ माह निर्मित हुए । ध्यान रहे कि नक्षत्र पद्धति विश्व में भारतीय अंशदान के रूप में अप्रतिम है। इन १२ मासों के आधार पर १२ राशियों का निर्माण कठिन नहीं रहा होगा। जैन ज्योतिष में १०६८०० गगनखण्डों के दोनों ओर वास्तविक तथा कल्पित सूर्य चन्द्र, जम्बूद्वीप में स्थापित कर, प्रक्षेपों में उनकी गलियों का निर्धारण अद्वितीय है। सूर्य का ३० मुहूर्त विषयक गमन १८३० गगनखण्डों में प्रति-मुहूर्त तो सरल है। किन्तु त्रिलोकसार में नवीन काल्पनिक सूर्य को ऋतुराहु रूप में लेकर उसका गमन १८२६ १३ गगनखण्ड प्रतिमुहर्त लेकर जो खोज हई होगी वह राशि सम्बन्धी विश्व खोज को जैन खोज निरूपित करती है। इनके आधार पर फलित ज्योतिष के विकास की बेबिलन, ग्रीक परम्परा ईस्वी पूर्व ३०० से ३०० पश्चात् दृष्टिगत होती है।६।। समवायाङ्ग (स० ७, सू० ५) के नक्षत्रों की ताराएँ और उनके दिशाद्वार का वर्णन मिलता है । यथा : पूर्वद्वार (कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा); दक्षिणद्वार (मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा); पश्चिमद्वार (अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, अभिजित् और श्रवण); उत्तरद्वार (धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रापद, उत्तराभाद्रपद, रेवती, अश्विनी, भरणी) चार द्वार हैं। इनके सिवाय ज्योतिष विषयक सन्दर्भ १.६, २४, ३२, ४.३ तथा ५.६ में उपलब्ध हैं । ठाणांग में चन्द्रमा के साथ स्पर्शयोग करने वाले नक्षत्रों में कृत्तिका, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, चित्रा, विशाखा, अनुराधा और ज्येष्ठा हैं। इस योग का फल तिथियों के अनुसार विभिन्न प्रकार का होता है । नक्षत्रों की अन्य संज्ञाएँ तथा विभिन्न दिशाओं से चन्द्रमा के साथ योग करने वाले नक्षत्रों के नाम और उनके फल विस्तारपूर्वक वर्णित हैं। इसमें ८८ ग्रहों के नाम भी उपलब्ध हैं जो तिलोयपण्णत्ती की सामग्री से तुलनीय हैं। प्रश्नव्याकरण में नौ ग्रहों का वर्णन है पर गमन सम्बन्धी विवरण यहाँ भी नष्ट गया है । (ठाणांग; पृ० १८-१००, समवायांग, स० ८८.१) । समवायांग आदि सभी ग्रंथों में ग्रहण का कारण पर्वराहु चन्द्र के लिए और केतु सूर्यग्रहण का कारण माना गया है (समवायांग, स० १५.३)। निश्चित ही, राहु एवं केतु काल्पनिक गणितीय साधन की वस्तु रहे हैं जैसा कि ऋतुराह के सम्बन्ध में पूर्वोल्लेख है। दिनवृद्धि और दिनह्रास सम्बन्धी सामग्री बेबिलन और सुमेरुवर्ती स्थलों के लिए प्रयुक्त मानी गयी है जो & Jain, L. C., The Kinematic Motion of Astral Real and Counter Bodies in Trilokasara, I. J. H. S., 11.1, 1976, pp. 58-74. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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