Book Title: Jain Jyotish evam Jyotish Shastri
Author(s): Lakshmichandra Jain
Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf

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Page 6
________________ जैन ज्योतिष एवं ज्योतिषशास्त्री प्रकरण-ग्रंथ रचे हैं। जातकशास्त्र या होराशास्त्र विषयक इनका लग्न शुद्धि ग्रंथ प्राकृत में है। लग्न और ग्रहों के बल, द्वादश भाव आदि का विवरण उल्लेखनीय है। महावीराचार्य के ज्योतिषपटल में सम्भवतः ग्रहों के चार क्षेत्र, सूर्य के मण्डल, नक्षत्र और ताराओं के संस्थान गति, स्थिति और संख्या आदि का विवरण हआ प्रतीत होता है-ऐसा डा. नेमिचन्द्र ने लिखा है। कल्याण वर्मा के पश्चात हुए चन्द्रसेन द्वारा केवलज्ञान होरा रचित हुआ। इसके प्रकरण सारावली से मिलते-जुलते हैं किन्तु इस पर कर्नाटक के ज्योतिष का प्रभाव दष्टिगत होता है। यह संहिता विषयक ग्रंथ है जो ४००० श्लोकों में पूर्ण हुआ है। मर्मज्ञ ज्योतिषियों में दशवीं शती के श्रीधराचार्य हैं। ये कर्णाटक प्रान्त के थे जो प्रारम्भ में शैव थे और बाद में जैनधर्मानुयायी हो गये थे। ज्योतिर्ज्ञानविधि संस्कृत में तथा जातकतिलकादि रचनाएँ कन्नड़ में हैं । संस्कृत ग्रंथ में व्यवहारोपयोगी मुहूर्त है। संवत्सर, नक्षत्र, योग, करणादि के शुभाशुभ फल हैं। इसमें मासशेष, मासाधिपतिशेष और दिनशेष, दिनाधिपतिशेष की गणितीय प्रक्रियाएँ उल्लेखनीय हैं। जातक तिलक होरा या जातकशास्त्र है। इसमें लग्न, ग्रह, ग्रहयोग, जन्मकुण्डली सम्बन्धी फलादेश मिलता है। एक अज्ञात लेखक की रचना प्रश्नशास्त्र सम्बन्धी चन्द्रोन्मीलन है। इसमें प्रश्नवर्णों का विभिन्न संज्ञाओं में विभाजन का उत्तर दिया गया है। केरलीय प्रश्नसंग्रह में चन्द्रोन्मीलन का खण्डन किया गया है । इसकी प्रणाली लोकप्रिय थी। १००१ ई० से १७०० ईस्वी तक का उत्तर मध्यकाल है। इस काल में भारत में फलित ज्योतिष का अत्यधिक विकास हुआ। इस युग के सर्वप्रथम ज्योतिषी दुर्गदेव हैं। इनकी दो रचनाएँ रिठ्ठ समुच्चय और अर्द्ध काण्ड प्रमुख हैं। इनका समय प्रायः १०३२ ई० है। रिठ्ठसमुच्चय शौरसेनी प्राकृत की २६१ प्राकृत गाथाओं में रचित हुआ है। मृत्यु सम्बन्धी विविध निमित्तों का वर्णन इसमें है। अद्ध काण्ड में व्यावसायिक ग्रह-योग का विचार है। इसमें १४६ प्राकृत गाथाएँ हैं। ईस्वी सन् १०४३ के लगभग का समय मल्लिसेन का है जिनका आय-सद्भाव ग्रंथ उपलब्ध है। इसमें १६५ आर्याएँ और एक गाथा है। इसमें ध्वज, धूम, सिंह, मण्डल, वृष, खर, गज और वायस इन आठों आयों के स्वरूप और फलदेश दिये गये हैं। विक्रम संवत् की ११वीं शती के दिगम्बराचार्य दामनन्दी के शिष्य भट्टवोसरि हैं जिन्होंने २५ प्रकरण और ४१५ गाथाओं में आयज्ञान तिलक की रचना की है। इसमें भी आठ आयों द्वारा प्रश्नों के फलादेश का विस्तृत विवेचन है। प्रश्नशास्त्र के रूप में इसमें कार्य-अकार्य, हानि-लाभ, जय-पराजयादि का वर्णन है । उदयप्रभदेव (१२२० ई०) द्वारा आरम्भ सिद्धि नामक व्यवहार चर्या पर ज्योतिष ग्रन्थ है जो मुहूर्त विषयक मुहूर्त चिन्तामणि जैसा है। राजादित्य (११२० ई०) भी ज्योतिषी थे । इनके ग्रन्थ कन्नड़ में रचित हुए। पद्मप्रभसूरि (वि० सं० १२६४) का प्रमुख ग्रन्थ भुवनदीपक या ग्रहभावप्रकाश है। इसमें ३६ द्वार प्रकरण हैं । इसमें कुल १७० श्लोक संस्कृत में हैं। नरचन्द्र उपाध्याय (सं० १३२४) के विविध ग्रंथों में बेड़ा जातक वृत्ति, प्रश्नशतक, प्रश्न चतुर्विशतिका, जन्म समुद्र टीका, लग्न विचार और ज्योतिष प्रकाश हैं तथा उपलब्ध हैं। ज्ञान दीपिका तथा ज्योतिष प्रकाश (संहिता तथा जातक) महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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