Book Title: Jain Jyotish Sahitya Ek Chintan
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 4
________________ Jain Education International ६२६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड *****+++++ दशक, मास, वार, तिथि, नक्षत्र, योगशुद्धि, सुगण दिन, रजच्छन्नद्वार, संक्रांति, कर्कयोग, वार, नक्षत्र, अशुभ योग, सरद्वार, होरा, नवरा, द्वादशांश, पवर्गशुद्धि उदयास्तशुद्धि आदि विषयों पर चर्चा है। सुगणा दिनशुद्धि आचार्य रत्नशेखर की कृति है । इसमें रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि का वर्णन करते हुए तिथि, लग्न, प्रहर, दिशा और नक्षत्र की शुद्धि आदि प्रतिपादित की गयी है । मिलती हैं । ******* 'कालसंहिता' आचार्य कालक की रचना है । वराहमिहिर ने वृहद् जातक में कालकसंहिता का उल्लेख किया है। निशीथचूर्णी, आवश्यकचूर्णी, प्रभृति ग्रन्थों से भी आचार्य कालक के ज्योतिष ज्ञान का परिज्ञान होता है । 'भुवनदीपक' के रचयिता पद्मप्रभरि है। यह प्रथ जिसमें ज्योतिष विषयक अनेक विषयों पर चिन्तन किया 'प्रपद्धति' के रचयिता हरिश्चन्द्र मणि है होते हुए भी महत्त्वपूर्ण है । इस ग्रन्थ में छत्तीस द्वार हैं गया है । 'भूवनदीपकवृत्ति' नाम से आचार्य सिंहतिलक की मुनि हेमतिलक की और दो अज्ञात लेखकों की वृत्तियाँ 1 'आरम्भसिद्धि' के रचयिता आचार्य उदयप्रभ हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ संस्कृत भाषा में निर्मित है। इसमें तिथि, वार, नक्षत्र, सिद्धि आदि योग, राशि, गोचर, कार्य, गमन, वास्तु, विलग्न आदि ग्यारह प्रकरण हैं जिसमें प्रत्येक कार्य के शुभ-अशुभ मुहूर्तों का वर्णन है । हेम हंसगणि ने आरम्भसिद्धि पर एक वृत्ति की रचना की । वृत्ति में यत्र-तत्र ग्रह विषयक प्राकृत गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं जिससे यह ज्ञात होता है इसके पूर्व प्राकृत में ग्रह विषयक कोई महत्वपूर्ण ग्रन्थ होना चाहिए। वृत्ति में मुहूर्त के संबंध में सुन्दर प्रकाश डाला गया है। 'भद्रवाहसंहितावितों का ऐसा मत है कि आचार्य भावाने प्राकृत भाषा में 'भद्रवाहसंहिता' नामक ग्रन्थ की रचना की थी। वर्तमान में जो भद्रबाहुसंहिता संस्कृत भाषा में उपलब्ध है वह भद्रबाहु की नहीं है । मुनिश्री जिनविजयजी ने इसे बारहवीं तेरहवीं शताब्दी की रचना माना है और मुनि कल्याणविजयजी ने पन्द्रहवीं शताब्दी के पश्चात् की रचना माना है । क्योंकि इसकी भाषा में साहित्यिकता नहीं है और साथ ही छन्द-विषयक अशुद्धियाँ मी है । वर्तमान में जो भद्रबाहुसंहिता संस्कृत में उपलब्ध है, उसमें सत्ताईस प्रकरण हैं और वह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है । 'ज्योतिस्सार' इस ग्रन्थ के रचयिता मलधारी आचार्य नरचन्द्र हैं जिनके गुरु देवप्रभसूरि थे । इस ग्रन्थ में तिथि, वार, नक्षत्र, योग, राशि, चन्द्र, तारका बल, भद्रा, कुलिक उपकुलिक, कष्टक आदि अड़तालीस विषय पर प्रकाश डाला है । प्रस्तुत ग्रन्थ पर ही मुनि सागरचन्द्र ने तेरह सौ पेन्तीस श्लोक प्रमाण टिप्पण की रचना की जो अभी तक अप्रकाशित है । 'जन्म समुद्र' के रचयिता उपाध्याय नरचन्द्र हैं । यह लाक्षणिक ग्रन्थ है । गर्भसम्भवादि लक्षण, जन्मप्रत्ययलक्षण, रिष्टयोग तद्द्मंगलक्षण, निर्वाण लक्षण, द्रव्योपार्जन राजयोग लक्षण, बालस्वरूप लक्षण, स्त्रीजातकस्वरूप, नामसादियोगदीक्षावस्थायुर्योग लक्षण, इन आठ कल्लोलों में यह विभक्त है। इसमें लग्न और चन्द्रमा के सम्पूर्ण फलों पर चिन्तन किया गया है। इसकी हस्तलिखित सोलहवीं शताब्दी की एक प्रति लालभाई दलपतभाई, भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद, में है। अभी तक यह ग्रन्थ मुद्रित नहीं हुआ है । उपाध्याय नरचन्द्र ने 'प्रश्नशतक', 'ज्ञानचतुर्विशिका', 'लग्न विचार', 'ज्योतिषप्रकाश', 'ज्ञान दीपिका' आदि अनेक ज्योतिष विषयक ग्रन्थ लिखे हैं । इन ग्रन्थों में ज्योतिष सम्बन्धी खासी अच्छी सामग्री है। और ये सभी ग्रन्थ अप्रकाशित हैं । 'ज्योतिस्सार संग्रह' के रचयिता आचार्य हर्षकीर्ति हैं जिन्होंने वि० सं० १६८० में प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की । इनकी दूसरी रचना "जन्मपत्री पद्धति" मिलती है जिसमें जन्मपत्री बनाने की रीति, ग्रह, नक्षत्र, वार, दशा आदि के फल प्रतिपादित किये हैं । लब्धिचन्द्रगणी' की भी इसी नाम से रचना है जिसमें इष्टकाल, मयात् भभोग, लग्न आदि नवग्रहों का स्पष्टीकरण किया गया है और गणित विषयक चर्चा करते हुए सामान्य फलों का भी वर्णन किया है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है। मुनि महिमोदय ने भी इसी नाम से ग्रन्थ की रचना की है जिसमें सारिणी, ग्रह, नक्षत्र, वार आदि के फल बताये गये हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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