Book Title: Jain Jyotish Sahitya Ek Chintan Author(s): Kasturchand Kasliwal Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 3
________________ जैन ज्योतिष साहित्य : एक चिन्तन ६२५ नक्षत्र पश्चिम द्वार के हैं । धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती, अश्विनी और भरणी उत्तर द्वार के हैं । समवायांग में ग्रहण के कारणों पर विचार करते हुए राहु के दो भेद किये है— नित्परा और पर्वराहू नित्यराहु को कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष का कारण माना है और पर्वराहु को चन्द्रग्रहण का कारण माना है । सूर्यग्रहण का कारण केतु है जिसका ध्वजदण्ड सूर्य के ध्वजदण्ड से ऊँचा है । दिनवृद्धि और दिनहास के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया गया है।" इस प्रकार उपलब्ध जैन श्वेताम्बर आगम साहित्य में ऋतु, अयन, दिनमान, दिनवृद्धि, दिनह्रास, नक्षत्रमान, नक्षत्रों की अनेक संज्ञाएँ, ग्रहों के मण्डल, विमानों का स्वरूप एवं ग्रहों की आकृतियों पर संक्षेप में वर्णन मिलता है । ये चर्चाएँ बहुत ही प्राचीन हैं जो जैन ज्योतिष को ग्रीक पूर्व सिद्ध करती हैं । 'ज्योतिष करण्डक' यह एक महत्वपूर्ण कृति है । उस पर एक वृत्ति भी प्राप्त होती है जिसमें पादलिप्तसूरि द्वारा रचित प्राकृत वृत्ति का संकेत है। किन्तु वर्तमान में ज्योतिष करण्डक पर जो प्राकृत वृत्ति उपलब्ध होती है उसमें वह वाक्य नहीं है । यह सम्भव है कि प्रस्तुत सूत्र पर अन्य दूसरी प्राकृत वृत्ति होगी जिसका उल्लेख आचार्य मलयगिरि ने अपनी टीका में किया है। विज्ञों का यह भी मन्तव्य है कि पादलिप्तसूरि कृत वृत्ति ही मूल टीका है जो इस समय प्राप्त है । यह सत्य है कि उसमें कुछ वाक्यों का या पाठों का लोप हो गया है । इसमें अयनादि के निरूपण के साथ नक्षत्र व लग्न का मी वर्णन है। ज्योतिर्विद इस लग्न निरूपण प्रणाली को सर्वथा नवीन और मौलिक मानते हैं । जैसे अश्विनी और स्वाती ये नक्षत्र विषु के लग्न बताये गये हैं वैसे ही नक्षत्रों की विशिष्ट अवस्था राशि है यहाँ पर नक्षत्रों की विशिष्ट अवस्था को लग्न भी कहा गया है । ग्रन्थ में कृत्तिकादि, धनिष्ठादि, भरण्यादि श्रवणादि तथा अभिजित् आदि नक्षत्रों की गणनाओं की विवेचना की गयी है। विषय व भाषा दोनों ही दृष्टियों से ग्रन्थ का अपना महत्व है। 'अंगविज्जा' (अंगविद्या ) यह फलादेश का एक ही बहुत महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसमें सांस्कृतिक सामग्री लबालब भरी हुई है । प्रस्तुत ग्रन्थ में शरीर के लक्षणों को निहार कर या अन्य प्रकार के निमित्त अथवा मनुष्य की विविध चेष्टाओं द्वारा शुभ-अशुभ का वर्णन किया गया है। अंगविज्जा के अभिमतानुसार अंग, स्वर, लक्षण, व्यंजन, स्वप्न, छींक, भौम, अन्तरिक्ष, ये निमित्त कथन के आठ आधार हैं और इन आठ महानिमित्तों से भूत और भविष्य का ज्ञान किया जाता है । प्रस्तुत ग्रन्थ में साठ अध्याय हैं । ग्रन्थ के प्रारम्भ में अंग विद्या की प्रशस्ति करते हुए कहा है इसके द्वारा जय-पराजय, आरोग्य, हानि-लाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण आदि का परिज्ञान होता है । आठवें अध्याय में तीस पटल हैं और अनेक आसनों के भेद बताये गये हैं । नवें अध्याय में दो सौ सत्तर विषयों पर चिन्तन है । प्रिय प्रवेश यात्रारम्भ, वस्त्र, यान, धान्य, चर्या, चेष्टा आदि के द्वारा शुभाशुभ फल का कथन किया गया है। पैंतालीसवें अध्याय में प्रवासी पुनः घर पर कब और कैसी परिस्थिति में लौटकर आयेगा, उस पर विचार किया गया है। बावनवें अध्याय में इन्द्रधनुष, विद्य ुत्, चन्द्रग्रह, नक्षत्र, तारा उदय अस्त, अमावस्या - पूर्णमासी, मंडल, वीथी, युग, संवत्सर, ऋतुमास, पक्ष, क्षण, लव, मुहूर्त, उल्कापात, दिशादाह, प्रभृति निमित्तों से फल- कथन किया गया है। सत्ताइस नक्षत्र और उनसे होने वाले शुभ-अशुभ फल का भी विस्तार से वर्णन है । अन्तिम अध्याय में पूर्वभव जानने की युक्ति भी बतायी गयी है । 'गणिविज्जा' यह भी ज्योतिविद्या का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें दिवस, तिथि, नक्षत्र, करण, ग्रहदिवस, मुहूर्त, शकुन, लग्न, निमित्त आदि नौ विषयों पर विवेचन है। ग्रन्थकार ने दिवस से तिथि, तिथि से नक्षत्र और नक्षत्र से करण आदि क्रमशः बलवान् होते हैं, ऐसा लिखा है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक और तारों का वर्णन दिया है। इनके अभिमत से ग्रहों का केन्द्र सुमेरु पर्वत है, ग्रह गतिशील है और वे सुमेद को प्रदक्षिणा करते हैं। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त नियुक्ति, चूर्णी, भाष्य व वृत्तियों में भी ज्योतिष सम्बन्धी महत्वपूर्ण बातें अंकित हैं । यह एक तथ्य है कि गणित और फलित दोनों ही प्रकार के ज्योतिष का पूर्वमध्यकाल में अच्छा विकास हुआ था । 'ज्योतिस्सार' ग्रन्थ के रचयिता ठक्कर फेरु हैं। इस ग्रन्थ में वार, तिथि, नक्षत्रों में सिद्धि योग का प्रतिपादन है । व्यवहारद्वार में ग्रहों की राशि स्थिति, उदय अस्त और वऋदिन की संख्या का वर्णन है । ग्रन्थ में कुल २३८ गाथाएँ हैं । इस ग्रन्थ में हरिभद्र, नरचन्द्र, पद्मप्रभसूरि, जोण, वराह, लल्ल, पाराशर, गर्ग आदि के ग्रन्थों का अवलोकन कर ऐसा उल्लेख किया है । 'लग्नशुद्धि' ग्रन्थ के रचयिता आचार्य हरिभद्र माने जाते हैं । इस ग्रन्थ में गोचर शुद्धि, प्रतिद्वार Jain Education International For Private & Personal Use Only ०. O www.jainelibrary.orgPage Navigation
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