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जैन ज्योतिष साहित्य : एक चिन्तन
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जैन ज्योतिष साहित्य : एक चिन्तन
र ज्योतिषाचार्य उपायाध्य पं० प्रवर
श्री कस्तुरचन्द जी महाराज
जैन साहित्य विविध विधाओं में लिखा गया है। विश्व में ऐसा कोई भी विषय नहीं है जिस विषय पर जैन मनीषियों ने नहीं लिखा हो । धर्म, दर्शन, इतिहास, भूगोल, खगोल साहित्य और संस्कृति, कला और विज्ञान एवं कथाओं के क्षेत्र में भी उनकी लोह लेखनी अजस्र रूप से प्रवाहित हुई है । यहाँ तक कि आयुर्वेद, ज्योतिष, छन्द, अलंकार, कोश, निमित्त, शकुन, स्वप्न, सामुद्रिक, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, शिल्पशास्त्र, रत्नशास्त्र, मुद्राशास्त्र, धातुविज्ञान, प्राणिविज्ञान पर भी जैन चिन्तकों ने लिखा है । और जिस पर भी लिखा है उस विषय के तलछट तक पहुँचने का प्रयास किया है । अत्यधिक विस्तार में न जाकर संक्षेप में मैं प्रस्तुत निबन्ध में जैन ज्योतिष साहित्य पर अपने विचार व्यक्त करूंगा।
सूर्यादि ग्रह और काल का परिज्ञान करने वाला शास्त्र ज्योतिष कहलाता है ।' अतीत काल से ही अनन्त आकाश मानव के कौतूहल का विषय रहा है। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, उपग्रह, तारागण को देखकर उसके मस्तिष्क में विविध जिज्ञासाएँ उबुद्ध हुईं। जैन परम्परा की दृष्टि से 'प्रतिश्रुत' कुलकर के समय मानव सूर्य के चमचमाते हुए प्रकाश को देखकर और चन्द्रमा की चारु चन्द्रिका को निहार कर विस्मित हुए तो प्रतिश्रु त ने सौरमण्डल का परिज्ञान कराया और वही ज्ञान ज्योतिष के नाम से विश्रु त हुआ । वर्तमान में जो ज्योतिष है, उनका मूल स्रोत वही है, पर उसमें कालक्रम से अत्यधिक परिवर्तन हो चुका है।
जैन आगमों में ज्योतिष-शास्त्र का वर्णन सर्वप्रथम दृष्टिवाद में हुआ था । आज दृष्टिवाद विच्छिन्न हो चुका है। वर्तमान में जो आगम उपलब्ध हैं उनमें ज्योतिष का वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति में है। सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्य आदि ज्योतिश्चक्र का वर्णन है। इसमें एक अध्ययन, २० प्राभूत, उपलब्ध मूल पाठ २२०० श्लोक परिमाण है। गद्यसूत्र १०८ और पद्यगाथा १०३ हैं। इसी प्रकार चन्द्रप्रज्ञप्ति में भी चन्द्र आदि ज्योतिश्चक्र का वर्णन है । डाक्टर विन्टरनित्ज सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति को वैज्ञानिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ मानते हैं । डाक्टर शुब्रिग ने लिखा है जैन चिन्तकों ने जिस तर्कसम्मत और सुसम्मत सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया है वे अमूल्य एवं महत्त्वपूर्ण हैं। विश्व-रचना के सिद्धान्त के साथ उसमें उच्चकोटि का गणित एवं ज्योतिष विज्ञान भी उपलब्ध है। सूर्यप्रज्ञप्ति में गणित एवं ज्योतिष पर गहराई से चिन्तन किया गया है, अतः सूर्यप्रज्ञप्ति के अध्ययन के बिना भारतीय ज्योतिष के इतिहास को सही दृष्टि से नहीं समझा जा सकता।
सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्य के गमनमार्ग, आयु, परिवार प्रमृति के प्रतिपादन के साथ ही पंचवर्षात्मक युग के अयनों के नक्षत्र, तिथि एवं मास का वर्णन है। सूर्यप्रज्ञप्ति के समान ही चन्द्रप्रज्ञप्ति में भी वर्णन है किन्तु वह अधिक महत्वपूर्ण है। सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्य के प्रतिदिन की योजनामिकागति निकाली है और उत्तरायन दक्षिणायण की वीथियों का पृथक्-पृथक् विस्तार निकालकर सूर्य और चन्द्र की गति निश्चित रूप से बतायी गयी है। चतुर्थ प्राभूत में चन्द्र और सूर्य का संस्थान दो प्रकार से बताया है—(१) विमान संस्थान (२) प्रकाशित क्षेत्र संस्थान । दोनों प्रकार के संस्थानों के सम्बन्ध में अन्य सोलह मतान्तरों का भी उल्लेख है । स्वमत से प्रत्येक मण्डल में उद्योत और तापक्षेत्र का संस्थान बताकर अन्धकार क्षेत्र का निरूपण किया है। सूर्य के उर्ध्व एवं अधो और तिर्यक ताप क्षेत्र का परिमाण भी प्रतिपादित किया है। चन्द्रप्रज्ञप्ति में छायासाधन का प्रतिपादन है, और छायाप्रमाण पर से दिनमान निकाला गया है। ज्योतिष
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : षष्ठम खण्ड
की दृष्टि से प्रस्तुत विषय अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित किया गया है कि जब अर्धपुरुषप्रमाण छाया हो उस समय कितना दिन व्यतीत हुआ और कितना दिन अवशेष रहा ? उत्तर देते हुए कहा है-ऐसी छाया की स्थिति में दिनमान का तृतीयांश व्यतीत हुआ समझना चाहिए। यदि मध्याह्न के पूर्व अर्षपुरुषप्रमाण छाया हो तो दिन का तृतीय भाग गत और दो-तिहाई भाग अवशेष समझना चाहिए और मध्याह्न के पश्चात् अर्धपुरुषप्रमाण छाया हो तो दो-तिहाई भाग प्रमाण दिनगत और एक भाग प्रमाण दिन अवशेष समझना चाहिए। पुरुषप्रमाण छाया होने पर दिन का चौथाई भागगत और तीन चौथाई भाग अवशेष समझना चाहिए। और डेढ़ पुरुषप्रमाण छाया होने पर दिन का पंचम भाग गत और ३ भाग अवशेष दिन समझना चाहिए।
प्रस्तुत आगम में गोल, त्रिकोण, लम्बी व चतुष्कोण वस्तुओं की छाया पर से दिनमान का आनयन का प्रतिपादन किया गया है । चन्द्रमा के साथ तीस मुहूर्त तक योग करने वाले श्रवण, घनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपद, रेवती, अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढ़ा इन पन्द्रह नक्षत्रों का वर्णन है । पैन्तालीस मुहूर्त तक चन्द्रमा के साथ योग करने वाले उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा, उत्तराषाढ़ा ये छह नक्षत्र हैं। और पन्द्रह मुहूर्त तक चन्द्रमा के साथ योग करने वाले शतभिषा, भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा, स्वाती और ज्येष्ठा ये छह नक्षत्र हैं । चन्द्रप्रज्ञप्ति में चन्द्र को अपने आप प्रकाशमान बताया है। उसकी अभिवृद्धि और घटने के कारण पर भी प्रकाश डाला है। और साथ ही पृथ्वी से सूर्यादि ग्रहों की ऊँचाई कितनी है, इस पर चिन्तन किया गया है। ये दोनों आगम ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं ।
स्थानांग और समवायांग में विविध विषयों का वर्णन है। उस वर्णन में चन्द्रमा के साथ ही सर्शयोग करने वाले नक्षत्रों का भी उल्लेख किया गया है। आठ नक्षत्र कृतिका, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, चित्रा, विशाखा, अनुराधा और ज्येष्ठा ये चन्द्र के साथ स्पर्शयोग करने वाले हैं। प्रस्तुत योग का फल तिथियों के अनुसार विभिन्न प्रकार का होता है । इसी तरह नक्षत्रों की विभिन्न संज्ञाएँ उत्तर, पश्चिम, दक्षिण पूर्व दिशा की ओर से चन्द्रमा के साथ योग करने वाले नक्षत्रों के नाम और उनके फल पर विस्तार से विश्लेषण किया गया है। स्थानांग में ८८ ग्रहों के नाम भी आये हैं । वे इस प्रकार हैं-अंगारक, काल, लोहिताक्ष, शनैश्चर, कनक, कनक-कनक, कनक-वितान, कनक-संतानक, सोमहित, आश्वासन, कज्जोवग, कर्वट, अयस्कर, दुंदुयन, शंख, शंखवर्ण, इन्द्राग्नि, धूमकेतु, हरि, पिंगल, बुध, शुक्र, बृहस्पति, राहु, अगस्त, मानवक्र, काश, स्पर्श, धुर, प्रमुख, विकट, विसन्धि, विमल, पपिल, जटिलक, अरुण, अगिल, काल, महाकाल, स्वस्तिक, सौवास्तिक, वर्द्धमान, पुष्पमानक, अंकुश, प्रलम्ब, नित्यलोक, नित्योदियत, स्वयंप्रभ, उसम, श्रेयंकर, प्रेयंकर, आयंकर, प्रभंकर, अपराजित, अरज, अशोक, विगतशोक, निर्मल, विमुख, वितत, वित्रस्त, विशाल, शाल, सुव्रत, अनिवर्तक, एकजटी, द्विजटी, करकरीक, राजगल, पुष्पकेतु एवं भावकेतु आदि ।
इसी तरह समवायांग में भी एक-एक चन्द्र और सूर्य के परिवार में ८८-८८ महाग्रहों का उल्लेख हुआ है। प्रश्नव्याकरण में सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु केतु या धूमकेतु नौ ग्रहों के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है।
प्रश्नव्याकरण में नक्षत्रों पर चिन्तन अनेक दृष्टियों से किया गया है। जितने भी नक्षत्र हैं उन्हें कुल, उपकुल और कुलोपकुल में विभक्त किया है । प्रस्तुत वर्णन प्रणाली ज्योतिष के विकास को समझने के लिए अपना विशिष्ट स्थान रखती है। धनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद, अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, उत्तराफाल्गुन, चित्रा, विशाखा, मूल एवं उत्तराषाढ़ा ये नक्षत्र कुल-संज्ञक है । श्रवण, पूर्वाभाद्रपद, रेवती, भरणी, रोहिणी, पुनर्वसु, आश्लेषा, पूर्वाफाल्गुनी हस्त, स्वाती, ज्येष्ठा एवं पूर्वाषाढ़ा ये नक्षत्र उपकुल संज्ञक हैं। और अभिजित, शतभिषा, आर्द्रा तथा अनुराधा ये कुलोपकुल संज्ञक हैं । कुलोपकुल का जो विभाजन किया गया है वह पूर्णिमा को होने वाले नक्षत्रों के आधार पर किया गया है। सारांश यह है श्रावण मास में धनिष्ठा, श्रवण और अभिजित; भाद्रपद में उत्तराभाद्रपद, पूर्वभाद्रपद और शतभिषा आदि नक्षत्र बताये गये हैं । प्रत्येक मास की पूर्णिमा को उस मास का प्रथम नक्षत्र कुलसंज्ञक, दूसरा उपकुलसंज्ञक और तृतीय कुलोपकुल संज्ञक हैं । इस वर्णन का तात्पर्य उस महीने का फल प्रतिपादन करना है। प्रस्तुत ग्रन्थ में ऋतु, अयन, मास, पक्ष, तिथि सम्बन्धी विचारचर्चाएँ भी की गयी हैं।
समवायांग में नक्षत्रों की ताराएँ और दिशा द्वारा प्रकृति का भी वर्णन है, जैसे कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य और आश्लेषा ये सात नक्षत्र पूर्वद्वार के हैं। मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती और विशाखा ये नक्षत्र दक्षिण द्वार के हैं । अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, अभिजित् और श्रवण ये सात
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नक्षत्र पश्चिम द्वार के हैं । धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती, अश्विनी और भरणी उत्तर द्वार के हैं ।
समवायांग में ग्रहण के कारणों पर विचार करते हुए राहु के दो भेद किये है— नित्परा और पर्वराहू नित्यराहु को कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष का कारण माना है और पर्वराहु को चन्द्रग्रहण का कारण माना है । सूर्यग्रहण का कारण केतु है जिसका ध्वजदण्ड सूर्य के ध्वजदण्ड से ऊँचा है । दिनवृद्धि और दिनहास के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया गया है।"
इस प्रकार उपलब्ध जैन श्वेताम्बर आगम साहित्य में ऋतु, अयन, दिनमान, दिनवृद्धि, दिनह्रास, नक्षत्रमान, नक्षत्रों की अनेक संज्ञाएँ, ग्रहों के मण्डल, विमानों का स्वरूप एवं ग्रहों की आकृतियों पर संक्षेप में वर्णन मिलता है । ये चर्चाएँ बहुत ही प्राचीन हैं जो जैन ज्योतिष को ग्रीक पूर्व सिद्ध करती हैं ।
'ज्योतिष करण्डक' यह एक महत्वपूर्ण कृति है । उस पर एक वृत्ति भी प्राप्त होती है जिसमें पादलिप्तसूरि द्वारा रचित प्राकृत वृत्ति का संकेत है। किन्तु वर्तमान में ज्योतिष करण्डक पर जो प्राकृत वृत्ति उपलब्ध होती है उसमें वह वाक्य नहीं है । यह सम्भव है कि प्रस्तुत सूत्र पर अन्य दूसरी प्राकृत वृत्ति होगी जिसका उल्लेख आचार्य मलयगिरि ने अपनी टीका में किया है। विज्ञों का यह भी मन्तव्य है कि पादलिप्तसूरि कृत वृत्ति ही मूल टीका है जो इस समय प्राप्त है । यह सत्य है कि उसमें कुछ वाक्यों का या पाठों का लोप हो गया है । इसमें अयनादि के निरूपण के साथ नक्षत्र व लग्न का मी वर्णन है। ज्योतिर्विद इस लग्न निरूपण प्रणाली को सर्वथा नवीन और मौलिक मानते हैं ।
जैसे अश्विनी और स्वाती ये नक्षत्र विषु के लग्न बताये गये हैं वैसे ही नक्षत्रों की विशिष्ट अवस्था राशि है यहाँ पर नक्षत्रों की विशिष्ट अवस्था को लग्न भी कहा गया है । ग्रन्थ में कृत्तिकादि, धनिष्ठादि, भरण्यादि श्रवणादि तथा अभिजित् आदि नक्षत्रों की गणनाओं की विवेचना की गयी है। विषय व भाषा दोनों ही दृष्टियों से ग्रन्थ का अपना महत्व है।
'अंगविज्जा' (अंगविद्या ) यह फलादेश का एक ही बहुत महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसमें सांस्कृतिक सामग्री लबालब भरी हुई है । प्रस्तुत ग्रन्थ में शरीर के लक्षणों को निहार कर या अन्य प्रकार के निमित्त अथवा मनुष्य की विविध चेष्टाओं द्वारा शुभ-अशुभ का वर्णन किया गया है। अंगविज्जा के अभिमतानुसार अंग, स्वर, लक्षण, व्यंजन, स्वप्न, छींक, भौम, अन्तरिक्ष, ये निमित्त कथन के आठ आधार हैं और इन आठ महानिमित्तों से भूत और भविष्य का ज्ञान किया जाता है । प्रस्तुत ग्रन्थ में साठ अध्याय हैं । ग्रन्थ के प्रारम्भ में अंग विद्या की प्रशस्ति करते हुए कहा है इसके द्वारा जय-पराजय, आरोग्य, हानि-लाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण आदि का परिज्ञान होता है । आठवें अध्याय में तीस पटल हैं और अनेक आसनों के भेद बताये गये हैं । नवें अध्याय में दो सौ सत्तर विषयों पर चिन्तन है । प्रिय प्रवेश यात्रारम्भ, वस्त्र, यान, धान्य, चर्या, चेष्टा आदि के द्वारा शुभाशुभ फल का कथन किया गया है। पैंतालीसवें अध्याय में प्रवासी पुनः घर पर कब और कैसी परिस्थिति में लौटकर आयेगा, उस पर विचार किया गया है। बावनवें अध्याय में इन्द्रधनुष, विद्य ुत्, चन्द्रग्रह, नक्षत्र, तारा उदय अस्त, अमावस्या - पूर्णमासी, मंडल, वीथी, युग, संवत्सर, ऋतुमास, पक्ष, क्षण, लव, मुहूर्त, उल्कापात, दिशादाह, प्रभृति निमित्तों से फल- कथन किया गया है। सत्ताइस नक्षत्र और उनसे होने वाले शुभ-अशुभ फल का भी विस्तार से वर्णन है । अन्तिम अध्याय में पूर्वभव जानने की युक्ति भी बतायी गयी है ।
'गणिविज्जा' यह भी ज्योतिविद्या का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें दिवस, तिथि, नक्षत्र, करण, ग्रहदिवस, मुहूर्त, शकुन, लग्न, निमित्त आदि नौ विषयों पर विवेचन है। ग्रन्थकार ने दिवस से तिथि, तिथि से नक्षत्र और नक्षत्र से करण आदि क्रमशः बलवान् होते हैं, ऐसा लिखा है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक और तारों का वर्णन दिया है। इनके अभिमत से ग्रहों का केन्द्र सुमेरु पर्वत है, ग्रह गतिशील है और वे सुमेद को प्रदक्षिणा करते हैं। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त नियुक्ति, चूर्णी, भाष्य व वृत्तियों में भी ज्योतिष सम्बन्धी महत्वपूर्ण बातें अंकित हैं । यह एक तथ्य है कि गणित और फलित दोनों ही प्रकार के ज्योतिष का पूर्वमध्यकाल में अच्छा विकास हुआ था ।
'ज्योतिस्सार' ग्रन्थ के रचयिता ठक्कर फेरु हैं। इस ग्रन्थ में वार, तिथि, नक्षत्रों में सिद्धि योग का प्रतिपादन है । व्यवहारद्वार में ग्रहों की राशि स्थिति, उदय अस्त और वऋदिन की संख्या का वर्णन है । ग्रन्थ में कुल २३८ गाथाएँ हैं । इस ग्रन्थ में हरिभद्र, नरचन्द्र, पद्मप्रभसूरि, जोण, वराह, लल्ल, पाराशर, गर्ग आदि के ग्रन्थों का अवलोकन कर ऐसा उल्लेख किया है ।
'लग्नशुद्धि' ग्रन्थ के
रचयिता आचार्य हरिभद्र माने जाते हैं । इस ग्रन्थ में गोचर शुद्धि, प्रतिद्वार
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड
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दशक, मास, वार, तिथि, नक्षत्र, योगशुद्धि, सुगण दिन, रजच्छन्नद्वार, संक्रांति, कर्कयोग, वार, नक्षत्र, अशुभ योग, सरद्वार, होरा, नवरा, द्वादशांश, पवर्गशुद्धि उदयास्तशुद्धि आदि विषयों पर चर्चा है।
सुगणा
दिनशुद्धि आचार्य रत्नशेखर की कृति है । इसमें रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि का वर्णन करते हुए तिथि, लग्न, प्रहर, दिशा और नक्षत्र की शुद्धि आदि प्रतिपादित की गयी है ।
मिलती हैं ।
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'कालसंहिता' आचार्य कालक की रचना है । वराहमिहिर ने वृहद् जातक में कालकसंहिता का उल्लेख किया है। निशीथचूर्णी, आवश्यकचूर्णी, प्रभृति ग्रन्थों से भी आचार्य कालक के ज्योतिष ज्ञान का परिज्ञान होता है । 'भुवनदीपक' के रचयिता पद्मप्रभरि है। यह प्रथ जिसमें ज्योतिष विषयक अनेक विषयों पर चिन्तन किया
'प्रपद्धति' के रचयिता हरिश्चन्द्र मणि है होते हुए भी महत्त्वपूर्ण है । इस ग्रन्थ में छत्तीस द्वार हैं गया है ।
'भूवनदीपकवृत्ति' नाम से आचार्य सिंहतिलक की मुनि हेमतिलक की और दो अज्ञात लेखकों की वृत्तियाँ
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'आरम्भसिद्धि' के रचयिता आचार्य उदयप्रभ हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ संस्कृत भाषा में निर्मित है। इसमें तिथि, वार, नक्षत्र, सिद्धि आदि योग, राशि, गोचर, कार्य, गमन, वास्तु, विलग्न आदि ग्यारह प्रकरण हैं जिसमें प्रत्येक कार्य के शुभ-अशुभ मुहूर्तों का वर्णन है ।
हेम हंसगणि ने आरम्भसिद्धि पर एक वृत्ति की रचना की । वृत्ति में यत्र-तत्र ग्रह विषयक प्राकृत गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं जिससे यह ज्ञात होता है इसके पूर्व प्राकृत में ग्रह विषयक कोई महत्वपूर्ण ग्रन्थ होना चाहिए। वृत्ति में मुहूर्त के संबंध में सुन्दर प्रकाश डाला गया है।
'भद्रवाहसंहितावितों का ऐसा मत है कि आचार्य भावाने प्राकृत भाषा में 'भद्रवाहसंहिता' नामक ग्रन्थ की रचना की थी। वर्तमान में जो भद्रबाहुसंहिता संस्कृत भाषा में उपलब्ध है वह भद्रबाहु की नहीं है । मुनिश्री जिनविजयजी ने इसे बारहवीं तेरहवीं शताब्दी की रचना माना है और मुनि कल्याणविजयजी ने पन्द्रहवीं शताब्दी के पश्चात् की रचना माना है । क्योंकि इसकी भाषा में साहित्यिकता नहीं है और साथ ही छन्द-विषयक अशुद्धियाँ मी है । वर्तमान में जो भद्रबाहुसंहिता संस्कृत में उपलब्ध है, उसमें सत्ताईस प्रकरण हैं और वह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है ।
'ज्योतिस्सार' इस ग्रन्थ के रचयिता मलधारी आचार्य नरचन्द्र हैं जिनके गुरु देवप्रभसूरि थे । इस ग्रन्थ में तिथि, वार, नक्षत्र, योग, राशि, चन्द्र, तारका बल, भद्रा, कुलिक उपकुलिक, कष्टक आदि अड़तालीस विषय पर प्रकाश डाला है । प्रस्तुत ग्रन्थ पर ही मुनि सागरचन्द्र ने तेरह सौ पेन्तीस श्लोक प्रमाण टिप्पण की रचना की जो अभी तक अप्रकाशित है ।
'जन्म समुद्र' के रचयिता उपाध्याय नरचन्द्र हैं । यह लाक्षणिक ग्रन्थ है । गर्भसम्भवादि लक्षण, जन्मप्रत्ययलक्षण, रिष्टयोग तद्द्मंगलक्षण, निर्वाण लक्षण, द्रव्योपार्जन राजयोग लक्षण, बालस्वरूप लक्षण, स्त्रीजातकस्वरूप, नामसादियोगदीक्षावस्थायुर्योग लक्षण, इन आठ कल्लोलों में यह विभक्त है। इसमें लग्न और चन्द्रमा के सम्पूर्ण फलों पर चिन्तन किया गया है। इसकी हस्तलिखित सोलहवीं शताब्दी की एक प्रति लालभाई दलपतभाई, भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद, में है। अभी तक यह ग्रन्थ मुद्रित नहीं हुआ है । उपाध्याय नरचन्द्र ने 'प्रश्नशतक', 'ज्ञानचतुर्विशिका', 'लग्न विचार', 'ज्योतिषप्रकाश', 'ज्ञान दीपिका' आदि अनेक ज्योतिष विषयक ग्रन्थ लिखे हैं । इन ग्रन्थों में ज्योतिष सम्बन्धी खासी अच्छी सामग्री है। और ये सभी ग्रन्थ अप्रकाशित हैं ।
'ज्योतिस्सार संग्रह' के रचयिता आचार्य हर्षकीर्ति हैं जिन्होंने वि० सं० १६८० में प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की । इनकी दूसरी रचना "जन्मपत्री पद्धति" मिलती है जिसमें जन्मपत्री बनाने की रीति, ग्रह, नक्षत्र, वार, दशा आदि के फल प्रतिपादित किये हैं । लब्धिचन्द्रगणी' की भी इसी नाम से रचना है जिसमें इष्टकाल, मयात् भभोग, लग्न आदि नवग्रहों का स्पष्टीकरण किया गया है और गणित विषयक चर्चा करते हुए सामान्य फलों का भी वर्णन किया है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है। मुनि महिमोदय ने भी इसी नाम से ग्रन्थ की रचना की है जिसमें सारिणी, ग्रह, नक्षत्र, वार आदि के फल बताये गये हैं ।
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जैन ज्योतिष साहित्य : एक चिम्लन
उपाध्याय यशोविजयजी 'फलाफल विषयक प्रश्नपत्र' ग्रन्थ के रचयिता माने जाते हैं । इसमें चार चक्र हैं और प्रत्येक चक्र में सात कोष्ठक हैं। मध्य के चारों कोष्ठकों में ओं, ह्रीं श्रीं अहं नमः उट्टं कित किया गया है। आसपास के कोष्ठकों को गिनने से चौबीस कोष्ठक बनते हैं। जिनमें चौबीस तीर्थंकरों के नाम दिये गये हैं । चौबीस कोष्ठकों में कार्य की सिद्धि, मेघवृष्टि, देश का सौख्य, स्थानसुख, ग्रामांतर, व्यवहार, व्यापार, व्याजदान, भय, चतुष्पाद, सेवा, सेवक, धारणा, बाधारुधा, पुररोध, कन्यादान, वर, जयाजय, मन्त्रौषधि, राज्यप्राप्ति, अर्थचिन्तन, सन्तान, आगंतुक तथा गतवस्तु को लेकर प्रश्न किये गये हैं ।
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उपाध्याय मेघविजय जी के उदयदीपिका, प्रश्नसुन्दरी, वर्षप्रबोध, आदि ग्रन्थ मिलते हैं जिसमें ज्योतिष् सम्बन्धी चर्चाएँ हैं ।
मुनि मेघरत्न ने 'उस्तरलाबयंत्र' की रचना की है जिसमें अक्षांश और रेखांश का ज्ञान प्राप्त होता है तथा नतांश और उन्नतांश का वेध करने में भी इसका उपयोग होता है। इसकी प्रति अनूपसंस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर में हैं। श्री अगरचन्द जी नाहटा ने उत्तरलावयंत्र सम्बन्धी एक महत्त्वपूर्ण जैन ग्रन्थ से एक निबन्ध भी लिखा है ।
'ज्योतिष - रत्नाकर' के रचयिता मुनि महिमोदय हैं जो गणित और फलित दोनों प्रकार की ज्योतिषविद्या के श्र ेष्ठ ज्ञाता थे । प्रस्तुत ग्रन्थ में संहिता, मुहूर्त और जातक पर विचार चर्चा की गयी है । ग्रन्थ लघु होते हुए भी उपयोगी है। इनकी दूसरी रचना "पंचांगानयन - विधि" नामक ग्रन्थ मिलता है जिसमें पंचांग के गणित में सहयोग प्राप्त होता है । ये दोनों ग्रन्थ अब तक अप्रकाशित हैं ।
वाघजी मुनि का 'तिथि सारिणी' नामक श्रेष्ठ ग्रन्थ है जिसकी प्रति लिमडी के जैन भण्डार में है । मुनि यशस्वतसागर का 'यशोराज्य-पद्धति" ग्रन्थ मिलता है जिसके पूर्वाद्ध में जन्मकुण्डली की रचना पर चिन्तन किया गया है और उत्तरार्द्ध में जातक पद्धति की दृष्टि से संक्षिप्त फल प्रतिपादित किया गया है। यह ग्रन्थ भी अप्रकाशित है ।
आचार्य मम का "त्र्यैलोक्य प्रकाश" ज्योतिष सम्बन्धी एक श्रेष्ठ रचना है। प्राकृत भाषा में एक अज्ञात लेखक की 'जोइसहिर' नामक रचना मिलती है। जिसमें शुभाशुभ तिथि, ग्रह की सबलता, शुभ घड़ियाँ, दिनशुद्धि, स्वर ज्ञान, दिशाशूल, शुभाशुभयोग, व्रत आदि ग्रहण करने का मुहूर्त आदि का वर्णन है। इसी नाम से मुनि हरिकलश की भी रचना मिलती है जिसकी भाषा राजस्थानी है और इसमें नौ सौ दोहे हैं ।
'पंचांग तत्त्व' 'पंचांग तिथिविवरण' 'पंचांगदीपिका', 'पंचांग पत्र विचार' आदि भी जैन मुनियों की रचनाएँ हैं किन्तु उनके लेखकों के नामों का अता-पता विज्ञों को नहीं लगा है। 'सुमतिहर्ष' ने 'जातक पद्धति' जो श्रीपति की रचना थी उस पर वृत्ति लिखी है । उन्होंने 'ताजिकसार' 'करण कुतुहल' 'होरा मकरन्द' आदि ग्रन्थों पर भी टीकाएँ निर्माण की हैं ।
महादेवीसारणी टीका, विवाह पटल - बालावबोध, ग्रहलाघव टीका, चन्द्रार्की टीका, षट्पंचाशिका टीका, भुवनदीपक टीका, चमत्कार चिन्तामणि टीका, होरामकरंद टीका, बसन्तराज शाकुन टीका, आदि अनके ग्रन्थों जिनमें ज्योतिष के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टियों से चिन्तन किया गया है जो जैन मुनियों की व जैन विज्ञों की ज्योतिष् के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण देन है। अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमितियनित प्रतिभागणित, पंचांग निर्माण गणित, जन्म-पत्र निर्माण गणित, प्रभूति गणित ज्योतिष के अंगों के साथ ही होराशास्त्र, मुहूर्त सामुद्रिकशास्त्र, प्रश्नशास्त्र, स्वप्नशास्त्र, निमित्तशास्त्र, रमलशास्त्र, पासा - केवली आदि फलित अंगों पर विशद रूप से विवेचन किया है । शोधार्थी विज्ञों को जैन ज्योतिष साहित्य के सम्बन्ध में पाँच सौ से भी अधिक ग्रन्थ उपलब्ध हो चुके हैं । स्पष्ट है कि आगम साहित्य में जिस ज्योतिष के सम्बन्ध में संक्षेप से चिन्तन किया गया उस पर परवर्ती आचार्यों और लेखकों ने अपनी शैली से विस्तार से निरूपण किया । यह सम्पूर्ण साहित्य इतना विराट् है कि उन सभी पर विस्तार से विश्लेषण किया जाय तो एक बृहद्काय ज्योतिष ग्रन्थ बन सकता है। किन्तु हमने यहाँ अति संक्ष ेप में ही अपने विचार व्यक्त किये हैं जिससे प्रबुद्ध पाठकों को परिज्ञात हो सके कि जैन मनीषियों ने भी ज्योतिषविद्या के सम्बन्ध में कितना कार्य किया है।
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________________ 628 श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड Wreememorrearrrrrrrroomorrrrrrrrrorrorsemamritinoimmunmmarror सन्दर्भ एवं सन्दर्भ स्थल१ "ज्योतिषां सूर्यादि ग्रहाणां बोधकं शास्त्र" 2 जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा -देवेन्द्र मुनि 3 He who has a thorough knowledge of the structure of the world cannot but admire the in ward logic and harmony of Jain ideas. Hand in hand with the refined Cosmogrophical ideas goes a high standard of Astronomy and Mathematics. A History of Indian Astronomy is not Concievable without the famous "Surya Pragyapti" -Dr. Schubring 4 जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा -लेखक देवेन्द्र मुनि, पृष्ठ 264 से 270 5. ता अवड्ढ पोरिसाधं छाया दिवसस्स कि गते सेसे वा ता तिमागे गए वा ता से से वा, पोरिसाणं छाया दिवस्स किं गए वा सेसे वा जाव चऊ भाग गए सेसे वा / -चन्द्रप्रज्ञप्ति प्र०६५ 6 स्थानांग, पृष्ठ 18 से 100 7 "एगमेगस्सणं चंदिम सूरियस्स अट्ठासीइ महम्गहा परिवारो।" -समवायांग संख्या 81-1 8 समवायांग :15-3 6 लग्गं च दक्षिणाय विसुवे सुवि अस्स उत्तरं अयणे / लग्गं साई विसुवेसु पंचसु वि दक्खिणे अयणे / / 10 विशेष विस्तार के लिए देखिए 'जैन ज्योतिष साहित्य : एक पर्यवेक्षण'-लेखक देवेन्द्र मुनि Mor-o-पुष्क र संस्म रण-----------------------0--0-0--0--0--0--0--0--0--0--2 सच्चा फोटो कई बार श्रद्धालु भक्तगण कहते हैं-गुरुदेव, हमें आपका फोटो चाहिए। आपके फोटो से हमें आध्यात्मिक प्रेरणा मिलेगी। गुरुदेव उन्हें कहते हैं-मेरे फोटो से क्या प्रेरणा लोगे ? मैं जिन्दा बैठा हूँ। मेरे में जो सद्गुण हैं उसे अपनाओ, यही मेरा सच्चा फोटो है / भयभीत मत बनो। मुझे पैसा और धन नहीं चाहिए / मैं चाहता हूँ कि तुम्हारे में जो दुर्व्यसन है-तम्बाकू पीना, शराब पीना, तस्कर कृत्य करना, आदि जितनी भी बुराइयां उन्हें भेंट चढ़ा दो। किसानों ने गुरुदेव की बात सुनी / वे एक दूसरे से कहने लगे-बाबा तो बहुत देखे हैं, जो हमारे से पैसा मांगते हैं, भांग, चरस अफीम और तम्बाकू मांगते हैं / किन्तु 1 यह बाबा निराला है जो हमारे से दुर्गुणों की भेंट मांग रहा है। / उन्होंने गुरुदेव के कथन से प्रभावित होकर मद्य, मांस और तम्बाकू आदि व्यसनों। 1 का परित्याग कर दिया और यथासमय प्रतिदिन प्रमुस्मरण करने का भी नियम लिया / / a-o--0-0--0--0-0--0-0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0-0--0----5 8-0--0--0------0-0--0--0-0--0--0--0--0--o-rs .