Book Title: Jain Journal 1977 07 Author(s): Jain Bhawan Publication Publisher: Jain Bhawan PublicationPage 50
________________ यह है कि इसका साइज लगभग "गुजरात समाचार" दैनिक जितना लम्बा चौड़ा और विशाल है। इस माप के २७ पन्ने भर के श्री बर्जेस ने जैन धर्म, जैन तीर्थ करों, साधु संस्था एवं शत्रुजय तीर्थ सम्बन्धी प्राचीन परम्परा और शत्रुजय गिरि के ऊपर के तत्समय विद्यमान जिनालयों टोंको का सविस्तार संख्यावद्ध वर्णन फुट नोट के साथ दिया है। साथ ही इस तीर्थ के छोटे मोटे सैकड़ों मन्दिरों की समृद्धि के सर्वग्राही दर्शन कराने वाले चित्र खास-खास जिनालयों के चित्र व कितनी ही टोंकों के चित्र सब मिलाकर ४५ चित्र देकर इस ग्रंथ को शिल्प स्थापत्य के उत्तम संग्रह जैसा समृद्ध बनाया है। इन चित्रों में कितने तो एक फुट लम्बे और दस इञ्च चौड़े हैं। सभी चित्रों को पुस्तक के कद के मोटे कार्ड बोर्ड पर चिपकाया गया है। इन चित्रों की सर्वाधिक ध्यान देने योग्य विशेषता यह हैं कि ११० वर्ष पूर्व लिए गए फोटों चित्रों में आज की विकसित फोटोग्राफी कला की तुलना में किसी भी प्रकार की न्यूनता नहीं लगती। इतना ही नहीं ये चित्र मदिरों और टोंकों का ऐसा सुरेख हूबहू और आह्लादकारी दर्शन कराते हैं कि दर्शकों का मन चाहता है, उसे देखते ही रहें। ___ श्री शत्रुजय तीर्थ पर देवविमान सदृश मन्दिरों की विपुल और अनन्य समृद्धि को देखकर 'देव मन्दिरों की नगरी' रूप में गौरव भरी उपमा डा० बर्जेस ने ही दी थी। इस काव्यमय कथन को यथार्थता की प्रतीति इन चित्रों को देखते ही हो जाती है। इस ग्रंथ में गिरिराज पर स्थित चौमुखजी के आलीशान और गगनचुबी जिन प्रासाद के पाए का नक्सा भी दिया गया है। इस भाँति डा० बजेस ने और इसकी प्रकाशक कम्पनी ने इस ग्रन्थ को सर्वांग सुन्दर बनाया है। अतः कहना होगा कि संसार के विशिष्टे समृद्ध और शाश्वत महत्ववाले महाग्रन्थों में स्थान प्राप्त करने लायक यह महाग्रन्थ है। इस महाग्रंथ में दी हुयी वर्णनात्मक एवं चित्रात्मक समस्त सामग्री को 'जैन जर्नल' जैसे छोटे साइज (10"x6") के अंक में सर्वांग सुन्दर और कलात्मकता से समाविष्ट कर लेना कितना कठिन है यह तो मुद्रण एवं प्रकाशन के कलाविद् अथवा मूलग्रंथ की समस्त सामग्री को समाविष्ट किए पुस्तक रूप में उपस्थित 'जैन जर्नल' के इस विशेषांक को स्वयं की आँखों से देखने वाला ही समझ सकता है। पहली बात तो यह है कि मुद्रण की दृष्टि से अत्यन्त अटपटे जैसे इस ग्रन्थ को आसानी से रख रखाव योग्य लघु आकार में प्रकाशित करने का विचार ही कठिन है। मन में ऐसी कल्पनाशीलता हो स्पष्ट दर्शन हो कि यह कार्य कितना उपयोगी और सफल प्रमाणित होने वाला है, साथ ही अपार कार्यशक्ति एवं सूझ बूझ भी हो तभी ऐसा कार्य हाथ में लेने का बिचार पैदा हो सकता है। 'श्री गणेश ललवानी जी' ने अपनी समस्त आंतरिक शक्ति के उदाहरण स्वरूप अनोखा कार्य कर दिखाने का अदम्य उत्साह और अपने इस क्षेत्र के वर्षों के अनुभव के बलपर ही इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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