Book Title: Jain Journal 1977 07 Author(s): Jain Bhawan Publication Publisher: Jain Bhawan PublicationPage 49
________________ उत्तम प्रकार की साहित्य सेवा का उत्तरदायित्व केवल इस संस्था के संचालकगण या कलकत्ता जैन संघ के अग्रगामी ही उठाते रहें और अन्य स्थानों के विद्याप्रेमी श्रीमंत और संघ ऐसे उत्तम कार्य के लिये अपना उदार सहयोग स्वयं देने के लिये आगे न श्रावें तो इसमें उनकी शोभा नहीं है। हमारी अल्प समझ के अनुसार तो अपने धन को धन्य बनाने के लिये यह एक श्रेष्ठ स्थान है । इतना ही नहीं अपनी-अपनी आर्थिक सुविधानुसार अपने कार्य क्षेत्र का विस्तार कर जैन विद्या की सभी शाखाए सविशेष सेवा कर सकें ऐसे विशाल परिमाण में कार्य करने की आवश्यकता है। अतः हम चाहते हैं कि जिनके पास फण्ड हो ऐसे संघ एवं श्री संघ के श्रीमंत लोग व संस्थाएं जैन भवन को उदारतापूर्वक आर्थिक सहयोग दें। जैन भवन के संचालकों ने इसके लिये आज तक कभी जैन समाज से अपील की हो ऐसा हमारी जानकारी में नही आया है और वे इस प्रकार की याचना करें ऐसी सम्भावना भी कम है । एतदर्थ, हमें अपने लिए ही लाभऔर गौरवपूर्ण इस कार्य के लिए स्वयं चलाकर सहायता देना उचित है । यह तो हुयी प्रासंगिक बात अब मूल बात करें । 'जैन जर्नल' ने गत 'एप्रिल' मास के प्रकाशन मे अपनी गौरवपूर्ण यशस्वी एवं उपयोगी कार्यवाही के ग्यारह वर्ष पूर्ण किये। अतः हम प्रस्तुत त्रैमासिक के संपादक 'श्री गणेश ललवानी' तथा जैन भवन के विद्याप्रेमी और भावनाशील संचालक बंधुनों को धन्यवाद देते हुये उनका हार्दिक अभिनन्दन करते हैं । साथ ही इस सस्था एवं इस त्रैमासिक का आगे और विकास हो, इनके हाथों से जैन विद्या को प्राधिकाधिक सेवा होती रहे ऐसी आंतरिक शुभेच्छा प्रकट करते हैं । 'जैन जर्नल' का गत एप्रिल मास का अंक प्रकाशित कर उन्होंने जैन धर्म, संघ, इतिहास, पुरातत्व और कला की जो विशिष्ट सेवा की है उसका यहाँ उल्लेख करना आवश्यक है । जिन-जिन महानुभावों की नजर में यह विशेषांक पड़ेगा वे इसकी अनोखी और विरल सेवा की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा किये बिना नहीं रहेंगे ऐसा मेरा विश्वास है । अतः हमने टिप्पणी द्वारा सभी का ध्यान इस प्रोर आकृष्ट करना उचित समझा है । सत्य तो यह है कि ऐसी अत्यन्त उपयोगी और सर्वजन श्लाघनीय महत्व की ओर विद्वानों का, जैन संघों का विशेष रूप से ध्यान आकर्षित करना ही हमारी टिप्पणी का प्राण और मुख्य हेतु है । विवरण इस प्रकार है : नवकारवाली के पूरे १०८ मनकों की भाँति १०८ वर्ष पूर्व इस्वी सन् १८६९ में 'जेम्स बर्जेस' नामक भारतीय पुरातत्व के दिग्गज अंग्रेज विद्वान ने “दि टेम्पल्स आफ शत्रुंजय पालीताणा काठियावाड़" नाम से एक मोटा महाकाव्य सचित्र, सुन्दर और अद्भुत महाग्रन्थ तैयार किया था। इसके चित्र 'साइक्स एण्ड डवायर' नामक कम्पनी ने किए थे और प्रकाशन भी इसी कम्पनी ने किया था । इस ग्रन्थ रत्न को "महाकाव्य महाग्रन्थ " के रूप में प्रशंसा करने का कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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