Book Title: Jain Hit Shiksha Part 01
Author(s): Kumbhkaran Tikamchand Chopda Bikaner
Publisher: Kumbhkaran Tikamchand Chopda Bikaner

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Page 231
________________ ( २२३ ) , आचारंग पहला अध्ययन में, छऊं उदेशां कह्यो बिस्तारजी || जी० ।। ४४ । के समय माहा अनारज थकां करें हिंसा धर्म नौ थापक्षी । कहै प्राण भूत जौवां सतबनें, धर्म हेत हयां नहीं पापजौ || नी० ॥ ४५ ॥ एहवी ऊंधौ परूपे तेहने, भारनायें साधु बोल्या केमजौ। तुमे भूठो दौठो सांभल्यो, भूडी दौठो भूडी सांभलो केमजी || जो० ॥ ४६ ॥ जीव मायां रो दोष गिणनें, ए बचन अनारज जाणजी । एहवा मूढ़ मिथ्याती में दुर्मती । त्यां सुध बुध नहीं है ठिकाण जौ ॥ जौ ० ॥ ४७ ॥ कोई हिंसा धर्मी ने इम कहै, यांने मायां वै धर्म के पापनी । जब कहे म्हांने मायां पाप है, सुधौ सांच बोल्या साची थापनी ॥ जौ ० ॥ ॥ 10 11 8 5 11 जो थांने मायां रो पाप है, तो इम सर्व जीवां मायां जाणजी । और में मायां धर्म परूपै, थे कांई बूड़ो कर कर तागाजी || जी० ॥ ४६ ॥ ए आचारंग चौथा अध्ययन में, टूजे उद्देशे जागा विस्तार जौ । हिंसा धर्मी नारज तेहनें, कौधा जिन मार्ग स्यूं- न्याग्ज || जौ० ॥५०॥ धर्म होसी एकेन्द्रौ मारियां, जो बेन्द्रौ मायां पाप न थायजी । अधिक मायां अधिक धर्म छे, इग से श्रद्धा से ओहोज न्यायओ ॥ ओ० ० ॥ ५१ ॥ जो एकेन्द्रौ मायां पाम है, तो बेन्द्री

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