Book Title: Jain Gitikavya me Bhakti Vivechan Author(s): Shreechand Jain Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf View full book textPage 5
________________ इन भेदोंके तीन भाग किये जा सकते हैं । श्रवण, कीर्तन और स्मरण, श्रद्धा और विश्वासको वृत्तिके सहायक हैं। पदसेवा, अर्चन और वन्दन वैधी भक्तिके विशेष अंग हैं तथा दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन रागात्मिका भक्तिसे सम्बन्ध रखते हैं। श्रीमद्भागवतमें इन तीनों ही अंगोंका बड़े विस्तारसे विवेचन हुआ है : आगे चलकर दास्य, सख्य और आत्म-निवेदनको ही गोस्वामीजीने भक्ति रसका उत्पादक माना है। इनमें भी आत्म-निवेदनका विशेष महत्व है क्योंकि आत्म-निवेदनमें साधन और साध्य एक हो जाते हैं।' जैन गीतकाव्योंमें भक्तिके साधन-व्यापक रूपसे विचार किया जाय, तो भक्तिके ये सभी साधन जैन गीतकाव्यमें पाये जाते हैं। इस काव्यके उन्नायकोमें कविवर द्यानतराय, बधजन, भानुमल, दौसतराम, वीरचन्द, भूधरदास, आनन्दघन, भागचन्द्र और भैया बनारसीदास आदि कवि प्रसिद्ध हैं । इन्हीं ने भक्तिके उपरोक्त साधनोंको अपने गीतोंके माध्यमसे अभिव्यक्त किया है तथा हम यहाँ विभिन्न साधनोंके द्योतक कुछ गीत दे रहे हैं । १. द्यानतरायका कोर्तन प्रभु मैं किहि विधि थुति करौं तेरी। गणधर कहत पार नहिं पावै, कहा बुद्धि है मेरी ।। शक्र जनम भरि सहस जीभ धरि, तुम जस होत न पूरा। एक जीभ कैसे गुण गावै, उलू कहै किमि सूरा ॥ चमर छत्र सिंहासन वरनौ, ये गुण तुमते न्यारे । तुम गुण कहन वचन बल नाहीं, नैन गिने किमि तारे ।। २. द्यानतरायका स्मरण अथवा ध्यान तुम शिवसुखमय प्रगट करत प्रभु चिंतन तेरो । मैं भगवान समान भाव यों वरत। मेरो । यदपि झूठ है तदपि तप्ति निश्चल उपजावै । तुव प्रसाद सकलंक जीव वांछित फल पावै ॥ ३. दौलतरामका दर्शन महात्म्य निरख सुख पायो, जिन मुखचन्द मोह महातम नाश भयो है उर अम्बुज प्रफुलायो । ताप नस्यो, तब बढयो उदधि आनन्द ॥ निरख० ॥ चकवी कुमति विछुरि अतिविलखे आतम सुधा सुवायो । शिथिल भये सब, विधि गणफन्द ।। निरख० ॥ विकट भवोदधि को तट निकट्यो, अघ तक मूल नसायो । दोल लह्यो, अब सुपद स्वच्छन्द ।। निरख० ॥ ४. बुधजनका पद वन्दन तुम चरनन की शरन, आय सुख पायो । अबलो चिर भववन में डोल्यों, जन्म जन्म दुख पायो ।। तुम० । ऐसो सुख सुरपति के नाही, सौ मुख जात न गायों। अब सब सम्पति मो उर आई आज परम पद लायो ॥ तुम० ।। १. डा. हरवंशलाल शर्मा, सूर और उनका साहित्य, पृ० २२५ -२४२ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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