Book Title: Jain Gitikavya me Bhakti Vivechan Author(s): Shreechand Jain Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf View full book textPage 8
________________ कवि आनन्दघनके अनुसार साधु सङ्गतिके बिना परममहारस धामका पाना सम्भव नहीं है : साधु संगति बिन कैसे पैये, परम महारस धाम री । कोटि उपाय करे जो बौरो, अनुभव कथा विसराम री ॥ सीतल सफल सन्त सुर पादप, सेवे सदा सुछां री । वंछित फले, टले अनवंछित, भव सन्ताप बुजाइ री ॥ चतुर विरंचि विरंजन चाहे, चरण कमल मकरंद री । को हरि भरम बिहार दिखावे, शुद्ध, निरंजन चांद री ॥ देव असुर इन्द्र पद चाहूं न, राज न काज समाज री । सङ्गति साधु निरन्तर पावूं, आनन्दघन महाराजजी ॥ गोस्वामी तुलसीदासने भी साधु सङ्गतिको आनन्द और मङ्गलका मूल बताते हुए तुलसी दोहावलीमें इसे कोटि अपराध विनाशक कहा है : एक घड़ी, आधी घड़ी, आधी में पुन आध । तुलसी सङ्गति साधु की, हरे कोटि अपराध ॥ स्तुति और स्तोत्र : सामान्यतया ये पर्यायवाची कहे जाते हैं । इन दोनोंका भी भक्ति में महत्त्वपूर्ण स्थान है । आराधक अपने आराध्यकी स्तुति करके उनके गुणोंकी प्रशंसा करता है तथा अपने पापोंको अस्तित्वहीन बनाता है। जैन कवियोंने विविध रूपोंमें अपने उपास्यकी वन्दना की है । इस सम्बन्धमें कविवर भूधरदास की सिद्ध स्तुति एवं जिन-वाणी स्तवन विशेष लोकप्रिय हैं : सिद्ध स्तुति जिनवाणी स्तुति विश्वनाथ प्रसाद मिश्र सं० आनन्दघन, पृ० ६१ Jain Education International शोक हर्यो भविलोकन को लोक अलोक विलोक भये, सिद्धन थोक बसे शिवलोक, ध्यान हुतासन में अरि ईंधन, झोंक दियो रिपुलोक निवारी । वर केवल ज्ञान मयूर अधारी ॥ शुभ जन्म जरामृत पंक परवारी । तिन्हे पग धोक त्रिकाल हमारी ॥ X X X तीरथ नाथ प्रनाम करें, तिनके गुन वर्नन में बुधि हारी । मोम गयी गल सूस मंझार रही तहं व्योम तदाकृत धारी ॥ लोक गहीर नदीपति नीर, भये तिरतीर तहां अविकारी | सिद्धन थोक बसे शिवलोक, तिन्हे पग धोक त्रिकाल हमारी ॥ वीर हिमाचल तें निकसी, गुरु गौतम के मुख कुण्ड डरो है । मोह महाचल भेद चली, जग की जड़ता-तप दूर करी है ।। ज्ञान पयोनिधि मांहि रली, बहुभंग तरंगनि सों उधरी है । ता शुचि शारद गंगनदी, प्रति में अंजली निज शीश धरी है । या जगमन्दिरमें अनिवार अज्ञान अन्धेर छयो अतिभारी । श्रीजिनकी धुनि दीप शिखा सम, जो नहि होत प्रकाशन हारी ॥ - २४५ - For Private & Personal Use Only जैनशतक, पृ० ११ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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