Book Title: Jain Gitikavya me Bhakti Vivechan
Author(s): Shreechand Jain
Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf

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Page 11
________________ भागचन्द करुणाकर सुख कर, हरना यह भव सन्तति लामो । मो सम कौन कुटिल खल कामी, तुम सम कलिमल दलन न नामी ॥ (४) भूधरदासका मायाके प्रति विद्रोह परक पद । सुन ठगनी माया, तें सब जग ठग खाया। टुक विश्वास किया जिन तेरा, सो मूरख पछिताया ।। सुन० ॥ आया तनक दिखाय बीज ज्यों, मूढ़मती ललचाया। करि मद अन्ध धर्म हरि लीनौ, अन्त नरक पहुँचाया ।। सुन० ॥ केते कन्थ किये तै कुलटा, तो भी मन न अघाया । किसही सौ नहिं प्रीति निबाही, वह तजि और लुभाया ।। सुन ॥ भूधर ठगन फिरै यह सबकौं, भौ, करि जग पाया। जो इस ठगनी को ठग बैठे, मैं तिसकों सिर नाया ।। सुन० ।। इसी प्रकार आनन्दघन एक गीतमें पूजासे आत्मविश्वासकी जागृति करते हैं और दौलतराम एक प्रार्थनागीतमें अपने अवगुणोंके लिये क्षमायाचना करते हैं। इस प्रकरणमें आनन्दघनका निम्न सर्व धर्म समाक्षरी गीत उल्लेखनीय है : आनन्दघनका ब्रह्मकता सूचक पद राम कहो रहमान कहो, कोउ, कान कहो महादेव री पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री । भाजन भेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री। तैसे खण्ड कल्पनारोपित, आप अखण्ड स्वरूप री। निज पद रमे राम सो कहिये, रहिम करे रहमान री। कर ते करम कान सो कहिये महादेव निर्वाण री। परसे रूप पारस को कहिये ब्रह्म चिन्हें सो, ब्रह्म री । इह विध साथो आप आनन्दघन चेतनमय निःकर्म री। आनन्दघन, जैन कवि, पृ० ६०-६७ भक्ति और भावना यह हमें स्मरण रखना चाहिये कि भक्ति क्षेत्रमें जाति-वर्ग आदिके कल्पित भेदभाव नगण्य हैं । साधु सन्तोंकी भाँति जैन कवियोंने भी इस सम्बन्धमें जाति मान्यता आदिके विरोधको तीव्र स्वरों में व्यापक बनाया है। इस जाति-वर्णादिकी निस्सारताको घोषित करने में जैन कवियोंने ऐसी कथाओंको चर्चा की है जो जैनाम्नायमें पूर्णरूपेण स्वीकृत हो चुकी है । आचार्य रविषेण पद्मचरितमें कहते हैं : न जातिर्गर्हिता काचित्, गुणाः कल्याणकारणम् । व्रतस्थमपि चाण्डालं, तं देवाः ब्राह्मणं विदुः ।। तात्पर्य यह है कि जैनधर्ममें धर्म रूपसे प्रतिपादित चरित्र धर्म है वर्णाश्रम नहीं है किन्तु मोक्षकी इच्छासे आर्य या म्लेक्ष जो भी इसे स्वीकार करते हैं, वे सभी इसके अधिकारी होते हैं। यह हमारी ही कोई कल्पना नहीं है क्योंकि जैनधर्म तो इसे स्वीकार करता ही है, मनुस्मृति भी इस तथ्यको स्वीकार करती है: -२४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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