Book Title: Jain Dharm se Anuprerit Shasak
Author(s): Indrakumar Kathotiya
Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf

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Page 5
________________ सिद्धराज जयसिंह ने पाटण को ज्ञान का मंदिर बना दिया था। जैन साधुओं ने जिस धार्मिक उत्साह से अपने हस्तलिखित साहित्य को प्रणीत एवं संग्रहीत किया वह अनहिलपट्टन की बौद्धिक त्वरितता की छवि को और भी अधिक उजागर करती है। हेमचन्द्राचार्य ने भी पाटण के धार्मिक और शैक्षणिक जीवन के बारे में अपनी कृतियों में प्रकाश डाला है। जैनधर्म के चैत्र गच्छीय महान संत हेमचन्द्र का बहुत ही गहरा असर जयसिंह सिद्धराज पर था। सर्वप्रथम वे राजपुरोहित बनाए गए। तत्पश्चात् उन्हें राजकीय इतिहासकार बनाया गया। वे जयसिंह के नैतिक एवं धार्मिक मार्गदर्शक भी थे। तत्कालीन समय के राजकीय इतिहास लेखक होने के नाते हेमचन्द्र ने जयसिंह के समृद्धशाली राज्य के विषय में अपने 'देव्याश्रय' काव्य में विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की है। इस साहित्यिक प्रबन्ध में जयसिंह और हेमचन्द्राचार्य के आपसी मैत्री सम्बन्धों के बारे में भी बहुत सारे उपाख्यानों को उद्धृत किया गया है। उन्होंने राजा जयसिंह के कहने पर बहुत सारे ग्रंथों का सृजन किया जिसमें 'सिद्ध हेम व्याकरण', 'कुमार पाल चरित' प्राकृत 'देव्याश्रय महा काव्य', 'लघवरहन नीति शास्त्र' प्राकृत 'वृहद् अर्हन नीति शास्त्र', 'चंगेनुशासन' आदि प्रमुख हैं। इस प्रकार 'वागभट्टलंकार' के जैन साहित्यकार 'वागभट्ट' भी राजा के विशेष कृपापात्र थे। इस ग्रंथ के टीकाकार वागभट्ट को सोम का पुत्र बतलाते हैं। 'प्रभावक चरित' के अनुसार उन्होंने एक जैन मन्दिर भी वि० सं० १९७८ में बनवाया था । ५८ जयमंगलाचार्य जो 'कवि शिक्षा' के रचयिता थे तथा वर्धमान सूरि जिन्होंने व्याकरण पर 'गण रतन महोदधि' नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया था ऐसे जैन साहित्यकार हुए हैं जो जयसिंह के राज्यकाल में फलवित हुए। जैनधर्म के सम्पर्क एवं प्रभाव से जयसिंह के हृदय में करुणा का सागर आलोड़ित होने लगा था और यही कारण रहा कि उसने युद्ध में भी प्रतिपक्षिय राजाओं को आक्रान्त करने के पश्चात् भी रिद्ध ही नहीं किया वरन् अपनी पुत्रियों के संग विवाह भी करवाया। अजमेर के राजा अर्णोराज इसका ज्वलन्त उदाहरण है। युद्ध में हराकर भी उसने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ करवा दिया।१९ पृथ्वीराज विजय के अनुसार उसकी पुत्री का नाम कंचनदेवी था। इसी प्रकार 'प्रबंध चिन्तामणि' से हमें जानकारी मिलती है कि उसने युद्ध में पराजित किए हुए सपादलक्ष के आनाका राजा को न केवल सपादलक्ष ही लौटा दिया अपितु लाखों रुपये भी साथ में दिए। ६० वि०सं० १९९९ में किराडू के परमार राजा सोमेस्वर की सहायता कर जयसिंह ने उसे अपना खोया राज्य पुनः दिलवाया। विद्वत खण्ड / ५४ Jain Education International उसने 'बहूलोढ़ा' नामक एक कर' भी अपनी प्रजा की भलाई के लिए हटा दिया। इससे राज्य को ७२ लाख रुपये का राजस्व प्राप्त होता था जयसिंह अपनी प्रजा की पुकार को हमेशा सुनता था जो उसकी अच्छी शासन व्यवस्था का परिचायक है। नगर रक्षा के लिए उसने कोतवाल अथवा नगर संरक्षक का पद बनाया था। अनहिल पुरा के तत्कालीन कोतवाल जैन अनुयायी जयदेव थे। इसी प्रकार 'वाग् भट्टलंकार' के रचियता जैन वागू भट्ट भी जयसिंह के राज्य मंत्री थे। ११ जयसिंह सिद्धराज अपने जीवन के उत्तरार्द्ध काल में जैनधर्म से इतना प्रभावित हो गया था कि उसने अपने अन्तिम समय में जैन विधि से समाधि पूर्वक अनशन की अवस्था में पाण्डित्यपूर्ण मृत्यु को वरण किया। श्रीचंद्रसूरि कृत प्राकृत जैन रचना 'मुनि सुव्रत स्वामी चरित' के प्रत्यक्षदर्शी वर्णन के अनुसार भी जयसिंह ने संथारा करके उपवास में मृत्यु का वरण किया । ६२ सन्दर्भ १. देव्याश्रयकाव्य, खण्डकाव्य प्रथम, गाथा ४ : पुरं श्रिया सदाश्लिष्टं नाम्नापहिलपाटकम् । २. वही, खण्ड काव्य, नवम, गाथा ९९-१०० और १५३ ३. सिंघी जैन ग्रन्थमाला, पुरातन प्रबन्ध संग्रह, पृष्ठ ३५ "अष्ट वार्षिक एव स सान्तमंत्रिणा गुण श्रेणि नीतः।" ४. वही, प्रबन्ध चिन्तामणि, पृष्ठ ५५ "सं० ११५० वर्षे पौष वदि ३ रानौ श्रवणनक्षत्रे वृषलग्ने श्र सिद्धराजस्य पट्टाभिषेकः " ५. वही, पृष्ठ ७६ [सं०] ११५० पूर्व श्री सिद्धराज जयसिंहदेवेन वर्ष ४९ राज्यं कृतम्। " ६. 'जैन साहित्य संशोधक,' खंड द्वय, सर्ग ४, पृष्ठ ९ ७. आइने अकबरी, ब्लोयमेन एवं जनारेट द्वारा अनुवादित, भाग-२, पृष्ठ २६० ८. 'एपिग्राफिया इंडिका', खण्ड ११, पृष्ठ ३२-३३ ९. सिंघी जैन ग्रन्थमाला, प्रबन्ध चिन्तामणि, पृष्ठ ५५ "स्वयं तु आशापल्ली नवासिनमाशाभिधानं भिल्लम भिषेणयन्... कर्णावलीपुरं निवेश्य स्वयं तत्र राज्य चकार..... १०. डायनेस्टिक हिस्ट्री ऑफ नॉरदर्न इंडिया, भाग २, लेखक एच०सी० राय, कलकत्ता, पृष्ठ ९६६ • ११. वही १२. 'एपिग्राफिया इंडिका' खण्ड ९, पृष्ठ ७६-७७, "श्री आशाराजनामा समजनि वसुधानायकस्तम्य बन्धुः । सर्ग २६ साहाय्यं मालवानां भुवि यदसि कृतं वक्ष्यसिद्धाधिराजः ।। " 'एपिग्राफिया इंडिका', खण्ड १, पृष्ठ २९३, उद्धरण ५ (२) सिंधी जैन ग्रन्थमाला, जैन पुस्तक प्रशस्ति- 'संग्ह' पृष्ठ १०१ वही, पृष्ठ ६५ १३. १४. १५. १६. 'पुरातत्व (गुजराती)', खण्ड ४, पृष्ठ ६७ "अजयत् सिद्धासौराष्ट्रन..." For Private & Personal Use Only शिक्षा एक यशस्वी दशक www.jainelibrary.org

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