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जयसिंह सिद्धराज और उसकी मुद्राएँ
7 इन्द्रकुमार कठोतिया
जयसिंह के नाना जयकेशी कोंकण के राजा थे जिसकी राजधानी आधुनिक गोवा थी। जयसिंह की माँ एक महान स्त्री थी। जयसिंह के आरम्भिक जीवन को सँवारने का पूर्ण श्रेय उन्हीं को जाता है। राजा कर्ण की मृत्यु के उपरान्त मायानल्ला देवी ने मंत्री शांतु की निगरानी में जयसिंह को शस्त्र विद्या की शिक्षा दिलवायी।३ मायानल्ला देवी ने एक दीर्घ जीवन जीया और अपने पुत्र की उदीयमान जीवन-यात्रा को निकटता से देखा। हेमचन्द्राचार्य अपने 'देव्याश्रय काव्य' में लिखते हैं कि जयसिंह बढ़ती उम्र के साथ युद्ध-कला एवं शासन-व्यवस्था में निपुण होता गया। हाथियों तक को वश में कर लेने की कला भी वो जानने लगा था। तरुण अवस्था को प्राप्त करते ही उसका राज्याभिषेक कर दिया गया। यह औपचारिकता वि० सं० ११५० पौष मास में सम्पन्न की गई। 'प्रबन्ध चिन्तामणि' के अनुसार उसका राज्यकाल उनचास वर्ष (वि० सं० ११५० से ११९९ तद्नुसार १०९४ से ११४३ ई०) था।' 'विचार श्रेणी' भी इसी तथ्य का प्रतिपादन करती है
परन्तु 'आइने अकबरी' के अनुसार जयसिंह ने पचास वर्षों तक जैन धर्म से अनुप्रेरित शासक :
राज्य किया। इस उल्लेख का अनुमोदन वि० सं० १२०० (११४४ ई०) के बाली पाषाण शिलालेख से भी होता है।
___ 'प्रबन्ध चिन्तामणि' के अनुसार 'कर्ण' जयसिंह का महान जैन धर्म से प्रभावित होकर न जाने कितने ही भारतीय
राज्याभिषेक करके 'आशापल्लि' के विजय-अभियान के निमित्त नरेशों ने या तो जैन धर्म को अंगीकार किया अथवा उसके प्रचार
चला गया और विजयोपरान्त वहीं पर कर्णावटी नामक नगरी बसा प्रसार और उत्थान में अपना महनीय योगदान दिया। अनहिलपाटण ।
कर स्वयं राज्य करने लगा। अथवा अनहिलवाद या अनहिलपुरा (गुजरात) के चालूक्यवंशीय
जयसिंह जब राज्यारूढ़ हुआ तब अनहिलपाटण की राजनैतिक (सोलंकी) जयसिंह सिद्धराज (विक्रम संवत् ११५०-११९९
और भौगोलिक स्थिति उतनी सुदृढ़ नहीं थी। उसके पूर्वज मूलराज तदनुसार ई० सन् १०९४-११४४) उन्हीं राजाओं में से एक था।
से लेकर भीम तक - शाकंभरी, सिंध, नाडूला, मालवा, सौराष्ट्र, ___ गुजरात के चालूक्यवंशीय राजाओं के लगभग साढ़े तीन सौ
लाट, कच्छ और अबूंद मंडल के नरेशों से युद्ध करते रहे थे परन्तु वर्षों के इतिहास में (९६१-१३४० ई०) जैनधर्म एवं तत्सम्बन्धी
___ अन्तिम तीन क्षेत्र ही उनके अधिपत्य में आ पाए। साहित्य का अविच्छिन्न एवं द्रुत गति से विकास हुआ। जैन लेखक
जयसिंह बड़ा ही जीवट का योद्धा था। उसने जो कुछ भी अपने राजघरानों एवं प्रशासन से जुड़े रहे जिसमें उनके द्वारा रचित साहित्य
पूर्वजों से प्राप्त किया उसको विस्तृत करते हुए एक विशाल से हमें तत्कालीन परिस्थितियों, घटनाओं एवं राजनैतिक वातावरण
साम्राज्य की स्थापना की और गुजरात की कीर्ति को चहुँ ओर का अविकल एवं अक्षरस: ज्ञान प्राप्त होता है। मूलराजा से लेकर
फैलाया। कई जैन सूत्रों से हमें विदीत होता है कि जयसिंह गुजरात अन्तिम राजा तक इस राजघराने की राजधानी अनहिलपताका
साम्राज्य का 'सांभर' से कोंकण सीमा रेखा तक निर्विवाद राजा बन अथवा अनहिलपुरा या अनहिलपाटण ही बनी रही।
गया था। उसके साम्राज्य में आधुनिक गुजरात - लाट, सौराष्ट्र, जयसिंह कर्ण एवं मायानल्लादेवी का पुत्र था। मायानल्ला
कच्छ सहित राजस्थान के कुछ भूभाग, मालवा एवं मध्य भारत चंद्रपुर के कदंब राजा जयकेशी की पुत्री थी।२ "प्रबंध चिंतामणि'
निहित थे। के अनुसार यह जयकेशी 'शुभकेशी' का पुत्र था जो कर्णाटक का
जयसिंह का सर्वप्रथम महत्वपूर्ण कार्य 'मालवा विजय' के साथ राजा था। हमें यह ज्ञात है कि शुभकेशी गोवा के कदंब राजघराने
आरम्भ हुआ। कहते हैं जयसिंह के आरम्भिक राज्यत्वकाल में का तीसरा अधिष्ठाता शष्ठदेव था। ऐसा समझा जाता है कि
परमार नरेश नरवर्मन ने अनहिल पाटण पर चढ़ाई कर दी थी। यह पर
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घटना तब घटित हुई बताई जाती है जब जयसिंह अपनी माता ११२५-२६ से पूर्व कभी भी हुई होगी। मायानल्ला देवी के संग सोमनाथ की तीर्थ यात्रा पर गया हुआ था। जयसिंह की एक और महत्वपूर्ण उपलब्धि अनार्य राक्षस राजा उसके मुख्यमंत्री शांतु को आक्रांता के साथ अपमानजनक शर्तों पर 'बरबरक' पर विजय प्राप्ति था। इस उपलब्धि के पश्चात् ही उसे संधि करनी पड़ी। तीर्थ यात्रा से लौटने के उपरान्त जयसिंह ने इसका 'सिद्धराजा' की उपाधि से विभूषित किया गया।२२ इसी विजयबदला मालवा पर जीत हासिल करके लिया। नरवर्मन के साथ हुए प्राप्ति के पश्चात् उसे 'बरबरक जिष्णु' का विरूद भी प्राप्त हुआ। युद्ध का वर्णन जैन वाङ्गमय में बड़े विस्तार से किया है। इनमें उज्जैन के वि०सं० ११९६ के खण्डयुक्त पाषाण शिलालेख में जयसिंह सूरि रचित 'कुमार पाल चरित', जिनमण्डलगणि रचित इसका स्पष्ट उल्लेख हुआ है।२३ इस युद्ध विषयक वर्णन जैन कृति 'कुमारपाल प्रबन्ध' तथा राजशेखर कृत 'प्रबन्ध कोष' प्रमुख हैं। इन 'वाग भट्टालंकार' २४ में भी गुम्फित है। 'प्रबन्ध कोष' से हमें चन्देल काव्यों से यह जानकारी प्राप्त होती है कि इस युद्ध में जयसिंह ने 'मदनवर्मन' के साथ उसकी राजधानी 'महोबा' के लिए हुए युद्ध नरवर्मन को बंदी बना लिया था। इन रचनाओं से पूर्व की एक कृति विषयक जानकारी प्राप्त होती है। अन्तत: जयसिंह ने छियानवे 'कीर्ति कौमुदी' से जानकारी मिलती है कि जयसिंह ने नरवर्मन की करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त कर युद्ध को समाप्त किया। 'कालींजर' धाः नगरी पर अपनी विजय प्राप्त कर ली। इन साहित्यिक रचनाओं के 'पाषाण शिलालेख' से भी उपर्युक्त घटना पर प्रकाश पड़ता है के अतिरिक्त हमें कतिपय शिलालेखों से भी इस महत्वपूर्ण विजय (जनरल ऑफ एसियाटिक सोसाइटी, १८४८)। की जानकारी मिलती है। 'तालवार' शिलालेख से इस विषय पर हेमचन्द्राचार्य कृत 'चडोनुशासन' २५ तथा वागभट्ट कृत प्रकाश पड़ता है कि जयसिंह ने नरवर्मन का मानमर्दन कर दिया था। अलंकार के लेखन से उजागर होता है कि जयसिंह ने सिंधुराज को इसी प्रकार ललवाड़ा के गणपति मूर्ति लेख से पता चलता है कि युद्ध में हराया था। 'वाग भट्टलंकार' के टीकाकार सिंह देवगणि जयसिंह ने नरवर्मन के घमंड को चूर-चूर कर दिया।१० दोहड़ लिखते हैं कि वह 'सिंधुदेशधीप' अर्थात् सिंध का शासक था। स्तंभ-शिलालेख से ज्ञात होता है कि जयसिंह ने मालवा के राजा जयसिंह के ११४०ई० के 'दोहड़ शिलालेख' में इस युद्ध के को कैद कर लिया था।११ जैन साधु जयमंगल द्वारा रचित 'शुंध विषय में उल्लेख किया गया है।२६ शैल-शिलालेख' से ज्ञात होता है कि इस युद्ध में नाडूल चाहमान सपादलक्ष के 'आनक राजा' (अर्णोराजा) (११३९-११५३ अशराज ने जयसिंह का साथ दिया था।१२ कुमारपाल की बड़नगर ई०) का वर्णन 'प्रबन्ध चिन्तामणि' में किया गया है। उसने प्रशस्ति में भी इस कथानक का उल्लेख है कि किस तरह जयसिंह अर्णोराजा से लाखों वसूल करके छोड़ा।२७ सांभर से प्राप्त एक ने मालवा के राजा का मानमर्दन किया था।१३ ।
शिलालेख में भी यह उल्लिखित है कि 'आनक' जयसिंह के अधीन लगता है इस मालवा-विजय के उपलक्ष में ही जयसिंह ने हो गया था।२८ 'महाराजाधिराज परमेश्वर'१४ एवं 'त्रिभुवन गण्ड'१५ की उपाधियाँ इसी प्रकार जयसिंह के दक्षिण भारतीय अभियान के विषय में धारण की।
भी हमें 'जिन मंडन गिरी' कृत 'कुमारपाल-प्रबन्ध' से ज्ञात होता जयसिंह का द्वितीय महत्वपूर्ण युद्ध सौराष्ट्र के साथ हुआ। आ० है।२९ एक हस्तलिखित जैन ग्रन्थ से जयसिंह के 'देवगिरी' हेमचन्द्र ने 'सिद्ध-हेम-व्याकरण' में सौराष्ट्र विजय का वर्णन किया अभियान के विषय में जानकारी मिलती है। वहाँ से जयसिंह 'पैठान' है।१६ 'कीर्ति कौमुदी' के अनुसार जयसिंह ने शक्तिशाली सौराष्ट्र की ओर अग्रसर हो गया जहाँ के राजा ने उसकी अधीनता स्वीकार के 'खेंगार' को युद्ध में परास्त किया।१७ 'विविध तीर्थ कल्प' में कर ली। 'कल्याण कटक' में उस समय 'विक्रमादित्य-षष्ठ' का भी राजा का नाम 'खेंगार राय उल्लिखित है। १८ इसी प्रकार स्वामित्व था। इसका विरूद 'परमार्दी' था। जयसिंह के 'तालवार 'पुरातन प्रबन्ध संग्रह' में भी इस युद्ध का उल्लेख किया गया है।१८ शिलालेख' में परमार्दी के हार जाने का उल्लेख किया गया है।३० 'प्रबन्ध चिन्तामणि' के अनुसार जयसिंह ने सौराष्ट्र के प्रबन्धन हेतु 'कोल्हापुर प्रबंध चिन्तामणि' के सर्गों से हमें जयसिंह का उस क्षेत्र 'सज्जन' को अपना ‘दण्डाधिपति' अथवा 'राज्यपाल' नियुक्त में अधिकार होने का पता चलता है।३१ किया।२० जयसिंह के राज्यत्वकालीन वि०सं० ११९६ के दोहड इस तरह उपर्युक्त लगभग दस युद्धों में विजय प्राप्त कर शिलालेख में भी यह उल्लिखित है कि उसने सौराष्ट्र के राजा को जयसिंह एक मान्यताप्राप्त योद्धा बन गया था और अपने बाहुबल से बंदी बनाकर कारावास में बंद कर दिया था।२१ 'प्रबंध चिन्तामणि' वह निर्विवादित रूप से सांभर से कोंकण तक का एकाधिपति बन के सूत्रों से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि सौराष्ट्र पर विजय ई० चुका था।
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हस्तलिखित जैन ग्रन्थों एवं तत्कालीन प्रस्तर शिलालेखों से हमें
“श्रीमऊज्ञात होता है कि जयसिंह ने अपने साम्राज्य पर ज्यो-ज्यों पकड़ जयसिंह मजबूत की उसे क्रमश: उन्नत उपाधियाँ प्रदत्त की गईं। जयसिंह के प्रिय' राज्यारोहण के सात वर्षों पश्चात् वि०सं० ११५७ (११००ई०) स्वर्गीय मुद्राशास्त्री डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त के अनुसार में रचित 'निशिथ चूर्णि' में जयसिंह को केवल मात्र 'श्री जयसिंह सिक्कों पर प्रयुक्त 'प्रिय' शब्द बड़ा ही अटपटा-सा लगता है। डॉ० देवराज्ये' अर्थात् 'जयसिंह के राज्य काल में' से सम्बोधित किया गुप्त के अनुसार इस शब्द का प्रयोग 'वीसलदेव प्रिय द्रम्म' के रूप गया है।३२ राजा को विरुद रहित सम्बोधन से उद्धृत किया जाना में प्राय: अभिलेखों में देखा जाता है। कदाचित् इसका अभिप्राय उसके अप्रभाव का परिचायक है। ऐसा आभासित होता है कि आत्मीयता प्रकट करना है।३९ डॉ० गुप्त ने इन सिक्कों का जयसिंह उस काल में केवल मात्र सिंहासन का ही अधिकारी बन तारतम्य प्रतिहार राजा वत्सराज जिसने रणहस्ति विरुद धारण किया सका होगा। इसके तीन वर्षोपरान्त रचयित वि० सं० ११६० था। उनके भी चित भाग पर दक्षिणाभिमुख हाथी और पट भाग पर (११०४ ई०) की जैन हस्तलिखित कृति 'आदिनाथ चरित' से 'रण-हस्ति' आलेख है। परन्तु मेरी धारणा है कि जयसिंह के प्रकाश पड़ता है कि जयसिंह का राज्य-विस्तार 'केमबे' तक हो सिक्कों की तुलना वत्सराज से करना समीचीन नहीं होगा। कारण गया था।३३ चार वर्षों पश्चात् हमें सं० ११६४ (११०८ ई०) में चालुक्य वंशीय जयसिंह 'प्रतिहार वत्सराज' के आठवीं शताब्दी रचित एक हस्तलिखित जैन ग्रंथ प्राप्य है। इसमें जयसिंह को (ई० ७७८-७८८) के सिक्कों की भाँति सिक्के ५०० वर्षों 'समस्त राजाबलि-विराजिता-महाराजाधिराज-परमेश्वर श्री जयसिंह उपरान्त क्यों प्रचलित करता? द्वितीयतः प्रतिहार वत्सराज के देव कल्याणे-विजयराज्ये' से सम्बोधित किया गया है।३४ ऐसा सिक्के ६-७ ग्रेन के नन्हें आकार के सिक्के हैं जबकि जयसिंह लगता है कि उस समय तक जयसिंह ने सर्वत्र अपने पराक्रम का द्वारा मुद्रित सिक्कों का वजन २० ग्रेन है। डॉ० गुप्त के अतिरिक्त लोहा मनवा लिया होगा। इसके पश्चात् वि०सं० ११६६ (ई० न तो किसी मुद्राविज्ञ ने जयसिंह सिद्धराज के सिक्कों को उद्धृत ही १११०) में रचित 'आवश्यक सूत्र ग्रंथ' से जयसिंह के एक और किया, नहीं प्रदर्शित किया। विरूद का- 'त्रिभुवन गंड' भान होता है।३५ 'त्रिभुवन गंड' अर्थात् परन्तु जैन वाङ्गमय में हमें इस तथ्य की कुछ व्याख्या मिलती तीनों लोकों का अभिभावक। ऐसा प्रतीत होता है कि जयसिंह का है कि क्यों जयसिंह ने एक ओर हस्ति तथा दूसरी ओर 'जयसिंह सैन्य अभियान उस समय में अपनी पराकाष्ठा पर था। और उसका प्रिय' का उपयोग किया है। हमें विदित है कि राजा भोज की मृत्यु वर्चस्व चहुँ दिशाओं में पैठ गया होगा। फाल्गुन वि० सं० ११७९ के उपरान्त 'परमार' और चालुक्य राजघरानों के मध्य रुष्ठता बढ़ती में विरचित 'पंचवास्तुका ग्रंथ' में उसी विरुदावली को उद्धृत किया ही गई। ‘भोज' के अनुवर्ती राजाओं नरवर्मन तथा उसके पुत्र गया है किन्तु साथ में 'श्रीमत्' और जोड़ दिया गया।३६ उस समय यशोवर्मन कभी भी उज्जैनी की भव्यता एवं कीर्ति को प्रतिष्ठापित तक 'सांतुका' जयसिंह का 'महाकाव्य' अर्थात् मुख्यमंत्री था। नहीं कर सके। किन्तु उन्होंने चालुक्य राजा जयसिंह के साथ अपनी भाद्रपद मास वि०सं० ११७९ में रचित जैनग्रंथ 'उत्तराध्ययन सूत्र' लड़ाई जारी रखी। यशोवर्मन एक बेहद ही कमजोर शासक था। से विदित होता है कि उस समयम में मुख्यमंत्री 'आशुका' हो चुका वह सन् ११३३ ई० से पूर्व मालवा के राजसिंहासन पर आरूढ़ था तथा राजा को अतिरिक्त विरुदावली 'सिद्ध चक्रवर्ती' भी प्रदत्त हुआ। उसके शासन काल में भी जयसिंह के साथ कोई समझौता की गई। ३७ वि०सं० ११९२ में लिखित 'नवपदलघुवृत्ति' एवं नहीं हो सका। फलस्वरूप जयसिंह ने बड़ी तैयारी के साथ मालवा 'गाला शिलालेख' में जयसिंह को 'अवन्तिनाथ' के विरूद से भी पर हमला कर दिया। हेमचन्द्र के अनुसार यह युद्ध बारह वर्षों तक नवाजा गया है।
लम्बा चला। वे लिखते हैं- "जयसिंह मालवा की ओर बड़ी ही किन्तु बड़े ही आश्चर्य का विषय है कि जयसिंह की ज्ञात धीमी गति से चला। रास्ते में जितने भी छोटे-बड़े राज्य मिले उन्हें मुद्राओं में उपर्युक्त एक भी विरूद का प्रयोग नहीं किया गया। धराशायी करता गया। भीलों ने भी उसे अपनी सेवायें प्रस्तुत की। संलग्न निखात में मैने प्राप्य १७ सिक्कों के लेख को दर्शाया है। अन्त में उसने अपनी सेना को क्षिप्रा नदी के तट पर तैनात करते इन सिक्कों के उर्ध्व भाग में एक दक्षिणाभिमुख हस्ति का अंकन हुए धार-नगरी पर हमला किया। भयभीत यशोवर्मन मुँह छुपाए धार हुआ है और वाम भाग में तीन पंक्तियों में निम्न आलेख उकेरित के किले में पड़ा रहा। उसने किले के समस्त दरवाजों को बंद । किया गया है :
करवाते हुए उन्हें तीखे तुणिरों से आच्छादित कर दिया। जयसिंह ने
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'यश:पत:' नामक एक हाथी के सहयोग से सभी दरवाजों को प्रभावित था। 'प्रबंध चिंतामणि' के अनुसार उसने सभी दर्शनों की ध्वस्त कर दिया। यशोवर्मन धार नगरी से पलायन कर गया...।४० शाखाओं को मान्यता प्रदान कर सम्मानित किया था। 'सर्वधर्म मेरुतुंग ने धार विजय की इस घटना का वर्णन कुछ इस प्रकार से समभाव' में उसका अटूट विश्वास था। जहाँ उसने 'सोमनाथ' की किया है- 'राजा जयसिंह ने मालवा राज्य को विजित करने का तीर्थ यात्रा की थी वहीं जैन के दो धार्मिक स्थलों 'रेवतक' तथा 'अभियान प्रारम्भ किया। यह लड़ाई १२ वर्षों तक जारी रही। परन्तु 'शत्रुञ्जय' की तीर्थ यात्राएँ भी सम्पन्न की थी। 'देव्याश्रय काव्य' के जयसिंह धार के मजबूत किले पर अपना कब्जा नहीं जमा सका। पंद्रहवें खंड से विदित होता है कि जयसिंह सिद्धराज ने सरस्वती नदी जयसिंह वहाँ से लौट जाना चाहता था कि तभी मंत्री मुंजल ने किले के किनारे सिद्धपुरा में अन्तिम अर्हत का मंदिर बनवाया था।" वहाँ को विध्वंस करने की एक योजना बनाई। राजा को इस तरकीब के से वह सोमनाथ की पैदल यात्रा पर निकला। सोमनाथ से जयसिंह बारे में सूचित किया गया। उसने अपनी सेना को दक्षिण दरवाजे की रेवतक' पहाड़ पर गया तथा बाइसवें तीर्थंकर 'नेमिनाथ' की आदर
ओर लगाया तथा महंत शामला द्वारा निर्देशित एक विशालकाय सहित पूजा की।४६ तत्पश्चात् वह 'शत्रुञ्जय' गया तथा वहाँ पर उसने हाथी 'यश: पतल' की मदद से लोहे की मजबूत काँटेदार छडों से 'नभेय' प्रथम तीर्थंकर की पूजा अर्चना की।४७ शत्रुजय के पास उसने निर्मित दरवाजे को तोड़ने में सफलता प्राप्त की। तदुपरान्त सभी 'सिंहपुर' (अर्वाचीन-सिहोर) नामक एक नगरी बसाई तथा अन्य गाँवों दरवाजों को खोल दिया गया। किन्तु इस प्रयास में उक्त हाथी सहित इसे भी दान में दे दिया। ४८ वि.सं. ११९१ के एक जैन ग्रंथ घटनास्थल पर ही वीरगति को प्राप्त कर गया। इस घटना से द्रवित के अनुसार, जैन धर्म से प्रभावित होकर उसने एकादशी वगैरह होकर उस हाथी की स्मृति में राजाज्ञा से गणपति के एक भव्य मंदिर कतिपय दिवसों पर जीवहत्या को बंद करा दिया था।४९ का निर्माण ग्राम वाडसर में करवाया गया। जयसिंह ने यशोवर्मन जयसिंह द्वारा सौराष्ट्र के प्रबंधन हेतु 'सज्जन' को को बंदी बनाया. धार में अपना प्रभत्व कायम किया और अंत में महामण्डलेश्वर अथवा राज्यपाल नियुक्त किया गया था। यह पाटण की ओर लौट गया....... ४१ उपर्यक्त वर्णन से हम इस सज्जन जैन धर्म का परम भक्त था। 'विविध तीर्थ कल्प' के संभावना को नहीं नकार सकते कि जयसिंह के सिक्कों में इसी हाथी अनुसार सज्जन ने वि०सं० ११८५ (ई० ११२९) में गिरनार को दर्शाया गया था जो राजा को अत्यधिक प्रिय था। इस सम्भावना
के पहाड़ पर 'नेमिनाथ भगवान' का एक मंदिर बनवाया था।" को इस तथ्य से और भी बल मिलता है कि ये सिक्के मालवा क्षेत्र
'रेवत गिरीरासो' भी इस तथ्य की पुष्टि करता है।५१ 'प्रभावक तथा विशेषकर धार अंचल में बहलता से पाए जाते हैं। तत्कालीन चरित' से ज्ञात होता है कि सौराष्ट्र नौ वर्षों तक सज्जन के अधीन समय के अन्य सिक्कों के बारे में हमें जैन ग्रन्थों से जानकारी तो
रहा।५२ प्रबन्ध चिन्तामणि के मतानुसार सज्जन ने तीन वर्षों की मिलती है परन्तु जयसिंह के अन्य सिक्के अभी तक प्रकाश में नहीं
राजकीय आय को इस मन्दिर के निर्माण में व्यय किया था।५३ बाद
राजका आए हैं। हेमचन्द्र ने अपने ग्रंथ 'देव्याश्रय काव्य' में कतिपय सिक्कों ।
में यही सज्जन 'कुमारपाल' के समय में भी 'दण्डनायक' नियुक्त का उल्लेख किया है। छोटे सिक्कों में उन्होंने 'सुरपा' नामक सिक्के
किए गए। इसका प्रमाण हमें दिगम्बर लेखक रामकीर्ति द्वारा का उल्लेख किया है।४२ उनके अनुसार एक पुष्पहार की कीमत दो
हो सीतोगढ़ में लिखित काव्य से मिलता है।५४
सा सुरपा के बराबर थी। उन्होंने 'प्रस्थ' और 'भंगिका' नामक दो अन्य
एक हस्तलिखित जैन ग्रन्थ के अनुसार वि०सं० ११७९ सिक्कों का भी उल्लेख किया है। 'भंगिका' अनुपान में आधे रुपये।
(ई० ११२३) में 'आशुका' को अपना मुख्यमंत्री बनाया था। वह के बराबर था।४३ महंगी स्वर्ण मुद्राओं के विषय में भी जैन ग्रंथों ने
जैनधर्म का अनुयायी था। जयसिंह ने उन्हीं के परामर्श से शत्रुञ्जय प्रकाश डाला है। एक स्वर्ण मुद्रा तो २० अथवा ४० रुपये के
की तीर्थ यात्रा सम्पन्न की थी।५५ प्रभावक चरित' और 'मुद्रिता बराबर थी। लगता है वह मात्रा में अत्यधिक वजन की होगी। अन्य कु:
कुमुद चंद्र' के अनुसार आशुका दिगम्बर मुनि कुमुदचन्द्र और स्वर्ण मुद्राओं में 'निस्क', 'विस्ट' और 'पाल' का नाम प्रमुख है।
- देवसूरि के शास्त्रार्थ में भी उपस्थित रहे थे।५६ प्रत्येक सेना का भी अपना मांगलिक चिह्न युक्त ध्वज होता था।
वि०सं० ११९१ (ई० ११३५) के एक ग्रंथ से जानकारी जयसिंह सिद्धराज के ध्वज में 'ताम्रचूड़ा' नामक सिक्कों में कहीं
मिलती है कि महात्मा गांगला जयसिंह के राज्य में राजकीय कार्यो
के कर्ता थे। ये भी जैनधर्म के अनुयायी थे तथा कुमुदचंद्र और नहीं मुद्रित किया गया। यद्यपि जयसिंह का पारिवारिक धर्म शैव था किन्तु उसका अन्य
देवसूरि के मध्य जो शास्त्रार्थ हुआ उसमें वे भी उपस्थित थे।५७ यह धर्मों के प्रति भी समान रुझान था। जैन धर्म से तो वह अत्यधिक ही
शास्त्रार्थ वि०सं० १०८१ में हुआ था और उस समय गांगाल न्याय्यता अभिलेखन के प्रभारी थे।
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्वत खण्ड/५३
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सिद्धराज जयसिंह ने पाटण को ज्ञान का मंदिर बना दिया था। जैन साधुओं ने जिस धार्मिक उत्साह से अपने हस्तलिखित साहित्य को प्रणीत एवं संग्रहीत किया वह अनहिलपट्टन की बौद्धिक त्वरितता की छवि को और भी अधिक उजागर करती है। हेमचन्द्राचार्य ने भी पाटण के धार्मिक और शैक्षणिक जीवन के बारे में अपनी कृतियों में प्रकाश डाला है। जैनधर्म के चैत्र गच्छीय महान संत हेमचन्द्र का बहुत ही गहरा असर जयसिंह सिद्धराज पर था। सर्वप्रथम वे राजपुरोहित बनाए गए। तत्पश्चात् उन्हें राजकीय इतिहासकार बनाया गया। वे जयसिंह के नैतिक एवं धार्मिक मार्गदर्शक भी थे। तत्कालीन समय के राजकीय इतिहास लेखक होने के नाते हेमचन्द्र ने जयसिंह के समृद्धशाली राज्य के विषय में अपने 'देव्याश्रय' काव्य में विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की है। इस साहित्यिक प्रबन्ध में जयसिंह और हेमचन्द्राचार्य के आपसी मैत्री सम्बन्धों के बारे में भी बहुत सारे उपाख्यानों को उद्धृत किया गया है। उन्होंने राजा जयसिंह के कहने पर बहुत सारे ग्रंथों का सृजन किया जिसमें 'सिद्ध हेम व्याकरण', 'कुमार पाल चरित' प्राकृत 'देव्याश्रय महा काव्य', 'लघवरहन नीति शास्त्र' प्राकृत 'वृहद् अर्हन नीति शास्त्र', 'चंगेनुशासन' आदि प्रमुख हैं।
इस प्रकार 'वागभट्टलंकार' के जैन साहित्यकार 'वागभट्ट' भी राजा के विशेष कृपापात्र थे। इस ग्रंथ के टीकाकार वागभट्ट को सोम का पुत्र बतलाते हैं। 'प्रभावक चरित' के अनुसार उन्होंने एक जैन मन्दिर भी वि० सं० १९७८ में बनवाया था । ५८
जयमंगलाचार्य जो 'कवि शिक्षा' के रचयिता थे तथा वर्धमान सूरि जिन्होंने व्याकरण पर 'गण रतन महोदधि' नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया था ऐसे जैन साहित्यकार हुए हैं जो जयसिंह के राज्यकाल में फलवित हुए।
जैनधर्म के सम्पर्क एवं प्रभाव से जयसिंह के हृदय में करुणा का सागर आलोड़ित होने लगा था और यही कारण रहा कि उसने युद्ध में भी प्रतिपक्षिय राजाओं को आक्रान्त करने के पश्चात् भी रिद्ध ही नहीं किया वरन् अपनी पुत्रियों के संग विवाह भी करवाया। अजमेर के राजा अर्णोराज इसका ज्वलन्त उदाहरण है। युद्ध में हराकर भी उसने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ करवा दिया।१९ पृथ्वीराज विजय के अनुसार उसकी पुत्री का नाम कंचनदेवी था। इसी प्रकार 'प्रबंध चिन्तामणि' से हमें जानकारी मिलती है कि उसने युद्ध में पराजित किए हुए सपादलक्ष के आनाका राजा को न केवल सपादलक्ष ही लौटा दिया अपितु लाखों रुपये भी साथ में दिए। ६०
वि०सं० १९९९ में किराडू के परमार राजा सोमेस्वर की सहायता कर जयसिंह ने उसे अपना खोया राज्य पुनः दिलवाया।
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उसने 'बहूलोढ़ा' नामक एक कर' भी अपनी प्रजा की भलाई के लिए हटा दिया। इससे राज्य को ७२ लाख रुपये का राजस्व प्राप्त होता था जयसिंह अपनी प्रजा की पुकार को हमेशा सुनता था जो उसकी अच्छी शासन व्यवस्था का परिचायक है। नगर रक्षा के लिए उसने कोतवाल अथवा नगर संरक्षक का पद बनाया था। अनहिल पुरा के तत्कालीन कोतवाल जैन अनुयायी जयदेव थे। इसी प्रकार 'वाग् भट्टलंकार' के रचियता जैन वागू भट्ट भी जयसिंह के राज्य मंत्री थे। ११
जयसिंह सिद्धराज अपने जीवन के उत्तरार्द्ध काल में जैनधर्म से इतना प्रभावित हो गया था कि उसने अपने अन्तिम समय में जैन विधि से समाधि पूर्वक अनशन की अवस्था में पाण्डित्यपूर्ण मृत्यु को वरण किया। श्रीचंद्रसूरि कृत प्राकृत जैन रचना 'मुनि सुव्रत स्वामी चरित' के प्रत्यक्षदर्शी वर्णन के अनुसार भी जयसिंह ने संथारा करके उपवास में मृत्यु का वरण किया । ६२
सन्दर्भ
१. देव्याश्रयकाव्य, खण्डकाव्य प्रथम, गाथा ४ : पुरं श्रिया सदाश्लिष्टं नाम्नापहिलपाटकम् ।
२. वही, खण्ड काव्य, नवम, गाथा ९९-१०० और १५३ ३. सिंघी जैन ग्रन्थमाला, पुरातन प्रबन्ध संग्रह, पृष्ठ ३५ "अष्ट वार्षिक एव स सान्तमंत्रिणा गुण श्रेणि नीतः।"
४. वही, प्रबन्ध चिन्तामणि, पृष्ठ ५५
"सं० ११५० वर्षे पौष वदि ३ रानौ श्रवणनक्षत्रे वृषलग्ने श्र सिद्धराजस्य पट्टाभिषेकः "
५. वही, पृष्ठ ७६
[सं०] ११५० पूर्व श्री सिद्धराज जयसिंहदेवेन वर्ष ४९ राज्यं कृतम्। " ६. 'जैन साहित्य संशोधक,' खंड द्वय, सर्ग ४, पृष्ठ ९
७.
आइने अकबरी, ब्लोयमेन एवं जनारेट द्वारा अनुवादित, भाग-२, पृष्ठ २६०
८. 'एपिग्राफिया इंडिका', खण्ड ११, पृष्ठ ३२-३३ ९. सिंघी जैन ग्रन्थमाला, प्रबन्ध चिन्तामणि, पृष्ठ ५५
"स्वयं तु आशापल्ली नवासिनमाशाभिधानं भिल्लम भिषेणयन्... कर्णावलीपुरं निवेश्य स्वयं तत्र राज्य चकार.....
१०. डायनेस्टिक हिस्ट्री ऑफ नॉरदर्न इंडिया, भाग २, लेखक एच०सी० राय, कलकत्ता, पृष्ठ ९६६ • ११. वही १२. 'एपिग्राफिया इंडिका' खण्ड ९, पृष्ठ ७६-७७, "श्री आशाराजनामा समजनि वसुधानायकस्तम्य बन्धुः ।
सर्ग २६
साहाय्यं मालवानां भुवि यदसि कृतं वक्ष्यसिद्धाधिराजः ।। " 'एपिग्राफिया इंडिका', खण्ड १, पृष्ठ २९३, उद्धरण ५ (२) सिंधी जैन ग्रन्थमाला, जैन पुस्तक प्रशस्ति- 'संग्ह' पृष्ठ १०१ वही, पृष्ठ ६५
१३.
१४.
१५.
१६.
'पुरातत्व (गुजराती)', खण्ड ४, पृष्ठ ६७ "अजयत् सिद्धासौराष्ट्रन..."
शिक्षा एक यशस्वी दशक
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१७. खण्ड काव्य - द्वितीय, गाथा २५
३८. 'भारत के पूर्व कालिक सिक्के' - डॉ० परमेश्वरीलाल गुप्त, १८. सिंधी जैन ग्रन्थमाला, विविध तीर्थ-कल्प, पृष्ठ ९
. . पृष्ठ २९६.३९. वही' – पृष्ठ २९६ १९. सिंधी जैन ग्रंथमाला, पुरातन प्रबंध संभ्रट पृष्ठ ३४-३५ ४०. 'देव्याश्रय काव्य' सर्ग १४ २०. वही - विविध-तीर्थ-कल्प, पृष्ठ ९
४१. "सिंधी जैन ग्रंथमाला; प्रबन्ध चिन्तामणि", पृष्ठ ५८-५९ : 'पुब्विगुर्जर धाराए जयसिंहदेवेण खंगाररायं हणित्ता सज्जणो "नृपतिः प्रयाणाम करोत्। तत्र जयकारपूर्वकं द्वादशवार्षिके विग्रहे दण्डाहिवो ठाविओ।'
संजायमाने सति कथंचित् धारादुर्ग भंगं कर्तुमप्रभूष्णुः अत्र मया २१. 'इण्डियन एंटीक्वेरी', भाग १०, पृष्ठ १५८-६०
धारा भंगान्तरं भोक्तव्य मितिकृत प्रतिज्ञो दिनान्तेऽपि "श्री जयसिंहदेवोऽस्ति भूपो गुर्जरमण्डले।
कर्तुमक्षमतया सचिवैः काणिक्यां धारायां भज्यमानायां पत्रिभिः येन कारागृहे क्षिप्तौ सुराष्ट्रमालवेश्वरौ ।।"
परमार पुत्रे विपद्यमाने-इत्थं प्रपश्चात नृपः प्रतिज्ञामापूर्य २२. 'सिद्धो बर्बरकश्चास्य सिद्धराजस्ततोऽभवत्।' जिन मंडन रचित अकृतकृत्यया पश्चाद्व्याधुटितुमिच्छुर्मुञ्जाल सचिवं ज्ञापयामास... 'कुमारपाल प्रबन्ध' से। ...
दुर्ग विमृश्य यश: पटहनाम्नि बलवति दन्तावले समभिरूढ़:... २३. 'आक्रियोलोजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया-एनुअल रिपोर्ट', सगजः पृथिव्यां पपात । सगज: सुभटतया तदा विपद्य १९२१, पृष्ठ ५४-५५
बहुसरग्रामे.....यशोधवलनामा विनायकरूपेणावततार,. २४. अध्याय ४, गाथा १२५ "येन नक्तंचर: सोऽपि युद्धे बर्बर को ४२. 'देव्याश्रय काव्य' - खंडा १७, गाथा ४८ जितः ।"
४३. 'वही' - खंड ५,गाथा ९४ और १०० २५. अध्याय ४, गाथा १२९
४४. वही' - खंड ४, गाथा ४५, खंड १७, गाथा ८३-८४ २६. 'इण्डियन एण्टीक्वेरी,' भाग १०, पृष्ठ १५८, तल २ . ४५. 'वही' - गाथा १६-१७.४६. 'वही' - गाथा ६१-८८ "अन्येऽप्युत्सादिता येन सिन्धुराजादयो नृपाः ।"
४७. 'वही' - गाथा ८९-९५,४८. 'वही' - गाथा ९७-९८ २७. सिंधी जैन ग्रन्थमाला - प्रबन्ध चिन्तामणि - पृष्ठ ४७६ ४९.. 'विजयसिंह रचित धर्मोपदेशमाला' : २८. 'इण्डियन एन्टीक्वेरी', १९२९, पृष्ठ २३४-२३६
“यस्योपदेशादखिला च देशे सिद्धाधिपः श्री जयसिंहदेवः । २९. 'कुमारपाल प्रबन्ध,' पृष्ठ ७
एकादशी मुख्यदिनेश्च मारिमकारयच्छा सन दान पूर्वाम् ।" ३०. 'राजपूताना म्यूजियम रिपोर्ट', १९१५, पृष्ठ-२
५०. 'सिंधी जैन ग्रन्थमाला - विविध तीर्थ कल्प', पृष्ठ ९ ३१. 'सिंधी जैन ग्रन्थमाला' - प्रबन्ध चिन्तामणि, पृष्ठ-७३ ५१. 'रेवन्तगिरी-रासु, काडवका', सर्ग १, गाथा ९ ३२. वही, 'जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, पृष्ठ-९९
"इक्कारसह सहीउ पंचासीयवच्छरि नेमि भयणु उद्धरिउ साजणि "मंगलं महाश्रीः । सं० ११५७ आषाढ़ वदि षष्ट्या शुक्र दिने श्री नरसेहरि ।" जयसिंहदेवविजयराज्ये श्री भृगकच्छनिवासिना जिनचरणाराधन- ५२. 'सिंधी जैन ग्रन्थमाला - प्रभावक चरित', पृष्ठ १९५, गाथा ३३३ तत्परेण.....निशीथचूर्णिपुस्तकं लिखितम् ।"
"अद्य प्राग्नवमे वर्षे स्वामिनाधिकृतः कृतः । ३३. 'केटलॉग ऑफ द मेनूस्क्रिप्ट फ्रॉम जैसलमेर', पृष्ठ-४५, पाद .
भारुरोह गिरि जीर्णमद्राक्षं च जिनालयम् ।।" संदर्भ-३
५३. 'वही'- प्रबन्ध चिन्तामणि, पृष्ठ ६४ : 'विक्कमनिवकालाउ सएसु एक्कारसेषु सट्टेषु। सिरि
"तेन स्वामिनमविज्ञाप्यैव बर्षत्रयोद्राहितेन श्रीमदुर्जयन्तेश्रीनेमीश्वरस्य जयसिंहनरिन्दे रज्जं परिपालयं तम्मि....
काष्टमयं प्रासादमपनीय नूतन : शैलमय: मासाद: कारितः।" ३४. "सिंधी जैन ग्रन्थमाला - जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह'-पृष्ठ१०० ५४. एपग्राफया झाडका, भाग २, पृष्ठ ४२२ ३५. वही - पृष्ठ १००
५५. 'जैन साहित्यनो इतिहास', पृष्ठ २४७ "११६६ पोष वदि २ मंगलदिने महाराजाधिराजत्रैलोक्यगंड श्री।
५६. 'सींधी जैन ग्रन्थमाला - प्रभावक चरित,' देवसूरि, पृष्ठ १८१, जयसिंहदेव विजयराज्ये....."
गाथा २७०.५७. 'वही', देवसूरि, माथा १७२ ३६. 'वही' - पृष्ठ ६५, सं० ११७९ फागुण वदि १२ खौ ५८. 'वही', पृष्ठ १७३, गाथा ६७-७३ 'बड़ी देवसूरि चरितम्' के
समस्तराजावलि महाराजधिराज श्रीमत् त्रिभुवनगण्ड श्री . अन्तर्गत.५९. खण्डकाव्य २,गाथा २७-२९, पृष्ठ २ जयसिंघदेवकल्याणविजयराज्ये.....सन्तकप्रतिपत्तौ ।
६०. सिंधी जैन ग्रन्थमाला - प्रबन्ध चिन्तामणि'. पृष्ठ ७६ ३७. 'वही', पृष्ठ १०१ : सं० ११७९ भाद्रपद वाद..अघेह श्रीमदण-
"सपादलक्ष: सह भूरिलक्षैरानाक भूपाय नताय दत्तः ।" हिलापाटकाभिधान. राजधान्यां समस्तनिजराजावलीसमलंकत ६१. 'काव्यमाला' भाग ४८. पृष्ठ १४८ महाराजधिराज-परमेश्वर-त्रिभवनगंड श्री सिद्धचक्रवर्ति श्रीमज्ज- ६२. 'गायकवाड्स ओरियण्टल सीरीज',७६, हस्तलिखित ग्रंथ. जयसिंहदेव कल्याण विजयराज्ये श्री श्रीकरणे महामात्य श्री पाटण, पृष्ठ ३१४-३२२ आशक: सकलव्यापारान करोति ।
. "अह सग्गचालीस दिणाई पालिऊणं समाहिणाणसणं । धम्मझाणपरायणचिन्तो जो परभवं पत्तो ।।"
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्वत खण्ड/५५
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________________ 10. . जय सिंह सिद्धराज की प्राप्य ताम, रजन एवं स्वर्ण सिक्कों की निखात श्री म (द) (ज) य सिंह प्रिय जय सिं ह प्रि (य) श्री मद (ज) य सि (ह) प्रिय (ज) य सि (ह) प्रिय XX (ज) य सि (ह) प्रिय XX (श्री) मद x सिंह (प्रिय) (ज) य सिंह . प्रिय श्री म (द्) (ज) य सिंह प्रिय श्री म (द) जय सि (ह) प्रिय श्रीमद (ज) य सिंह xx श्री म (द) जय सि (ह) प्रिय 15. श्री म (द) जय सिं XX श्री म (द) जय सि (ह) प्रिय (श्री मद ज) य सिंह प्रिय श्री मद (ज) य सिंह XX श्री म (द) जय सिं (ह) श्री म (द) जय सि () XXX प्रिय xx जय सिं (ह) प्रिय विद्वत खण्ड/५६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक