Book Title: Jain Dharm me Vaigyanikta ke Tattva Author(s): Nandlal Jain Publisher: Z_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf View full book textPage 2
________________ । स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ उपयोगितावादी स्वरूप प्रदर्शित कर प्रतिष्ठा स्थापित की है, धर्मज्ञों ने अपने यथास्थितिवादी स्वरूप को प्रतिष्ठित रखने में समर्थता नहीं दिखा पाये । आधुनिक शब्दावली में धर्मज्ञों की धर्म-विपणन-क्षमता वैज्ञानिकों के समकक्ष सिद्ध नहीं हुई। उनके अमूर्त तत्त्वों के उद्देश्यों ने सांस्कृतिक इतिहास अवश्य बनाया पर वे मानव को मूर्त जगत से निर्मोही न बना सके। उनके उपदेशों की दिशाएं वास्तविक जीवन की दिशा से प्रतिकूल लगी। इसलिए उपरोक्त संदेह को बल ही मिलता रहा। पर क्या धर्म सचमुच ही अवैज्ञानिक है ? क्या उसमें वैज्ञानिकता के तत्त्व नहीं है ? इस विषय में हम यहां केवल जैन-धर्म के सम्बन्ध में ही इन प्रश्नों की चर्चा करेंगे। भारतीयों ने विद्या की एक ही देवी सरस्वती मानी है। इसका अर्थ यह है कि वे जगत के दो अस्तित्वों - दृश्य और अदृश्य अथवा भौतिक एवं अध्यात्म को एक ही चेतना-वृक्ष की दो टहनिया मानते हैं। पश्चिम ने भी स्वीकार किया है कि धर्म और विज्ञान -- ये दोनों ही मानव की महत्तर मानसिक प्रवृत्तियां हैं। ये दोनों दुहिता-तंत्र है। ये एक दूसरे के अंतर्वेशन या बहिर्वेशन मात्र हैं। दोनों में ही अंतःप्रज्ञा की क्षणदीप्ति या दीर्घदीप्ति काम करती है। एक ही स्त्रोत से जन्म लेने के कारण इनका उद्देश्य एवं कार्यपद्धति भी एक समान है-प्राणीमात्र के अभ्युदय एवं निश्रेयस के लिए त्रिकालाबाधित सत्य मार्ग की खोज और तदनुरूप प्रवृत्ति। विभिन्न धर्मो ने एतदर्थ समग्र जीवन पद्धति और जीवन तंत्र को ही अपना विषय बनाया। इसके अंतर्गत क्रियाकांडों के अनुसरण एवं श्रद्धावाद की स्वीकृति के युग आये। इनमें यथास्थितिवाद को पोषण मिला। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह प्रवृत्ति वैज्ञानिक की निरंतर प्रवाहशील प्रक्रिया के अनुरूप नहीं लगती। फिर भी धर्मज्ञों की स्वानुभूति, अन्तर्दृष्टि एवं प्रतिभाज्ञान की अचरजकारी एवं सम्भावित उपलब्धियों के परिप्रेक्ष्य में विज्ञान को द्वितीयक स्तर के रूप में ही प्रतिष्ठित किया। साथ ही यह मान्यता भी बनी कि प्रत्येक धर्म के केन्द्र में कुछ ऐसा अवश्य है जो उसे बुद्धिवाद का उपयोग नहीं करने देता। कालांतर में दार्शनिक या बुद्धिवाद प्रधान एवं वर्तमान प्रयोग प्रधान युग में धर्म एवं विज्ञान के क्षेत्र पृथक होते से प्रतीत हुए। धर्म जहां नैतिक आचार विचारों एवं अभौतिक तत्त्व समूह का प्रधान उदघोषक बना, वहीं विज्ञान भौतिक जगत का प्रधान वाटक बना। इस तथ्य को अनेक विद्वान व्यक्त करने लगे हैं। उन्होंने तो यहां तक कहा है कि भौतिक जगत सम्बन्धी अनेक घटनाएं या उनकी व्याख्या धर्म के अंग के रूप में नहीं Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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