Book Title: Jain Dharm me Vaigyanikta ke Tattva
Author(s): Nandlal Jain
Publisher: Z_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf

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Page 7
________________ दर्शन दिग्दर्शन धार्मिकता की वृद्धि का प्रतीक माना जाना चाहिए। यदि वैज्ञानिक अन्वेषण कार्मिक क्षयोपशम में वृद्धि कर सकते हैं तो वे हमारे कार्मिक क्षय की प्रक्रिया को भी प्रेरित कर सकते बीसवीं सदी में कर्मों के क्षयोपशम में वृद्धि : धार्मिकता में वृद्धि (१) ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम : ज्ञान के क्षितिजों में वृद्धि (कृषि, जीवविज्ञान, ज्योतिर्जगत, चिकित्सा, संश्लेषण शिल्प, सृष्टि विद्या, सजीव कोशिका संश्लेषण, अतीन्द्रिय प्रत्यक्षण, दूरबोध, परचित बोध, विचार संप्रेषण, योगज शक्तियां आदि।) (२) दर्शनावरण कर्म का क्षयोपशम : विभिन्न प्रकार के दूरदर्शी, सूक्ष्मदर्शी एवं मापनयंत्रों द्वारा इन्द्रिय एवं दर्शन के क्षितिजों में वृद्धि। (३) वेदनीय कर्म का क्षयोपशम : सुख सुविधा के साधनों में वृद्धि , भोग-भूमि कल्प, श्रमविहीन जीवन की संभावना । समाजवादी वृत्तियों में वृद्धि, प्राकृतिक विपदाओं में अन्तर्राष्ट्रीय संवेदनशीलता, दीर्घजीविता। (४) मोहनीय कर्म का क्षयोपशम : धर्म की समाजपरक व्याख्या, विभक्त परिवार प्रथा और परिवार नियोजन, धार्मिक क्रियाकलापों में निरंतर वृद्धि। (५) आयुकर्म का क्षयोपशम : दीर्घजीविता में वृद्धि, मनुष्यों की जनसंख्या में गुणोत्तर वृद्धि। गोत्रकर्म का क्षयोपशम : अनुसूचित श्रेणियों का राजनीतिक उत्परिवर्तन, सेवा एवं शिक्षा में आरक्षण, व्यवसाय विविधता के कारण उच्चतर जीवन स्तर के अधि क अवसर। (७) नामकर्म का क्षयोपशम : दुर्लभ मनुष्य गति के सदस्यों की जनसंख्या में गुणोत्तर वृद्धि। शरीर के अंगप्रत्यंगों का प्रत्यारोपण, मनोदैहिक एवं देह मानसिक विज्ञान का अभ्युदय, मनुष्यों की शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं में वृद्धि। (८) अंतराय कर्म का क्षयोपशम : व्यक्ति/समाज के विकास में अनेक बाधाओं का शासकीय एवं अशासकीय माध्यमों द्वारा निराकरण, शासन एवं धर्माचार्यो द्वारा वर्तमान संगत व्याख्याएं। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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