Book Title: Jain Dharm me Puja Vidhan evam Dharmik Anushthan
Author(s): 
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 5
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ यह बताया गया है कि पश्चिम दिशा में मुख करके दन्तधावन करें फिर पूर्वमुख हो स्नानकर श्वेत वस्त्र धारण करें और फिर पूर्वोत्तर मुख होकर जिनबिम्ब की पूजा करें। इस प्रकरण में अन्य दिशाओं और कोणों में स्थित होकर पूजा करने से क्या हानियाँ होती है, यह भी बतलाया गया है। पूजाविधि की चर्चा करते हुए यह भी बताया गया है कि प्रातः काल वासक्षेप पूजा करनी चाहिए। इसमें पूजा में जिनबिम्ब के भाल, कंठ आदि नव स्थानों पर चंदन के तिलक करने का भी उल्लेख है। इसमें यह भी बताया गया है कि मध्याह्नकाल में कुसुम से तथा संध्या को धूप और दीप से पूजा की जानी चाहिए। इसमें पूजा के लिए कीट आदि से रहित पुष्पों के ग्रहण करने का उल्लेख है। साथ-साथ यह भी बताया गया है कि पूजा के लिए पुष्प के टुकड़े करना या उन्हें छेदना निषिद्ध है। इसमे गंध, धूप, अक्षत, दीप, जल, नैवेद्य फल आदि अष्टद्रव्यों से पूजा का भी उल्लेख है । इस प्रकार यह ग्रंथ भी श्वेताम्बर जैन परम्परा की पूजापद्धति का प्राचीनतम आधार कहा जा सकता है। दिगम्बर-परम्परा में जिनसेन के महापुराण में एवं यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ति में जिनप्रतिमा की पूजा के उल्लेख है। इस समग्र चर्चा में हमें ऐसा लगता है कि जैनपरम्परा में सर्वप्रथम धार्मिक अनुष्ठान के रूप में षडावश्यकों का विकास हुआ। उन्हीं षडावश्यकों में स्तवन या स्तुति का स्थान भी था। उसी से आगे चलकर भावपूजा और द्रव्यपूजा की कल्पना सामने आई उसमें भी द्रव्यपूजा का विधान केवल श्रावकों के लिए हुआ। तत्पश्चात् चेताम्बर और दिगम्बर दोनों परंपराओं में जिन पूजा सम्बन्धी जो जटिल विधि विधानों का विस्तार हुआ, वह भी ब्राह्मण परम्परा का प्रभाव था फिर आगे चलकर जिनमंदिर के निर्माण एवं जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विधि-विधान बने। पं० फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री ज्ञानपीठ पूजांजलि की भूमिका में और स्व० डॉ० नेमिचंदजी शास्त्री ने अपने एक लेख 'पुष्पकर्म देवपूजा: विकास एवं विधि' में इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि जैन-परंपरा में पूजा- द्रव्यों का क्रमशः विकास हुआ है। यद्यपि पुष्पपूजा प्राचीनकाल से प्रचलित है फिर भी यह जैन परंपरा के आत्यन्तिक अहिंसा सिद्धान्त से मेल नहीं खाती है। एक ओर तो जैन पूजा-विधान पाठ में ऐसे हैं, जिनमें मार्ग में होने वाली एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का प्रायश्चित हो, यथा जैनधर्म का अनुष्ठानपरक जैन साहित्य अनुष्ठान सम्बन्धी विधि-विधानों को लेकर जैन परंपरा के दोनों ही सम्प्रदायों में अनेक ग्रन्थ रचे गये हैं। इनमें श्वेताम्बर- परंपरा में उमास्वाति का 'पूजाविधिप्रकरण', पादलिप्तसूरि की 'निर्वाणकलिका' अपरनाम 'प्रतिष्ठा विधान' एवं हरिभद्रसूरि का 'पंचाशकप्रकरण' प्रमुख प्राचीन ग्रन्थ कहे जाते हैं। हरिभद्र के १९ पंचाशकों में श्रावकधर्म पंचाशक, दीक्षा पंचाशक, वंदन पंचाशक, पूजा पंचाशक (इसमें विस्तार से जिनपूजा का उल्लेख है), प्रत्याख्यान पंचाशक, स्तवन पंचाशक, जिनभवननिर्माण पंचाशक, जिनबिम्बप्रतिष्ठा पंचाशक, जिनयात्रा विधान पंचाशक, श्रमणोपासकप्रतिमा पंचाशक, साधुधर्मपंचाशक, साधुसमाचारी पंचाशक, पिण्डविशुद्धि पंचाशक, शील-अंग पंचाशक, आलोचना पंचाशक, प्रायश्चित पंचाशक, दसकल्प पंचाशक, भिक्षुप्रतिमा पंचाशक, तप पंचाशक आदि हैं। प्रत्येक पंचाशक ५०-५० गाथाओं में अपने-अपने विषय का विवरण प्रस्तुत करता है। इस पर चन्द्रकुल के नवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरि का विवरण भी उपलब्ध है। जैन धार्मिक क्रियाओं के सम्बन्ध में एक दूसरा प्रमुख अन्य 'अनुष्ठानविधि' है। यह धनेश्वरसूरि के शिष्य चन्द्रसूरि की रचना है। यह महाराष्ट्री प्राकृत में रचित है तथा इसमें सम्यक्त्वआरोपणविधि व्रत आरोपणविधि षाण्मासिक सामायिक विधि, श्रावकप्रतिमावहनविधि, उपधानविधि, प्रकरणविधि, मालाविधि, तपविधि, आराधनाविधि प्रव्रज्याविधि उपस्थापनाविधि, केशलोचविधि, पंचप्रतिक्रमणविधि, आचार्य उपाध्यान एवं महत्तरा पदप्रदानविधि, पोषधविधि, ध्वजरोपणविधि, कलशरोपणविधि आदि के साथ आत्मरक्षा कवच एवं सकलीकरण जैसी तान्त्रिक क्रियाओं के निर्देश मिलते हैं। इस कृति के पश्चात् तिलकाचार्य की 'समाचारी' नामक कृति भी लगभग इन्हीं विषयों का विवेचन करती है। जैन कर्मकाण्डों का विवेचन करने वाले अन्य ग्रन्थों में सोमसुन्दरसूरि का 'समाचारी शतक', जिनप्रभसूरि (वि०सं० १३६३) की विधिमार्गप्रपा, वर्धमानसूरि का 'आचारदिनकर', हर्षभूषणगणि (वि०सं० १४८०) का श्राद्धविधिविनिश्चय' तथा समयसुन्दर का 'समाचारी शतक' भी महत्त्वपूर्ण है। इनके अतिरिक्त प्रतिष्ठाकल्प के नाम से अनेक लेखों की कृतियाँ हैं, जिनमें जैन परम्परा के अनुष्ठानों की चर्चा है। दिगम्बर परम्परा में धार्मिक क्रियाकाण्डों को लेकर वसुनन्दि का - 'प्रतिष्ठासारसंग्रह' (वि०सं० ११५०), आशाधर का 'जिनयज्ञकल्प' (सं० १२८५) एवं महाभिषेककल्प, सुमतिसागर का [१११] ईर्यापथे प्रचलताद्य मया प्रमादात् एकेन्द्रियप्रमुखजीवनिकाय बाधा । निदर्तिता यदि भवेव युगान्तरेक्षा, मिथ्या तदस्तु दुरितं गुरुभक्तितो मे ॥ स्मरणीय है कि श्वे० परम्परा में चैत्यवंदन में भी 'इरियाविहि विराहनाये' नामक पाठ मिलता है जिसका तात्पर्य भी चैत्यवंदन के लिए जाने में हुई एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का भी प्रायश्चित किया जाता है तो दूसरी ओर उन पूजा-विधानों में, पृथ्वी, वायु, अप अग्नि और वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का विधान है, यह एक आन्तरिक असंगति तो है ही यद्यपि यह भी सत्य है कि चौथी पाँचवीं । Jain Education International जैन साधना एवं आचार शताब्दी से ही जैन ग्रंथों में इसका समर्थन देखा जाता है । सम्भवत: ईसा की छठी सातवीं शती तक जैन धर्म में पूजा-प्रतिष्ठा सम्बन्धी अनेक कर्मकाण्डों का प्रवेश हो गया था। यही कारण है कि आठवीं शती में हरिभद्र को इनमें कर्मकाण्डों का मुनियों के लिए निषेध करना पड़ा। ज्ञातव्य है कि हरिभद्र ने सम्बोधप्रकरण के कुगुरु अधिकार में चैत्यों में निवास, जिन प्रतिमा की द्रव्यपूजा, जिन प्रतिमा के समक्ष नृत्य, गान, नाटक आदि का जैन मुनि के लिए निषेध किया है। यद्यपि पंचाशक में उन्होंने इन पूजा-विधानों को गृहस्थ के लिए करणीय माना है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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