Book Title: Jain Dharm me Puja Vidhan evam Dharmik Anushthan
Author(s): 
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 10
________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारसर्वार्थसिद्धिव्रत, धर्मचक्रव्रत, नवनिधिव्रत, कर्मचूखत, सुखसम्पत्तिव्रत, 4. मूलाचार, वट्टकेराचार्य, प्रा०- भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, इष्टासिद्धिकारकनिःशल्य अष्टमीव्रत आदि इनके अतिरिक्त दिगम्बर-परम्परा 1984-1992. में पंचकल्याण बिम्बप्रतिष्ठा, वेदीप्रतिष्ठा एवं सिद्धचक्र-विधान, इन्द्रध्वज- 5. आवश्यकनियुक्ति, भद्रबाहु, प्रका०, आगमोदय समिति, वी०नि०सं० विधान, समवसरण-विधान, ढाई-द्वीप-विधान, त्रिलोक-विधान, वृहद् 2454, 1220-26, 156-61. चारित्रशुद्धि-विधान, महामस्तकाभिषेक आदि ऐसे प्रमुख अनुष्ठान है जो 6. रयणसार, संपा०-डा. देवेन्द्र कुमार शास्त्री, प्रका०- श्री वीरनिर्वाण कि वृहद् स्तर पर मनाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त पद्मावती आदि देवियों ग्रंथ प्रकाशन समिति, इन्दौर, वी०नि०सं० 2590. एवं विभिन्न यक्षों, क्षेत्रपालों-भैरवों आदि के भी पूजा-विधान जैन-परम्परा 7. भारतीय संस्कृत के विकास में जैन-वाङ्गमय का अवदान, डॉ० में प्रचलित हैं। जिन पर तन्त्र-परम्परा का स्पष्ट प्रभाव है। नेमिचन्द शास्त्री, प्रका०- अ०भा० जैन विद्वत् परिषद्, सागर मन्दिरनिर्माण तथा जिनबिम्बप्रतिष्ठा के सम्बन्ध में जो भी 1982, पृष्ठ-३८७। अनेक जटिल विधि-विधानों की व्यवस्था जैन-संघ में आई है और इस 8. वरांगचरित, संपा०, ए०एन० उपाध्ये, माणिकचंद दिग० सम्बन्ध में प्रतिष्ठाविधि, प्रतिष्ठातिलक या प्रतिष्ठाकल्प आदि अनेक जैन ग्रंथमाला समिति, मुम्बई वि०सं०१९८४, २३/६१ग्रंथों की रचना हुई है वे सभी हिन्दू तान्त्रिक परम्परा से प्रभावित हैं। वस्तुतः सम्पूर्ण जैन-परम्परा में मृत और जीवित अनेक अनुष्ठानों पर 9. पद्मपुराण, संपा०- पन्नालाल जैन, प्रका० भारतीय ज्ञानपीठ काशी, किसी न किसी रूप में तन्त्र का प्रभाव है जिनका समग्र तुलनात्मक एवं 1944, 10/89 समीक्षात्मक विवरण तो किसी विशालकाय ग्रंथ में ही दिया जा सकता 10. वशंगचरित, संपा०- एम०एन० उपाध्ये, प्रका०- माणिकचंद है। अत: इस विवेचन को यही विराम देते हैं। दिगम्बर जैन ग्रंथमाला समिति, मुंबई, वि०सं० 1984,23/ सन्दर्भ 1. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन प्रकाशन, 11. राजप्रश्नीयसूत्र, संपा०- मधुकरमुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन आगरा, 1972, 12/40-44. समिति, ब्यावर, 1982, 200 2. वही, 12/46 12. भैरवपद्यावतीकल्प, संपा० प्रो० के०बी० अभ्यंकर 3. गीता, संपा०- डब्ल्यू, डी०पी०, आक्सफोर्ड, 1953, 4) 13. वही, परिशिष्ट-२५, पृष्ठ 102-103. 26-33 నారురురురురురురువారం సా యంతరకరసారంగపాలు Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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