Book Title: Jain Dharm me Puja Vidhan evam Dharmik Anushthan Author(s): Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 8
________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ- जैन साधना एवं आचार प्रयोजनभेद से इसका स्वरूप बदलता भी है। जैसे: ॐ ह्रीं अहं परमात्मने अन्तरायकर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय जलं वषामहे स्वाहा। ॐ ह्रीं ॐ परमात्मने अनन्तान्तज्ञानशक्तये श्री समकित व्रतदृढ करणाय / प्राणातिपातविरमणव्रतग्रहणाय जलं यजामहे स्वाहा। इसी प्रकार अष्टद्रव्यों के समर्पण में भी प्रयोजन की भिन्नता परिलक्षित होती है: ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशाय जलं निर्वापमिति स्वाहा। ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय भवतापविनाशाय चंदनं निर्वापमिति स्वाहा। 36 ह्रीं श्री जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वापमिति स्वाहा। ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वापमिति स्वाहा। ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वापमिति स्वाहा। ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वापमिति स्वाहा। ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वापमिति स्वाहा । इन पूजा मन्त्रों से यह सिद्ध होता है कि जैन परम्परा से इन सभी पूजा-विधानों का अन्तिम प्रयोजन तो आध्यात्मिक विशुद्धि ही माना गया है। यह माना गया है कि जलपूजा आत्मविशुद्धि के लिए की जाती है। चन्दनपूजा का प्रयोजन कषायरूपी अग्नि को शान्त करना अथवा समभाव में अवस्थित होना है। पुष्पपूजा का प्रयोजन अन्तःकरण में सद्भावों का जागरण है धूपपूजा कर्मरूपी इन्धन को जलाने के लिये है, तो दीपपूजा का प्रयोजन ज्ञान के प्रकाश को प्रकट करना है। अक्षतपूजा का तात्पर्य अक्षतों के समान कर्म के आवरण से रहित अर्थात् निरावरण होकर अक्षय पद प्राप्त करना है। नैवेद्यपूजा का तात्पर्य चित्त में आकांक्षाओं और इच्छाओं की समाप्ति है। इसी प्रकार फलपूजा मोक्षरूपी फल की प्राप्ति के लिये की जाती है। इस प्रकार जैन-पूजा की विधि में और हिन्दूभक्तिमार्गीय और तांत्रिकपूजा विधियों में बहुत कुछ समरूपता होते हुए भी उनके प्रयोजन भिन्न रूप में माने गये है। जहाँ सामान्यतया हिन्दू एवं तांत्रिकपूजा-विधियों का प्रयोजन इष्टदेवता को प्रसन्न कर उसकी कृपा से अपने लौकिक संकटों का निराकरण करना रहा है। यहाँ जैन पूजा-विधानों का प्रयोजन जन्म-मरण रूप संसार से विमुक्ति ही रहा। दूसरे, इनमें पूज्य से कृपा की कोई आकांक्षा भी नहीं होती है मात्र अपनी आत्मविशुद्धि की आकांक्षा की अभिव्यक्ति होती है, क्योंकि दैवीयकृपा (grace of God) का सिद्धान्त जैनों के कर्म सिद्धान्त के विरोध में जाता है। जैन पूजा-विधान और लौकिक एवं नैतिक मंगल की कामना यहाँ भी ज्ञातव्य है कि तीर्थंकरों की पूजा-उपासना में तो यह आत्मविशुद्धिप्रधान जीवनदृष्टि कायम रही, किन्तु जिनशासन के रक्षक देवों की पूजा - उपसना में लौकिकमंगल और भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति की कामना किसी न किसी रूप में जैनों में भी आ गई। इस कथन की पुष्टि भैरवपद्यावती कल्प में पद्मावती के निम्न मन्त्र से होती है १२ Jain Education International विविधदुःखविनाशी दुष्टदापाशी कलिमलभवशाली भव्यजीवकृपाली । असुरमदनिवारी देवनागेन्द्रनारी जिनमुनिपदसेव्यं ब्रह्मपुण्याब्धिपूज्यम् ॥ ११ ॥ ॐ ह्रीं मनरूपा विश्वहरणायै सकलजन हितकारिकायै श्री पद्मावत्यै जयमालार्थं निर्वापामीति स्वाहा । लक्ष्मीसौभाग्यकरा जगत्सुखकरा बन्ध्यापि पुत्रार्पिता नानारोगविनाशिनी अपहरा (त्रि) कृपाजने रक्षिका । खानां धनदायिका सुफलदा वाञ्छार्थिचिन्तामणिः त्रैलोक्याधिपतिर्भवार्णवत्राता पद्मावती पातु वः ।। १२ ।। इत्पाशीर्वादः स्वस्तिकल्याणभद्रस्तु क्षेमकल्याणमस्तु वः । यावच्चन्द्रदिवानाथौ तावत् पद्मावतीपूजा ॥ १३ ॥ ये जनाः पूजन्ति पूजां पद्मावती जिनान्विता । ते जनाः सुखमायान्ति यावन्मेरुर्जिनालयः ।।१४।। प्रस्तुत स्तोत्र में पद्मावती पूजन का प्रयोजन वैयक्तिक एवं लौकिक एषणाओं की पूर्ति तो है ही, इससे भी एक कदम आगे बढ़कर इसमें तन्त्र के मारण, मोहन, वशीकरण आदि षट्कर्मों की पूर्ति की आकांक्षा भी देवी से की गई है। प्रस्तुत पद्मावतीस्तोत्र का निम्न अंश इसका स्पष्ट प्रमाण है ॐ नमो भगवति ! त्रिभुवनवशंकारी सर्वाभरणभूषिते पद्यनयने! पद्मिनी पद्मप्रमे पद्मकोशिनिः पद्मवासिनि पद्महस्ते ! ह्रीं ह्रीं कुरु कुरु मम हृदयकार्यं कुरु कुरु, मम सर्वशान्तिं कुरु कुरु, मम सर्वराज्यवश्यं कुरु कुरु, सर्वलोकवश्यं कुरु कुरु, मम सर्व स्त्रीवश्यं कुरु कुरु, मम सर्वभूतपिशाचप्रेतरोषं हर हर, सर्वरोगान् छिन्द छिन्द, सर्वविघ्नान् भिन्द भिन्द, सर्वविषं छिन्द छिन्द, सर्वकुरुमृगं छिन्द छिन्द, सर्वशाकिनीं छिन्द छिन्द, श्रीपार्श्वजिनपदाम्भोजभृङ्गि नमोदत्ताय देवी नमः । ॐ ह्रीं ह्रीं हूँ हैं। हः स्वाहा। सर्वजनराज्यस्त्रीपुरुषवश्यं सर्व २ ॐ आँ काँ ऐं क्लीं ह्रीं देवि! पद्मावति । त्रिपुरकामसाधिनी दुर्जनमतिविनाशिनी त्रैलोक्यक्षेभिनी श्रीपार्श्वनाथोपसर्गहारिणी क्लीं ब्लूं मम दुष्टान् हन हन, मम सर्वकार्याणि साधय साधय हुं फट् स्वाहा। ओं क्रीं ह्रीं क्लीं ह्स पद्ये देवि! मम सर्वजगद्वश्यं कुरु कुरु, सर्वविघ्नान् नाशय नाशय, पुरक्षोभं कुरु कुरु, ह्रीं संस् ॐ औं क्रौं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं ब्लूं सः ह्यं पद्मावती सर्वपुरजनान् क्षोभय क्षोभय, मम पादयोः पातय पातय, आकर्षणी ह्रीं नमः । ॐ ह्रीं क्रीं अर्हं मम पापं फट् दह दह हन हन पच पच पाचय पाचय हं मं मां हं क्ष्वीं हंस ब्भं वंह्य यहः क्षां क्षीं क्षं क्षे क्षैक्षों क्षं क्षः क्षि ह्रीं ह्रीं हुं हे हों हीं हः हः हिं द्रां द्रि द्रावय द्रावय नमोऽर्हते भगवते श्रीमते ठः ठः मम श्रीरस्तु पुष्टिरस्तु, कल्याणमस्तु स्वाहा।। [११४] ज्वालामालिनीस्तोत्र इससे यह फलित होता है कि तान्त्रिक साधना के षट्कर्मों की For Private & Personal Use Only K www.jainelibrary.orgPage Navigation
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