Book Title: Jain Dharm me Manovidya Author(s): Ganesh Lalwani Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf View full book textPage 6
________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन मे अप्रसिद्ध पदार्थ का बोध होता है। गवय एक पशु है जो कि गाय जैसा होता है। यह बात जिन लोगों ने सुन रखी है वे गाय के सदृश पशु को देखते ही समझ जायेंगे कि यह गवय है । इस प्रकार दर्शन और स्मरण के निमित्त से होने वाला सादृश्यता का ज्ञान ही उपमान है । शुतज्ञान-सामान्यतः श्रत का अर्थ है सुना हुआ। वक्ता द्वारा प्रयुक्त शब्द को सुनकर वाच्यवाचक सम्बन्ध से श्रोता को जो शब्दबोध होता है वह श्र तज्ञान कहलाता है। इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि श्र तज्ञान के पूर्व मतिज्ञान होना अनिवार्य है। ज्ञान के द्वारा श्रोता को शब्दों का जो ज्ञान होता है, वह श्र तज्ञान है । अतः मति और श्रत ज्ञान में कार्य-कारण का सम्बन्ध है। मतिज्ञान कारण है और श्र तज्ञान कार्य । मतिज्ञान के अभाव में श्रु तज्ञान पैदा नहीं होता। यद्यपि ये दोनों ज्ञान एक साथ रहने वाले हैं, परोक्ष हैं, फिर भी उनमें भिन्नता है। मतिज्ञान मूक है, श्र तज्ञान मुखर है । मतिज्ञान वर्तमान विषय का ग्राहक है तो श्र तज्ञान त्रिकाल विषय का ग्राहक है। श्र तज्ञान से ही हमें प्राचीन इतिहास आदि का, अपनी भवितव्यता का ज्ञान होता है। अभिप्राय यह है कि इन्द्रिय-मनोजन्य दीर्घकालीन ज्ञान धारा का प्राथमिक अपरिपक्व अंश मतिज्ञान है । और उत्तरकालीन परिपक्व अंश श्र तज्ञान है । जब यह थ तज्ञान किसी को पूर्ण मात्रा में प्राप्त हो जाता है तो उसे श्रु त केवली कहते हैं। थ तज्ञान के दो भेद हैं-(१) द्रव्यश्र त (२) भावच त । भावच त ज्ञानात्मक है, द्रव्यश्र त शब्दात्मक है । द्रव्यश्र त ही आगम है। अनेक भारतीय धर्मों की भांति जैन धर्म भी आगम के प्रामाण्य को अंगीकार करता है। कोरण, जैनधर्म के अनुसार अनेकान्त दृष्टि के प्रवर्तक अखण्ड सत्य के द्रष्टा केवलज्ञानी तीर्थंकरों ने समस्त जीवों पर करुणा कर प्रवचन कुसुमों की वृष्टि की। और तीर्थंकारों के महान मेधावी गणधरों ने उन्हें अपने बुद्धिपट पर झेलकर प्रवचनमाला गूंथी। अतः जैनपरम्परा में उन प्रवचन मालाओं को आगम प्रमाण रूप में माना जाता है । तर्क थक जाता है, लक्ष्य डगमगाने लगता है, चित्त चंचल हो उठता है तब आप्त प्रणीत आगम ही मुमुक्षुजनों का एकमात्र आधार बनता है। यह आगम ही द्रव्यश्र त कहलाता है और इसके सहारे उत्पन्न होने वाला ज्ञान भावथ त है । __ मतिज्ञान की भाँति जैनाचार्यों ने श्र तज्ञान को भी लब्धि, भावना, उपयोग और नय इन चार भागों में विभाजित किया है । परन्तु वास्तव में वह विषय समूह का व्याख्यान भेद मात्र है । इस व्याख्यान प्रणाली के साथ पाश्चात्य तर्क विद्या के एक्सप्लेनेशन (explanation) का सादृश्य है। किसी वस्तु को उसके साथ सम्बन्धयुक्त वस्तु की सहायता से निर्देश करने का नाम है 'लब्धि' । उदाहरणतः जब हम गाय शब्द को सुनते हैं तो प्रथम गाय का सामान्य सा अनुभव होता है और वह भी पूर्व देखी हुई गाय के सादृश्य से । इसे ही हम लब्धि कहते हैं । तत्पश्चात् उसकी प्रकृति, स्वरूप, कार्य आदि की जो धारणा बनी हुई थी वह समक्ष आती है। इसी का नाम है 'भावना' । भावना प्रयोग कर जब गाय का अर्थ अवधारित करते हैं उसे 'उपयोग' कहा जाता है । पर 'नय' कुछ विशेष है। इसमें हम गाय शब्द के अर्थ को और भी परिष्कृत करते हैं । जैसे गो शब्द को लीजिए । 'गो' शब्द के अर्थ हैं गाय, धरती, वाक् आदि आदि । अर्थात् जो चलती है वह गो है। किन्तु गो का तात्पर्य हम गाय करते हैं तो उसका चलनारूप सामान्य धर्म को न देखकर केवल उसके विशेष धर्म दूध देने पर दृष्टि निबद्ध करते हैं। बस, यही कार्य है नय का। ख ण्ड ४/४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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