Book Title: Jain Dharm me Manovidya Author(s): Ganesh Lalwani Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf View full book textPage 1
________________ जैन धर्म में मनोविद्या गणेश ललवाणी (कलकत्ता) (धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में जाने-माने क्रान्तिकारी चिन्तक, हिन्दी-संस्कृत-बंगला-अंग्रेजी आदि अनेक भाषाविज्ञ लेखक) जीव तत्व की आलोचना करते हुए जैन मनीषियों ने मनोविद्या नामक ऐसे तत्व की आलोचना की है, विश्लेषण किया है जिसे कि आज हम 'साइकोलाजी' कहते हैं । जीव के गुणों में चेतना एवं उपयोग को प्रधान माना गया है। किन्तु चेतना क्या है ? यह समझना उतना आसान नहीं है क्योंकि यह अनुभूति का विषय है। फिर भी चेतना की अभिव्यक्ति किन-किन रूपों में होती है इस पर प्रकाश डाला गया है । यह अभिव्यक्ति तीन प्रकार से होती है, यथा(१) सुख-दुख की अनुभूति से, (२) कार्य करने की शक्ति से, (३) ज्ञान की अनुभूति से । जैन दर्शन के अनुसार स्थावर जीव भी सुख-दुख अनुभव करता है, पर कार्य करने की शक्ति अनुभव नहीं करता जबकि निम्नस्तरीय त्रस जीव सुख-दुख की अनुभूति के साथ कार्य करने की शक्ति को अनुभव करता है, लेकिन उसे ज्ञान की अनुभूति नहीं होती। ज्ञान की अनुभूति तो होती है मात्र मनुष्य जैसे उच्च स्तरीय जीवों को ही । इन तीन प्रकार की अनुभूतियों को पूर्ण चैतन्य के विकास क्रम के तीन स्तर भी मान सकते हैंप्रथम स्तर है सुख-दुख के अनुभव का, द्वितीय कार्यशक्ति का, तुतीय ज्ञानशक्ति का। इससे यह फलित हुआ कि जिसे साधारणतया अचेतन पदार्थ समझा जाता है उन मृत्तिकादि में भी चेतना शक्ति तो है, किन्तु है अविकसित रूप में । उस चेतना की अभिव्यक्ति होती है मात्र सुख-दुख के अनुभव में । पाश्चात्य क्रमविकासवादी मनोवैज्ञानिकों ने भी आज इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है । वे कहने लगे हैं कि मनुष्येतर जीवों में भी एक प्रकार का निम्न स्तरीय चैतन्य रहता है। वे केवल अचैतन्य वस्तु पिण्ड मात्र ही नहीं है। ____ जीव का दूसरा गुण है उपयोग । उसके भी दर्शन और ज्ञान के भेद से दो प्रकार बताए गए हैं। वस्तु का सामान्य अनुभव है दर्शन । दर्शन में तो मात्र इतनी ही उपलब्धि होती है 'कुछ है' । उदाहरण ( २० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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