Book Title: Jain Dharm me Ishwarvisyahak Manyata ka Anuchintan
Author(s): Krupashankar Vyas
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ ७० डा कृपाशंकर व्यास इस प्रकार स्पष्ट है कि ईश्वरवाद व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर की स्थापना करके मानव-मानस की धार्मिक-संतुष्टि करता है। यहाँ यह कहना असमीचीन न होगा कि सभी ईश्वरवादा मनीषियों ने ईश्वर शब्द का प्रयोग किया अवश्य है पर उनमें मतैक्य नहीं, अर्थ भिन्नता है। _इस सन्दर्भ में भारतीय दार्शनिक उदयनाचार्य' का कथन विशेष औचित्यपूर्ण प्रतीत होता है कि ईश्वर के अस्तित्व में सन्देह करना ही व्यर्थ है, क्योंकि कौन ऐसा मनुष्य है जो किसी न किसी रूप में 'ईश्वर' को न मानता हो- यथा उपनिषदों के अनुयायी 'ईश्वर' को शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव के रूप में; कपिल अनुयायी 'आदि विद्वान् सिद्ध' के रूप में; पतंजलि अनुयायी क्लेश-कर्म विपाक, एवं आशय (संस्कार) से रहित रूप में; पाशुपत सिद्धान्तानुयायी 'निर्लेप तथा स्वतंत्र रूप में; शैव 'शिव' रूप में; वैष्णव 'विष्णु' रूप में; पौराणिक 'पितामह' रूप में, याज्ञिक "यज्ञपुरुष' रूप में; सौगत 'सर्वज्ञ' रूप में; दिगम्बर 'निरावरण मूर्ति' रूप में; मीमांसक 'उपास्य देव' के रूप में; नैयायिक और वैशेषिक 'सर्वगुणसम्पन्न परम ज्ञानी चेतन' के रूप में; चार्वाक 'लोकव्यवहार; सिद्ध' के रूप में-जिसका चिन्तन, मनन व पूजन करते हैं वही तो इस प्रकार स्पष्ट है कि सभी चिन्तकों ने 'ईश्वर' संबंधी अपनी भावना को यथाशक्य मूर्त रूप देने का प्रयास किया है यद्यपि 'ईश्वर' के स्वरूप के संबंध में उनके विचारों में पर्याप्त भिन्नता है। __ जगत् में जीव-अजीव के संयुक्त होने में न्याय-वैशेषिकादिर दर्शनों ने ईश्वर, प्रकृतिपुरुष-संयोग, काल, स्वभाव, यदृच्छा आदि को कारण माना है। इन दर्शनों के अनुसार जीव को शुभाशुभ कर्मफल की प्राप्ति ईश्वरादि के द्वारा होती है। इससे विपरीत मत जैन दार्शनिकों का है । उनके अनुसार जीव कर्म करने में स्वतंत्र है और फल भोगने में कर्मतंत्र है। हाँ यह अवश्य है कि जैन दार्शनिकों ने इसके साथ ही साथ काल, स्वभाव, और कर्म को भी सृष्टि में कारण स्वरूप माना है तथा यदृच्छावाद का पुरजोर खंडन किया है । यदृच्छावाद का खंडन :-ईश्वर में “कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुम् समर्थः' शक्ति मानने से ईश्वर किसी को सुखी और किसी को दुःखी बना सकता है। इससे ईश्वर की स्वैरवृत्ति और १. (अ) न्याय कुसुमाञ्जलि-१-१ | भारतीय दर्शन-उमेश मिश्र पृ० २२४ । भारतीय ईश्वरवाद-पं० शर्मा ) प्रशस्तपादभाष्य (सृष्टिसंहारप्रकरण) (ब) सांख्य कारिका-२१ (स) न्यायसूत्रभाष्य-४/१।२१ (द) गीता–५।१४ ३. "आसवदि जण कम्मं परिणामेणप्पणो स निण्णेयो । भावासवो जिणुत्तो कम्मा सवणं परो होदि" ॥ (द्रव्य सं० २९) ४. (अ) षड्दर्शन समुच्चय-(तर्क रहस्य टीका सहित) पृ० १८२-१८६ (ब) मेधा "पृ० ७२ (मी० जै० दर्श "ईश्वर विषयक मतभेद) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7