Book Title: Jain Dharm me Ishwarvisyahak Manyata ka Anuchintan
Author(s): Krupashankar Vyas
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ जैनधर्म में ईश्वर विषयक मान्यता का अनुचिन्तन डा० कृपाशंकर व्यास मनुष्य के वैयक्तिक जीवन में मनोभावों की प्रधान भूमिका होती है जबकि सामाजिक जीवन में धार्मिक और आर्थिक व्यवहार की प्रधानता होती है। मनोभावों और व्यवहार का एकीकरण ही मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन एवं अस्तित्व को प्रतिष्ठित करता है। इसलिये मनुष्य इस एकीकरण को एक अलौकिक शक्ति में केन्द्रित कर उसपर युग-युगान्तर से चिन्तन-मनन करता आ रहा है। बोधार्थ उस शक्ति को "ईश्वर" नाम से अभिहित किया जाता है। जिसके प्रति अथर्ववेद' में कथन है-"वदन्तीर्यत्र गच्छन्ति तदाहुाह्मणं महत्" उस सर्वशक्तिमान् ईश्वर का मानव-मन से अति निकट का संबंध है। यही कारण है कि प्रत्येक युग में प्रत्येक धर्म-दर्शन के मनीषियों ने इस असीम शक्तिमान् ईश्वर के संबंध में अपने विचार व्यक्त करने का उपक्रम किया है। ईश्वर संबंधी दार्शनिक चिन्तन :-दार्शनिकों के अनुसार सृष्टि में विषय और विषयी प्रायः एक संस्थान के रूप में संयुक्त होने से पृथक् नहीं हैं। इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष से अथवा मानसिक प्रत्ययों से उत्पन्न सुख-दुःख रूप विषयों का अनुभवकर्ता जीव है। इसे दार्शनिकों ने विषयी या द्रष्टा के रूप में नित्य स्वीकारा है जबकि विषयों को परिवर्तनशील क्षणभंगुर या जड़ पदार्थों से जन्य होने के कारण कुछ दार्शनिकों को छोड़कर शेष सभी ने अनित्य माना है। इसे अजीव भी कहा जाता है। जीव, अजीव कब और कैसे संयुक्त होकर सृष्टि में को प्राप्त हुये-यही गहन समस्या दार्शनिकों के समक्ष आदिकाल से बनी हुई है। जिसका समाधान सभी (भारतीय तथा पाश्चात्य) मनीषियों ने यथाशक्य स्वमतानुसार किया है। यह भिन्न बात है कि अद्यतन सर्व-सम्मत हल नहीं निकल सका है। - 'ईश्वर' की मान्यता को केन्द्र बिन्दु बनाकर भारतीय दर्शन को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम वह भाग जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता है यथा-न्यायवैशेषिक, योग, एवं उत्तर मीमांसा, पूर्वमीमांसा, एवं जैन कुछ सीमा तक तथा भिन्न अर्थ में ईश्वरीय सत्ता में विश्वास करते है । द्वितीय वह भाग जो ईश्वरीय सत्ता को स्वीकार नहीं करता, यथा-चार्वाक, बौद्ध तथा सांख्य (पुरुष ही सब कुछ है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं)। १. अथर्ववेद-१०।८।३३ अ) ईश्वरवाद बनाम पुरुषार्थवाद-डा० कृपाशंकर व्यास, जैनदिवाकर स्मृति ग्रन्थ पृ० ५०१ भारतीय ईश्वरवाद--पं० रामावतार शर्मा पृ० १-५० मेधा--मीमांसा और जैनदर्शन का अन्य दर्शनों से ईश्वर विषयक मतभेद-पृ० ७१-८० "सद्दव्वं वा" भगवतीसूत्र ८।९ पंचाध्यायी पूर्वार्ध श्लोक ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7