Book Title: Jain Dharm me Bhakti ka Sthan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf View full book textPage 1
________________ जैनधर्म में भक्ति का स्थान डा० सागरमल जैन माञ जैनधर्म के अनुसार प्रत्येक साधक का यह कर्तव्य है कि वह तीर्थंकरों की स्तुति करे । जैन साधना में स्तुति का स्वरूप बहुत कुछ भक्ति मार्ग की जप साधना या नामस्मरण से मिलता जुलता है । स्तुति अथवा भक्ति के माध्यम से साधक अपने अहंकार का नाश और सद्गुणों के प्रति अनुराग की वृद्धि करता है। लेकिन फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जैनधर्म के अनुसार साधना के आदर्श के रूप में जिसकी स्तुति की जाती है उन आदर्श पुरुषों से किसी प्रकार की उपलब्धि की अपेक्षा नहीं होती । जैनधर्म का यह दृढ़ विश्वास है कि तीर्थंकर एवं सिद्ध परमात्मा किसी को कुछ नहीं दे सकते, साधना के आदर्श हैं | तीर्थंकर उसे न तो संसार से पार कर सकते हैं और न किसी अन्य प्रकार की भौतिक उपलब्धि में सहायक होते हैं । फिर भी स्तुति के माध्यम से साधक उनके गुणों के प्रति अपनी श्रद्धा को सजीव बना लेता है | साधक के सामने उनका महान् आदर्श जीवन्त रूप में उपस्थित हो जाता है । साधक भी अपने अन्तर हृदय में तीर्थंकरों के आदर्श का स्मरण करता हुआ अपनी आत्मा में एक आध्यात्मिक पूर्णता की भावना पैदा करता है । वह स्वयं मन में यह विचार करता है कि आत्मतत्त्व के रूप में मेरी आत्मा और तीर्थकरों की आत्मा समान ही है, यदि मैं स्वयं प्रयत्न करू तो उनके समान ही बन सकता हूँ । मुझे भी अपने पुरुषार्थ से उनके समान बनने का प्रयत्न करना चाहिए। जैन तीर्थंकर गीता के कृष्ण के समान यह उद्घोषणा नहीं करते कि तुम मेरी भक्ति करो, मैं तुम्हें सब पापों से मुक्त कर दूँगा ( गोता १८/६६ ) । यद्यपि महावीर ने यह अवश्य कहा है कि मैं भय से रक्षा करने वाला हूँ ( सूत्रकृतांग १ | १|१६ ), फिर भी जैनधर्मं की मान्यता तो यह रही है कि व्यक्ति केवल अपने ही प्रयत्नों से अपना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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