Book Title: Jain Dharm me Atma Vigyan Author(s): Jashkaran Daga Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 6
________________ जैन दर्शन में आत्म-विज्ञान | ३०५ "अप्पाणमेव जुन्झाहि, कि ते जुज्झेण बज्झओ। अप्पणामेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए ॥" अर्थात प्रात्मा से ही संघर्ष कर, बाहर किससे कर रहा है ? जो पात्मा से प्रात्मा को जीतता है वही सुखी होता है। "अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो। अप्पा बंतो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य॥"५ अर्थात् आत्मा पर ही नियंत्रण करो। आत्मा ही दुर्जेय है। जो पात्मा पर नियंत्रण कर लेता है, वह इस लोक तथा परलोक में सुखी होता है। आत्म-विज्ञान की दुर्लभ प्राप्ति नव तत्त्वों में जीव तत्त्व प्रमुख व प्रथम है। किन्तु इसकी सम्यक् समझ व श्रद्धा अति दुर्लभ है। प्रथम तो तत्त्व को जानने व तत्त्वसंबंधी श्रवण की रुचि ही सब जीवों को नहीं होती है। ज्ञानी कहते हैं "बिरला सुणेन्ति तच्चं, बिरला जणंति तच्चदो तच्चं । बिरला भावहि तच्चं, बिरलाणं धारणा होवि ॥" अर्थात् बिरल (पुण्यशाली-निकटभव्य ) प्रात्माएँ तत्त्व की बात सुनना पसंद करती हैं, सुनने वालों में भी बिरल व्यक्ति तत्त्व को जान पाते हैं। जानकारों में भो बिरल ही भाव से था भाव से स्वीकारने वालों में भी उसकी (सम्यक) श्रद्धा करने वाले और भी विरल होते हैं। तीर्थंकर प्रभु के निकट सेवा में रहने वाले और नव पूर्वो तक का ज्ञान प्राप्त कर लेने वाले भी अनेक जीव ऐसे होते हैं जो प्रात्म-तत्त्व के विषय में पर्याप्त जानकारी रखते हुए भी आत्म-तत्त्व की सम्यक श्रद्धा से विहीन होते हैं। उनके ज्ञान से दूसरे जीव पात्मज्ञानी हो कल्याण को प्राप्त करते हैं किंतु वे एकान्त मिथ्यादृष्टि ही बने रहते हैं। वे बहुश्रुत और महान् पंडित होते हुए भी आत्मा के प्रति शंकाग्रस्त बने रहते हैं। चारों वेदों के पाठी महापण्डित इन्द्रभूति गौतम जैसे महापुरुष भी भगवान महावीर से सद्बोध पाने से पूर्व 'प्रात्म-तत्त्व' के प्रति शंकाशील ही थे। इस प्रात्म-तत्त्व पर सम्यग् श्रद्धा लाये बिना जीव कोई कितना ही त्याग, तप और क्रियाकाण्ड करे, उसका पृथम गुणस्थान (मिथ्यात्व) भी नहीं छुट पाता है। जैसे बिना अंक के शून्य (बिन्दु) कितने भी हों उनका महत्त्व नहीं, वैसे ही मोक्ष मार्ग में बिना प्रात्म-श्रद्धान के क्रिया का कोई महत्त्व नहीं है। भगवान महावीर प्रभ ने शरीर को नौका, प्रात्मा को नाविक और संसार को समुद्र ४. उत्तरा अ. ९, गा. ३५ ५. उत्तरा. अ. १, गा. १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.Page Navigation
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