Book Title: Jain Dharm me Atma Vigyan
Author(s): Jashkaran Daga
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 5
________________ चतुर्थ खण्ड | ३०४ कुछ दार्शनिक प्रात्मा को तो स्वीकारते हैं किंतु उसे शाश्वत तत्त्व न मानकर क्षणिक व नश्वर मानते हैं किंतु यह मान्यता भी असत्य है। प्रायः जातिस्मरण ज्ञान की घटनाएं प्रकाश में आती रहती हैं। अनेक आत्माओं ने अपने पूर्वभवों को बताया है और परावैज्ञानिकों द्वारा जांच करने पर पुनर्जन्म की अनेक घटनायें सत्य सिद्ध हुई हैं, जो प्रात्मा के शाश्वत अस्तित्व की पुष्टि करती हैं। श्रीमद् राजचन्द्र, जो इस युग के एक विशिष्ट साधक और तत्त्ववेत्ता हुए हैं तथा जिन्हें जातिस्मरण ज्ञान हुआ था, उन्होंने आत्मा की अनुभूति कर आत्मा के अस्तित्व की पुष्टि की है। "आत्मानी शंका करे आत्मा पोते आप । शंकानुं करनार ते, अचरज एह अमाप । जड़ थी चेतन ऊपजे, चेतन थी जड़ थाय । एहवो अनुभव कोई ने, क्यारे कदीन थाय॥ क्रोधादि तरतम्यता, सादिक ने मांय । पूर्व जन्म संस्कार ते, जीव नित्यता त्यांय ॥ आत्मा द्रव्य नित्य छ, पर्यायो पलटाय । बालादिक वय मण नु, ज्ञान एक ने थाय ॥" वस्तुतः आत्मा अरूपी अमूर्त तत्त्व है। दिखाई नहीं देने से अनेक लोग नहीं मानते हैं। किन्तु केवल दिखाई न देने से उसका अस्तित्व न मानना ठीक नहीं है। अनेक रूपी पदार्थ भी सूक्ष्म होने से नज़र नहीं पाते जैसे ध्वनि, विद्युत् प्रवाह, वायु आदि । किन्तु इनके अस्तित्व को सभी स्वीकारते हैं। फिर आत्मा तो ऐसा अलौकिक सूक्ष्म तत्त्व है जिसमें शब्द, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, रूप आदि कुछ नहीं है । वह केवल ज्ञानमय और उपयोग रूप है। अतः वह शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रिय सभी पर नियंत्रण करने वाला होकर भी इन सबकी पकड़ से परे है। ऐसे विलक्षण महान आत्मतत्त्व को स्वानुभूति से नि:शंक स्वीकार किया जाना चाहिए। आत्मा ही नरक, स्वर्ग और मोक्ष हैभगवान् महावीर ने प्रात्मा का विशिष्ट स्वरूप दर्शाते हुए कहा है "अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नन्दनं वनं ॥"२ अर्थात् प्रात्मा ही नरक की वैतरणी नदी व शाल्मली वृक्ष है तथा आत्मा ही कामधेनू गाय और नन्दन वन है। "अप्पा कत्ता विकत्ता य, बुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्टियसुपट्ठिओ।" अर्थात् प्रात्मा स्वयं ही अपने सुख दु:ख का कर्ता हर्ता है, सदा सन्मार्ग पर लगी हई पात्मा अपनी मित्र है और कुमार्ग पर लगी हुई दुराचारी आत्मा अपनी शत्रु है। २. उत्तरा. अ. र. गा. ३६ । ३. उत्तरा. अ. र. गा. ३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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