Book Title: Jain Dharm me Atma Vigyan Author(s): Jashkaran Daga Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 1
________________ Jain Education International समग्र विज्ञान मूलत: दो तत्त्वों से निर्मित है—जीव और अजीव । दोनों तत्त्व अनादि, अनंत और शाश्वत हैं। संसार के विभिन्न रूप, दशा और परिणाम सभी इन दो तत्वों की पर्यायें हैं। संसार एक विशाल नाट्यशाला है जहाँ जीव प्रजीव का नाटक अनादि से होता रहा है और अनंतकाल तक होता रहेगा । जीव नाट्यकार है और प्रजीव उसका सहायक । जीव मोह रूप मदिरा को पीकर उन्मत्त बना अपने मूल स्वभाव को भूल विभाव दशा में बहुरूपिया बना भटक रहा है। यह अनादि भटकाव जीव का किस प्रकार रुके और वह अपने मूल शुद्ध परमात्म-स्वभाव को कैसे प्राप्त हो, इस हेतु स्व-स्वरूप को समझना परमावश्यक है। स्व-स्वरूप को समझने हेतु यहाँ प्रात्म-विज्ञान का संक्षेप में निरूपण किया जाता है । & जैन दर्शन में आत्म-विज्ञान आत्म-तत्व क्या है ? तत्त्व का अर्थ — 'तस्य भावस्तत्त्वम्' के अनुसार सद्भूत वस्तु को तत्त्व कहा जाता है । जो सदा अजर, अमर, अनश्वर, शाश्वत, चैतन्य, प्ररूपी और मूल में निरंजन, निराकार ब्रह्म रूप है, वही आत्म-तत्त्व है । आत्म-तस्व की पहचान क्या है ? जशकरण डागा (१) जो सुख दुःख की अनुभूति करता है। (२) जिसमें उपयोग ज्ञान विद्यमान रहता है। (३) जो प्राण चेतनायुक्त है और वीर्य शक्तिवाला है। (४) जो नरक, तियंच, मनुष्य व परिभ्रमण करता है । · प्रारमा के ( ५ ) जो शाश्वत है—-कभी नष्ट सूखता नहीं, जल में भीगता नहीं एवं हवा से उड़ता नहीं है । देव गति रूप चारों गतियों में विभिन्न दशानों में नहीं होता है। जो प्रग्नि से जलता नहीं, धूप से मुख्य नाम क्या हैं ? संसार में रही प्रात्मा विभिन्न नामों से पहचानी जाती है। मुख्य नाम इस प्रकार हैं (१) जीव जो जीवस्व और मृतस्य पर्याय धारण करता है। (२) प्राणी जो मन इन्द्रियादि दस द्रव्य प्राणों और ज्ञानदर्शन मादि चार भाव प्राणों को धारण करता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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