Book Title: Jain Dharm me Ahimsa ki Avadharna Ek Vishleshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 7
________________ जैनधर्म में अहिंसा की अवधारणा : एक विश्लेषण क्या उस अहिंसक समाज को अपने अस्तित्व के लिए कोई संघर्ष नहीं विवशता में संकल्प करना होता है। फिर भी पहली अधिक निकृष्ट करना चाहिये? हिंसा-अहिंसा का प्रश्न अब निरा वैयक्तिक प्रश्न नहीं कोटि की है क्योकि आक्रमणात्मक हैं। यह अनर्थदण्ड है, अर्थात् है। जब तक सम्पूर्ण मानव समाज एक साथ अहिंसा की साधना के अनावश्यक है, वह या तो मनोरंजन के लिए की जाती है या शासन लिए तत्पर नहीं होता है, किसी एक समाज या राष्ट्र द्वारा की जानेवाली करने के लिए, या स्वाद के लिए। हिंसा का यही रूप ऐसा है जो अहिंसा के आदर्श की बात कोई अर्थ नहीं रखती है। संरक्षणात्मक और सबके द्वारा छोड़ा जा सकता है, क्योंकि यह हमारे जीवन जीने के सुरक्षात्मक हिंसा समाजजीवन के लिए अपरिहार्य है। समाज-जीवन में लिए जरूरी नहीं है। हिंसा का दूसरा रूप जिसमें हिंसा करनी पड़ती इसे मान्य भी करना ही होगा। इसी प्रकार उद्योग-व्यवसाय और कृषि है, हिंसा तो है किन्तु इसे छोड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि यह आवश्यक कार्यों में होनेवाली हिंसा भी समाज-जीवन में बनी ही रहेगी। मानव है, अर्थदण्ड है। जैसा कि हमने अहिंसा की सम्भावना के प्रसंग में समाज में मांसाहार एवं तज्जन्य हिंसा को समाप्त करने की दिशा में देखा था। वे सभी गृहस्थ उपासक जो अपने स्वत्वों का रक्षण करना सोचा तो जा सकता है किन्तु उसके लिये कृषि के क्षेत्र में एवं अहिंसक चाहते हैं, जो जीवन जीने के लिए उद्योग और व्यवसाय में लगे हुए आहार की प्रचुर उपलब्धि के सम्बन्ध में व्यापक अनुसंधान एवं तकनीकी हैं, जो समाज, संस्कृति और राष्ट्र की सुरक्षा एवं विकास का दायित्व विकास की आवश्यकता होगी। यद्यपि हमें यह समझ लेना होगा कि लिये हुए हैं, इससे नहीं बच सकते। न केवल गृहस्थ उपासक अपितु जब तक मनुष्य की संवेदनशीलता को पशुजगत् तक विकसित नहीं किया मुनिजन भी, जो किसी धर्म, समाज एवं संस्कृति के रक्षण, विकास जावेगा और मानवीय आहार को सात्विक नहीं बनाया जावेगा, मनुष्य एवं प्रसार का दायित्व अपने ऊपर लिये हुए हैं, इस प्रकार की अपरिहार्य की आपराधिक प्रवृत्तियों पर पूरा नियन्त्रण नहीं होगा। आदर्श अहिंसक हिंसा से नहीं बच सकते हैं। समाज की रचना हेतु हमें समाज से आपराधिक प्रवृत्तियों को समाप्त फिर भी यह आवश्यक है कि हम ऐसी हिंसा को हिंसा के रूप करना होगा और आपराधिक प्रवृत्तियों के नियमन के लिए हमें मानव जाति में समझते रहें, अन्यथा हमारा करुणा का स्रोत सूख जावेगा। विवशता में संवेदनशीलता, संयम एवं विवेक के तत्त्वों को विकसित करना होगा। में चाहे हमें हिंसा करनी पड़े, किन्तु उसके प्रति आत्मग्लानि और हिंसित के प्रति करुणा की धारा सूखने नहीं पावे, अन्यथा वह हिंसा हिंसा और अहिंसा का सीमा-क्षेत्र हमारे स्वभाव का अंग बन जावेगी, जैसे-कसाई बालक में। हिंसा-अहिंसा हिंसा और अहिंसा के सीमा-क्षेत्र को समझने के लिए हमें हिंसा के विवेक का मुख्य आधार मात्र यही नहीं है कि हमारा हृदय कषाय के तीन रूपों को समझ लेना होगा-१. हिंसा की जाती है, से मुक्त हो, किन्तु यह भी है कि हमारी संवेदनशीलता जागृत रहे, २. हिंसा करनी पड़ती है और ३. हिंसा हो जाती है। हिंसा का वह हृदय में दया और करुणा की धारा प्रवाहित होती रहे। हमें अहिंसा रूप जिसमें हिंसा की नहीं जाती वरन् हो जाती है-हिंसा की कोटि को हृदय-शून्य नहीं बनाना है। क्योंकि यदि हमारी संवेदनशीलता जागृत में नहीं आता है, क्योंकि इसमें हिंसा का संकल्प पूरी तरह अनुपस्थित बनी रही तो निश्चय ही हम जीवन में हिंसा की मात्रा को अल्पतम रहता है; मात्र यही नहीं, हिंसा से बचने की पूरी सावधानी भी रखी करते हुए पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध करेंगे, साथ ही वह जाती हैं, हिंसा के संकल्प के अभाव में एवं सम्पूर्ण सावधानी के हमारी अहिंसा विधायक बन कर मानव समाज में सेवा और सहयोग बावजूद भी यदि हिंसा हो जाती है तो वह हिंसा के सीमाक्षेत्र में नहीं की गंगा भी बहा सकेगी। आती हैं। हमें यह भी समझ लेना होगा कि किसी एक संकल्प की साथ ही जब अपरिहार्य बन गई दो हिंसाओं में किसी एक को पूर्ति के लिए की जानेवाली क्रिया के दौरान सावधानी के बावजूद चुनना अनिवार्य हो तो हमें अल्प-हिंसा को चुनना होगा। किन्तु कौन-सी अन्य कोई हिंसा की घटना घटित हो जाती है, जैसे-गृहस्थ उपासक हिंसा अल्प-हिंसा होगी, यह निर्णय देश, काल परिस्थिति आदि अनेक द्वारा भूमि जोतते हुए किसी त्रस-प्राणी की हिंसा हो जाना अथवा किसी बातों पर निर्भर करेगा। यहाँ हमें जीवन की मूल्यवत्ता को भी आंकना मुनि के द्वारा पदयात्रा करते हुए सप्राणी की हिंसा हो जाना, तो उन्हें होगा। जीवन की यह मूल्यवत्ता दो बातों पर निर्भर करती है-१. उस हिंसा के प्रति उत्तरदायी नहीं माना जा सकता है क्योंकि उनके प्राणी का ऐन्द्रिक एवं आध्यात्मिक विकास और २. उसकी सामाजिक मन में उस हिंसा का कोई संकल्प ही नहीं है। अत: ऐसी हिंसा हिंसा उपयोगिता। सामान्यत: मनुष्य का जीवन अधिक मूल्यवान् है और नहीं है। जैन परम्परा में हिंसा के निम्न चार स्तर माने गये हैं- मनुष्यों में भी एक सन्त का, किन्तु किसी परिस्थिति में किसी मनुष्य १. संकल्पजा, २. विरोधजा, ३. उद्योगजा, ४. आरम्भजा। इनमें की अपेक्षा किसी पशु का जीवन भी अधिक मूल्यवान् हो सकता है। 'संकल्पजा' हिंसा वह है जो की जाती है, जबकि विरोधजा, उद्योगजा सम्भवत: हिंसा-अहिंसा के विवेक में जीवन की मूल्यवत्ता का यह विचार और आरम्भजा हिंसा, हिंसा की वे स्थितियां हैं जिनमें हिंसा करनी हमारी दृष्टि में उपेक्षित ही रहा, यही कारण था कि हम चीटियों के पड़ती है। फिर भी चाहे हिंसा की जाती हो या हिंसा करनी पड़ती प्रति तो संवेदन-शील बन सके किन्तु मनुष्य के प्रति निर्मम ही बने हो दोनों ही अवस्थाओं में हिंसा का संकल्प या इरादा अवश्य होता रहे। आज हमें अपनी संवेदनशीलता को माड़ना है और मानवता के है, यह बात अलग है कि एक अवस्था में हम बिना किसी परिस्थितिगत प्रति अहिंसा को सकारात्मक बनाना है। दबाव के स्वतंत्ररूप में हिंसा का संकल्प करते हैं और दूसरे में हमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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