Book Title: Jain Dharm me Ahimsa ki Avadharna Ek Vishleshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 6
________________ ३१२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ अनौद्देशिक आहार मिल पाना सम्भव है? क्या कश्मीर से कन्याकुमारी खड़ा होता है आत्मीयता, प्रेम और सहयोग के आधार पर खड़ा होता तक और बम्बई से कलकत्ता तक की सारी यात्राएँ औद्देशिक आहार है अर्थात् अहिंसा के आधार पर खड़ा होता है। क्योंकि हिंसा का अर्थ के अभाव में निर्विघ्न सम्भव हो सकती हैं? क्या आहेत प्रवचन की है-घृणा, विद्वेष, आक्रामकता; और जहाँ भी ये वृत्तियाँ बलवती होंगी प्रभावना के लिए मंदिरों का निर्माण, पूजा और प्रतिष्ठा के समारोह, सामाजिकता की भावना ही समाप्त हो जावेगी, समाज ढह जावेगा। अत: संस्थाओं का संचालन, मुनिजनों के स्वागत और विदाई-समारोह तथा समाज और अहिंसा सहगामी हैं। दूसरे शब्दों में यदि हम मनुष्य को अधिवेशन षनिकाय की नवकोटि युक्त अहिंसा के परिपालन के साथ । एक सामाजिक प्राणी मानते हैं तो हमें यह मानना होगा कि अहिंसा कोई संगति रख सकते हैं? हमें अपनी अन्तरात्मा से यह सब पूछना उसके लिए स्वाभाविक ही है। जब भी कोई समाज खड़ा होगा और होगा। हो सकता है कि कुछ विरल सन्त और साधक हों जो इन टिकेगा तो वह अहिंसा की भित्ति पर ही खड़ा होगा और टिकेगा। किंतु कसौटियों पर खरे उतरते हों, मैं उनकी बात नहीं कहता, वे शतश: एक दूसरा पहलू भी है, वह यह कि समाज के लिए भी अपने अस्तित्व वन्दनीय हैं, किन्तु सामान्य स्थिति क्या है? फिर भिक्षाचर्या, पाद-विहार, और अपने सदस्यों के हितों के संरक्षण का प्रश्न मुख्य है और जहाँ शरीर-संचालन, श्वासोच्छ्वास किसमें हिंसा नहीं है। महाभारत के अस्तित्व की सुरक्षा और हितों के संरक्षण का प्रश्न है, वहाँ हिंसा शान्ति-पर्व में कहा गया है, जल में जीव हैं, पृथ्वी पर और वृक्षों अपरिहार्य है। हितों में टकराव स्वाभाविक है, अनेक बार तो एक का के फलों में अनेक जीव हैं, ऐसा कोई मनुष्य नहीं जो इन्हें नहीं मारता हित दूसरे के अहित पर, एक का अस्तित्व दूसरे के विनाश पर खड़ा हो, पुन: कितने ही ऐसे सूक्ष्म प्राणी हैं जो इन्द्रियों से नहीं, अनुमान होता है, ऐसी स्थिति में समाज-जीवन में भी हिंसा अपरिहार्य होगी। से जाने जाते हैं, मनुष्य की पलकों के झपकने मात्र से ही जिनके पुन: समाज का हित और सदस्य-व्यक्ति का हित भी परस्पर विरोध में कंधे टूट जाते हैं। अत: जीव-हिंसा से बचा नहीं जा सकता (१५/ हो सकता है। जब वैयक्तिक और सामाजिक हितों के संघर्ष की स्थिति २५-२६)। एक ओर षट्जीवनिकाय की अवधारणा और दूसरी ओर हो तो बहुजन हितार्थ हिंसा अपरिहार्य भी हो सकती है। जब समाज पूर्ण नवकोटियुक्त पूर्ण अहिंसा का आदर्श, जीवित रहकर इन दोनों या राष्ट्र का कोई सदस्य या वर्ग अथवा दूसरा राष्ट्र अपने हितों के लिये में संगति बिठा पाना अशक्य है। अत: जैन आचार्यों को भी यह कहना हिंसा पर अथवा अन्याय पर उतारू हो जावे तो निश्चय ही अहिंसा की पड़ा कि 'अनेकानेक जीव-समूहों से परिव्याप्त विश्व में साधक का दुहाई देने से काम न चलेगा। जब तक जैन आचार्यों द्वारा उद्घोषित अहिंसकत्व अन्त: में आध्यात्मिक विशुद्धि की दृष्टि से ही है' 'मानव जाति एक है' की कल्पना साकार नहीं हो पाती, जब तक सम्पूर्ण (ओघनियुक्ति, ७४७)। लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं है कि हम मानव समाज ईमानदारी के साथ अहिंसा के पालन के लिए प्रतिबद्ध अहिंसा को अव्यवहार्य मानकर तिलांजलि दे देवें। यद्यपि एक शरीरधारी नहीं होता, तब तक अहिंसक समाज की बात कहना कपोल-कल्पना के नाते यह हमारी विवशता है कि हम द्रव्य और भाव दोनों अपेक्षा ही कहा जावेगा। आचारांग, सूत्रकृतांग आदि जैनागम जिस पूर्ण अहिंसा से पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध नहीं कर सकते हैं किन्तु उस के आदर्श को प्रस्तुत करते हैं उसमें भी जब संघ की या संघ के किसी दिशा में क्रमश: आगे बढ़ सकते हैं और जीवन की पूर्णता के साथ सदस्य की सुरक्षा या न्याय का प्रश्न आया तो हिंसा को स्वीकार करना ही पूर्ण अहिंसा के आदर्श को भी उपलब्ध कर सकते हैं। कम से पड़ा। गणाधिपति चेटक और आचार्य कालक के उदाहरण इसके प्रमाण कम हिंसा की दिशा में आगे बढ़ते हुए साधक के लिए जीवन का हैं। यही नहीं, निशीथचूर्णि में तो यहाँ तक स्वीकार कर लिया गया अन्तिम क्षण अवश्य ही ऐसा है, जब वह पूर्ण अहिंसा के आदर्श है कि संघ की सुरक्षा के लिए मुनि भी हिंसा का सहारा ले सकता है। को साकार कर सकता है। जैनधर्म की पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो ऐसे प्रसंगों में पशु-हिंसा तो क्या मनुष्य की हिंसा भी उचित मान ली पादोपगमन संथारा एवं चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान की अवस्थाएं गई है। जब तक मानव समाज का एक भी सदस्य पाशविक प्रवृत्तियों ऐसी हैं जिनमें पूर्ण अहिंसा का आदर्श साकार हो जाता है। में आस्था रखता है यह सोचना व्यर्थ ही है कि सामुदायिक जीवन में पुनः अहिंसा की सम्भावना पर हमें न केवल वैयक्तिक दृष्टि से पूर्ण अहिंसा का आदर्श व्यवहार्य बन सकेगा। निशीथचूर्णि में अहिंसा विचार करना है अपितु सामाजिक दृष्टि से भी विचार करना है। चाहे के अपवादों को लेकर जो कुछ कहा गया है, उसे चाहे कुछ लोग यह सम्भव भी हो, व्यक्ति शरीर, सम्पत्ति, संघ और समाज से निरपेक्ष साध्वाचार के रूप में सीधे मान्य करना न चाहते हों; किंतु क्या यह होकर पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध कर सकता है; फिर भी ऐसी नपुंसकता नहीं होगी जब किसी मुनि संघ के सामने किसी तरुणी साध्वी निरपेक्षता किन्हीं विरल साधकों के लिए ही सम्भव होगी, सर्व सामान्य का अपहरण हो रहा हो या उस पर बलात्कार हो रहा हो और वे अहिंसा के लिए तो सम्भव नहीं कही जा सकती है। अत: मूल प्रश्न यह है की दुहाई देते हुए मौन दर्शक बने रहें? क्या उनका कोई दायित्व नहीं कि क्या सामाजिक जीवन पूर्ण अहिंसा के आदर्श पर खड़ा किया जा है? यह बात चाहे हास्यास्पद लगती हो कि अहिंसा की रक्षा के लए सकता है? क्या पूर्ण अहिंसक समाज की रचना सम्भव है? इस प्रश्न हिंसा आवश्यक है किन्तु व्यावहारिक जीवन में अनेक बार ऐसी का उत्तर देने के पूर्व मैं आपसे समाज-रचना के स्वरूप पर कुछ बातें परिस्थितियाँ आ सकती हैं जिनमें अहिंसक-संस्कृति की रक्षा के लिए कहना चाहूँगा। एक तो यह कि अहिंसक-चेतना अर्थात् संवेदनशीलता हिंसकवृत्ति अपनाना पड़े। यदि हिंसा में आस्था रखनेवाला कोई समाज के अभाव में समाज की कल्पना ही सम्भव नहीं है। समाज जब भी किसी अहिंसक समाज को पूरी तरह मिटा देने को तत्पर हो जावे, तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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