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जैनधर्म में अहिंसा की अवधारणा : एक विश्लेषण
अहिंसा का अर्थ-विस्तार एवं उसके विविध-आयाम
हो, और चाहे यह भी मान लिया हो कि सभी जीवधारियों को जीवन विश्व के लगभग सभी धर्मों एवं धर्मग्रन्थों में किसी न किसी उतना ही प्रिय है, जितना तुम्हें अपना है, किन्तु उसमें अल्लाह की रूप में अहिंसा की अवधारणा पायी जाती है। अहिंसा के सिद्धान्त इस करुणा का अर्थ स्वधर्मियों तक ही सीमित रहा। इतर मनुष्यों के की इस सार्वभौम स्वीकृति के बावजूद भी अहिंसा के अर्थ को लेकर प्रति इस्लाम आज तक संवेदनशील नहीं बन सका। पुन: यहूदी और उन सबमें एकरूपता नहीं है। हिंसा और अहिंसा के बीच खीची गई इस्लाम दोनों ही धर्मों में धर्म के नाम पर पशुबलि को सामान्य रूप भेद-रेखा सभी में अलग-अलग है। कहीं पशुवध को ही नहीं, नर-बलि से आज तक स्वीकृत किया जाता है। इस प्रकार इन धर्मों में मनुष्य को भी हिंसा की कोटि में नहीं माना गया है, तो कहीं वानस्पतिक की संवेदनशीलता स्वजाति और स्वधर्मी अर्थात् अपनों से अधिक हिंसा अर्थात् पेड़-पौधों को पीड़ा देना भी हिंसा माना जाता है। चाहे अर्थविस्तार नहीं पा सकी है। इस संवेदनशीलता का अधिक विकास अहिंसा की अवधारणा उन सबमें समानरूप से उपस्थित हो किन्तु हमें ईसाई धर्म में दिखाई देता है। ईसा शत्रु के प्रति भी करुणाशील अहिंसक-चेतना का विकास उन सबमें सामानरूप से नहीं हुआ है। होने की बात कहते हैं। वे अहिंसा, करुणा और सेवा के क्षेत्र में अपने क्या मूसा के Thou shalt not kill आदेश का वही अर्थ है जो महावीर और पराये, स्वधर्मी और विधर्मी, शत्रु और मित्र के भेद से ऊपर की 'सव्वे सत्ता न हंतव्वा' की शिक्षा है? यद्यपि हमें यह ध्यान रखना उठ जाते हैं। इस प्रकार उनकी करुणा सम्पूर्ण मानवता के प्रति बरसी होगा कि अहिंसा के अर्थविकास की यह यात्रा किसी कालक्रम में न है। यह बात अलग है कि मध्ययुग में ईसाईयों ने धर्म के नाम पर होकर मानव जाति की सामाजिक चेतना, मानवीय विवेक एवं खून की होली खेली हो और ईश्वर-पुत्र के आदेशों की अवहेलना संवेदनशीलता के विकास के परिणामस्वरूप हुई है। जो व्यक्ति या की हो किन्तु ऐसा तो हम सभी करते हैं। धर्म के नाम पर पशु-बलि समाज जीवन के प्रति जितना अधिक संवेदनशील बना उसने अहिंसा की स्वीकृति भी ईसाई धर्म में नहीं देखी जाती है। इस प्रकार उसमें अहिंसा के प्रत्यय को उतना ही अधिक व्यापक अर्थ प्रदान किया। अहिंसा ___ की अवधारणा अधिक व्यापक बनी है। उसकी सबसे बड़ी विशेषता के अर्थ का यह विस्तार भी तीनों रूपों में हुआ है—एक ओर अहिंसा यह है कि उसमें सेवा तथा सहयोग के मूल्यों के माध्यम से अहिंसा को के अर्थ को व्यापकता दी गई, तो दूसरी ओर अहिंसा का विचार एक विधायक-दिशा भी प्रदान की है। फिर भी सामान्य जीवन में पशुवध अधिक गहन होता चला गया। एक ओर स्वजाति और स्वधर्मी मनुष्य और मांसाहार के निषेध की बात वहाँ नहीं उठाई गई है। अत: उसकी की हत्या के निषेध से प्रारम्भ होकर षट्जीवनिकाय की हिंसा के निषेध अहिंसा की अवधारणा मानवता तक ही सीमित मानी जा सकती है, तक इसने अर्थविस्तार पाया है तो दूसरी ओर प्राणवियोजन के बाह्य वह भी समस्त प्राणी जगत् की पीड़ा के प्रति संवेदनशील नहीं बन सका। रूप से द्वेष, दुर्भावना और असावधानी (प्रमाद) के आन्तरिक रूप तक, इसने गहराईयों में प्रवेश किया है। पुन: अहिंसा ने 'हिंसा मत भारतीय-चिन्तन में अहिंसा का अर्थ-विस्तार करो' के निषेधात्मक अर्थ से लेकर दया, करुणा, दान, सेवा और चाहे वेदों में 'पुमांसं परिपातु विश्वतः' (ऋग्वेद, ६.७५.१४) सहयोग के विधायक अर्थ तक भी अपनी यात्रा की है। इस प्रकार के रूप में एक दूसरे की सुरक्षा की बात कही गई हो अथवा 'मित्रास्याहं हम देखते हैं कि अहिंसा का अर्थविकास त्रिआयामी (थ्री डाईमेन्शनल) चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे (यजुर्वेद, ३६.१८) के रूप में सर्व है। अतः जब भी हम अहिंसा की अवधारणा लेकर कोई चर्चा करना प्राणियों के प्रति मित्र-भाव की कामना की गई हो किंतु वेदों की यह चाहते हैं तो हमें उसके सभी पहलुओं की ओर ध्यान देना होगा। अहिंसक चेतना मानवजाति तक ही सीमित रही है। मात्र इतना ही
जैनागमों के संदर्भ में अहिंसा के अर्थ की व्याप्ति को लेकर नहीं, वेदों में अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिनमें शत्रु-वर्ग के विनाश के लिए कोई चर्चा करने के पूर्व हमें यह देख लेना होगा कि अहिंसा की इस प्रार्थनाएँ भी की गई हैं। यज्ञों में पशुबलि स्वीकृत रही, वेद-विहित अवधारणा ने कहाँ कितना अर्थ पाया है?
हिंसा को हिंसा की कोटि में नहीं माना गया। इस प्रकार उनमें धर्म
के नाम पर की जाने वाली हिंसा को समर्थन ही दिया गया। वेदों यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म में अहिंसा का अर्थविस्तार में अहिंसा की अवधारणा का अर्थविस्तार उतना ही है जितना की ____ मूसा ने धार्मिक जीवन के लिए जो दस आदेश प्रसारित किये यहूदी और इस्लाम धर्म में। अहिंसक चेतना का सर्वाधिक विकास थे उनमें एक है 'तुम हत्या मत करो', किन्तु इस आदेश का अर्थ हुआ है श्रमण परम्परा में। इसका मुख्य कारण यह था कि गृहस्थ यहूदी समाज के लिए व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए अपनी जातीय भाई जीवन में रहकर पूर्ण अहिंसा के आदर्श को साकार कर पाना सम्भव की हिंसा नहीं करने से अधिक नहीं रहा। धर्म के नाम पर तो हम नहीं था। जीवनयापन अर्थात् आहार, सुरक्षा आदि के लिए हिंसा स्वयं पिता को अपने पुत्र की बलि देते हुए देखते हैं। इस्लाम ने आवश्यक तो है ही, अत: उन सभी धर्म परम्पराओं में जो मूलत: चाहे अल्लाह को 'रहिमानुर्रहोम'-करुणाशील कहकर सम्बोधित किया निवृत्तिपरक या संन्यासमार्गीय नहीं थीं, अहिंसा को उतना अर्थविस्तार
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प्राप्त नहीं हो सका जितना श्रमण धारा या संन्यासमार्गीय परम्परा में सम्भव था। यद्यपि भ्रमण परम्पराओं के द्वारा हिंसापरक यज्ञ-यागों की आलोचना और मानवीय विवेक एवं संवेदनशीलता के विकास का एक परिणाम यह हुआ कि वैदिक परम्परा में भी एक ओर वेदों के पशु-हिंसापरक पदों का अर्थ अहिंसक रीति से किया जाने लगा। महाभारत के शान्तिपर्व में राजा वसु का आख्यान (अध्याय ३३७-३३८) इसका प्रमाण है। तो दूसरी ओर धार्मिक जीवन के लिए कर्मकाण्ड को अनुपयुक्त मानकर औपनिषदिक धारा के रूप में ज्ञानमार्ग का और भागवत धर्म के रूप में भक्तिमार्ग का विकास हुआ। इसमें अहिंसा का अर्थविस्तार सम्पूर्ण प्राणीजगत् अर्थात् स चीजों की हिंसा के निषेध तक हुआ है। वैदिक परम्परा में संन्यासी को कन्दमूल एवं फल का उपभोग करने की स्वतन्त्रता है, इस प्रकार वहाँ वानस्पतिक हिंसा का विचार उपस्थित नहीं है। फिर भी यह तो सत्य है कि अहिंसक चेतना को सर्वाधिक विकसित करने का श्रेय श्रमण परम्पराओं को ही है। भारत में ई०पू० ६ ठीं शताब्दी का जो भी इतिवृत्त हमें प्राप्त होता है उससे ऐसा लगता है कि उस युग में पूर्ण अहिंसा के आदर्श को साकार बनाने में श्रमण सम्प्रदायों में होड़ लगी हुई थी। कम से कम हिंसा ही श्रामण्य-जीवन की श्रेष्ठता का प्रतिमान था । सूत्रकृतांग में आर्द्रक कुमार की विभिन्न मत वाले श्रमणों से जो चर्चा है उसमें मूल प्रश्न यही है कि कौन सबसे अधिक अहिंसक है ( देखिये, सूत्रकृतांग २ / ६ ) | जस प्राणियों (पशु, पक्षी, कीट-पतंग आदि) की हिंसा तो हिंसा थी ही किन्तु वानस्पतिक और सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा को भी हिंसा माना जाने लगा । मात्र इतना ही नहीं, मनसा, वाचा, कर्मणा और कृत, कारित और अनुमोदित के प्रकारभेदों से नवकोटिपूर्ण अहिंसा का विचार प्रविष्ट हुआ, अर्थात् मन, वचन और शरीर से हिंसा करना नहीं करवाना नहीं और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करना बौद्ध और आजीवक परम्परा के श्रमणों ने भी इस नवकोटिक अहिंसा के आदर्श को स्वीकार कर उसके अर्थ को गहनता और व्यापकता प्रदान की। फिर भी बौद्ध परम्परा में षट्जीवनिकाय का विचार उपस्थित नहीं था। बौद्ध भिक्षु नदी-नालों के जल को छानकर उपयोग करते थे। दूसरे उनके यहाँ नवकोटि अहिंसा की यह अवधारणा भी स्वयं की अपेक्षा से थी— दूसरा हमारे निमित्त क्या करता है इसका विचार नहीं किया गया, जबकि जैन परम्परा में श्रमण के निमित्त से की जाने वाली हिंसा का भी विचार किया गया। निर्मन्य परम्परा का कहना था कि केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है कि हम मनसा, वाचा, कर्मणा हिंसा न करें, न करावें और न उसे अनुमोदन दें अपितु यह भी आवश्यक है कि दूसरों को हमारे निमित्त हिंसा करने का अवसर भी नहीं देवें और उनके द्वारा की गई हिंसा में भागीदार न बनें। यही कारण था कि जहाँ बुद्ध और बौद्ध भिक्षु निमन्त्रित भोजन को स्वीकार करते थे वहाँ निर्ग्रन्थ परम्परा में औद्देशिक आहार भी अग्राह्य माना गया था, क्योंकि उसमें नैमत्तिक हिंसा के दोष की सम्भावना थी। यद्यपि पिटकग्रंथों में बौद्ध भिक्षु के लिए ऐसा भोजन निषिद्ध माना गया है, जिसमें उसके लिए प्राणिहिंसा की गई हो और वह इस बात को जानता हो या उसने ऐसा सुना
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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हो फिर भी यह अतिशयोक्ति नहीं है कि अहिंसा को जितना व्यापक अर्थ जैन परम्परा में दिया गया है, उतना अन्यत्र अनुपलब्ध ही है।
जैन परम्परा में अहिंसा का अर्थविस्तार
संभवत: विश्व साहित्य में उपलब्ध प्राचीनतम जैन प्रन्य आचारांग ही ऐसा है, जिसमें अहिंसा को सर्वाधिक अर्थविस्तार दिया गया है। उसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस प्राणी के रूप में षट्जीवनिकाय के हिंसा का निषेध किया गया है। उसके प्रथम अध्याय का नाम ही शस्त्र-परिज्ञा है, जो अपने नाम के अनुरूप ही हिंसा के कारण और साधनों का विवेक कराता है। हिंसा अहिंसा के विवेक के सम्बन्ध में षट्जीवनिकाय की अवधारणा आचारांग की अपनी विशेषता है जो कि परवर्ती सम्पूर्ण जैन साहित्य में स्वीकृत रही है। आचारांग में न केवल अहिंसा की अवधारणा को अर्थ विस्तार दिया गया है अपितु उसे अधिक गहन और मनोवैज्ञानिक बनाने का भी प्रयत्न किया गया है।
आचारांग में धर्म की दो प्रमुख व्याख्यायें उपलब्ध हैं। प्रथम व्याख्या है— सेमियाए धम्मे आरियेहिं पवेइए (१/८/३), आर्यजनों ने समता (समभाव) को धर्म कहा है। धर्म की दूसरी व्याख्या है— सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, न हंतव्या एस धम्मे सुन्डे, निइए, सासए, समिच्च लोयं खेयन्नेहिं पवेइए (१/४१), किसी भी प्राणी, जीव और सत्व की हिंसा नहीं करना, यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है, जिसका उपदेश समस्त लोक की पीड़ा को जानकर दिया गया है। वस्तुतः धर्म की वे दो व्याख्याएँ दो भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों पर आधारित हैं। 'समभाव' के रूप में धर्म की परिभाषा समाज निरपेक्ष वैयक्तिक धर्म की परिभाषा है, क्योकि समभाव सैद्धान्तिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से हमारे स्व-स्वभाव का परिचायक है। जबकि अहिंसा एक व्यावहारिक एवं समाज सापेक्ष धर्म है, क्योंकि वह लोक की पीड़ा के निवारण के लिए है अहिंसा समभाव की साधना की बाह्य अभिव्यक्ति है। समभाव अहिंसा का सारतत्त्व है और अहिंसा की आधार भूमि है। -
अहिंसा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
आचारांग में अहिंसा के सिद्धान्त को मनोवैज्ञानिक आधार पर भी स्थापित करने का प्रयास किया गया है। वहां अहिंसा को आत् प्रवचन का सार और शुद्ध एवं शाश्वत धर्म बताया गया है। सर्वप्रथम हमें यह विचार करना है कि अहिंसा को ही धर्म क्यों माना जावे? सूत्रकार इसका बड़ा मनोवैज्ञानिक उत्तर प्रस्तुत करता है; वह कहता है कि सभी प्राणियों में जिजीविषा प्रधान है, पुनः सभी को सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है सब्वे पाणा पिआउया सुहसाया दुः खपडिकूला, (१ / २ / ३) | अहिंसा का अधिष्ठान यही मनोवैज्ञानिक सत्य है। अस्तित्व और सुख की चाह प्राणीय स्वभाव है। जैन विचारकों ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य के आधार पर अहिंसा को स्थापित किया है। यद्यपि मैकेंजी ने अपने ग्रन्थ Hindu Ethics में अहिंसा का आधार 'भय' को माना है किन्तु उसकी यह धारणा गलत है क्योंकि भय के सिद्धांत को यदि
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अहिंसा का आधार बनाया जावेगा तो व्यक्ति केवल सबल की हिंसा शाश्वत अहिंसाधर्म का प्रवर्तन लोक की पीड़ा को जानकर ही किया से विरत होगा, निर्बल की हिंसा से नहीं। भय को आधार मानने पर गया है फिर भी तीर्थंकरों की यह असीम करुणा विधायक बनकर बह तो जिससे भय होगा उसी के प्रति अहिंसक बुद्धि बनेगी। जबकि आचारांग रही हो ऐसा प्रतीत नहीं होता है। आचारांग और सूत्रकृतांग में पूर्ण तो सभी प्राणियों के प्रति यहाँ तक कि वनस्पति, जल और पृथ्वीकायिक अहिंसा का यह आदर्शन निषेधात्मक ही रहा है। जीवों के प्रति भी अहिंसक होने की बात कहता है। अत: आचारांग यद्यपि यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि ऐसा क्यों हुआ? में अहिंसा को भय के आधार पर नहीं अपितु जिजीविषा और सुखाकांक्षा इसका उत्तर यही है कि अहिंसा को विधायकरूप देने का कोई भी के मनोवैज्ञानिक सत्यों के आधार पर अधिष्ठित किया गया है। पुनः प्रयास हिंसा के बिना सम्भव नहीं होगा; जब भी हम जीवन-रक्षण इन मनोवैज्ञानिक सत्यों के साथ ही उसमें अहिंसा को तुल्यता बोध (दया), दान, सेवा से और सहयोग की कोई क्रिया करेंगे तो निश्चित का बौद्धिक आधार भी दिया गया है। वहाँ कहा गया है कि 'जो अज्झत्थं ही वह बिना हिंसा के सम्भव नहीं होगी। नव-कोटिपूर्ण अहिंसा का जाणई से बहिया जाणई एयं तुल्लमन्नसिं',(१/१/७)जो अपनी पीड़ा आदर्श कभी भी जीवन-रक्षण, दान, सेवा और सहयोग के मूल्यों का को जान पाता है, वही तुल्यता-बोध के आधार पर दूसरों की पीड़ा सहगामी नहीं हो सकता। यही कारण था कि आचरांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को भी समझ सकता है। प्राणीय पीड़ा की तुल्यता के बोध के आधार के दूसरे अध्याय के ५ वें उद्देशक में मुनि के लिए चिकित्सा करने पर होने वाला आत्मसंवेदन ही अहिंसा का आधार है। सूत्रकार तो और करवाने का भी निषेध कर दिया गया। सत्य तो यह है कि अहिंसा के इस सिद्धान्त को अधिक गहराई तक अधिष्ठित करने के जीवन-रक्षण और पूर्ण अहिंसा के आदर्श का परिपालन एक साथ प्रयास में यहां तक कह देता है कि जिसे तू मारना चाहता है, पीड़ा सम्भव नहीं है। पुन: सामुदायिक और पारिवारिक जीवन में तो उसका देना चाहता है, सताना चाहता है वह तू ही है (आचारांग, १/५/ परिपालन अशक्य ही है। हम देखते हैं कि अहिंसक जीवन जीने के ५)। आगे वह कहता है कि जो लोक का अपलाप करता है वह स्वयं लिए जिस आदर्श की कल्पना आचारांग में की गई थी उससे जैन अपनी आत्मा का अपलाप करता है (आचारांग, १/१/३)। अहिंसा परम्परा को भी नीचे उतरना पड़ा है। आचारांग के दूसरे श्रुतस्कन्ध को अधिक गहन मनोवैज्ञानिक आधार देने के प्रयास में वह जैन दर्शन में ही अहिंसक मुनि-जीवन में कुछ अपवाद स्वीकार कर लिये हैं, के आत्मा संबंधी अनेकात्मवाद के स्थान पर एकात्मवाद की बात करता जैसे—नौकागमन, गिरने की सम्भावना होने पर लता-वृक्ष आदि का प्रतीत होता है क्योंकि यहां वह इस मनोवैज्ञानिक सत्य को देख रहा सहारा लेकर उतरना आदि। इसी प्रसंग में हिंसा-अहिंसा विवेक के है कि केवल आत्मभाव में हिंसा असम्भव हो सकती है। जब तक सम्बन्ध में अल्प-बहुत्व का विचार सामने आया। जब हिंसा अपरिहार्य दूसरे के प्रति पर-बुद्धि है, परायेपन का भाव है तब तक हिंसा की ही बन गई हो तो बहु-हिंसा की अपेक्षा अल्प-हिंसा को चुनना ही संभावनायें उपस्थित है। व्यक्ति के लिए हिंसा तभी असंभव हो सकती उचित माना गया। सूत्रकृतांग के आर्द्रक नामक अध्याय में हस्ति-तापसों है जब उसमें प्राणी जगत् के प्रति अपनत्व या आत्मीय-दृष्टि जागृत की चर्चा है। ये हस्तितापस यह मानते थे कि आहार के लिए अनेक हो। अहिंसा की स्थापना के लिए जो मनोवैज्ञानिक भूमिका अपेक्षित वानस्पतिक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा करने की अपेक्षा एक महाकाय थी उसे प्रस्तुत करने में सूत्रकार ने आत्मा की वैयक्तिकता की धारणा हाथी को मार लेना अल्प हिंसा है और इस प्रकार वे अपने को अधिक का भी अतिक्रमण कर उसे अभेद की धारणा पर स्थापित करने का अहिंसक सिद्ध करते थे। जैन परम्परा ने इसे अनुपयुक्त बताया और प्रयास किया है। हिंसा के निराकरण के प्रयास में भी सूत्रकार ने एक कहा कि हिंसा-अहिंसा के विवेक में कितने प्राणियों की हिंसा हुई स्थान पर जिस मनोवैज्ञानिक सत्य को उजागर किया है वह यह है इस विचार से काम नहीं चलेगा, अपितु किस प्राणी की हिंसा हुई कि हिंसा से हिंसा का और घृणा से घृणा का निराकरण संभव नहीं यह और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। भगवतीसूत्र में इसी प्रश्न को लेकर है। वह तो स्पष्ट रूप से कहता है, शस्त्रों के आधार पर अभय और यह कहा गया है कि स्थावर जीवों की अपेक्षा त्रस-जीव की और त्रस हिंसा के आधार पर शान्ति की स्थापना संभव नहीं है क्योंकि एक जीवों में पंचेन्द्रिय की, पंचेन्द्रियों में मनुष्य की और मनुष्य में ऋषि शस्त्र का प्रतिकार दूसरे शस्त्र के द्वारा संभव है, शान्ति की स्थापना की हिंसा अधिक निकृष्ट है, मात्र यही नहीं, जहाँ त्रस जीव की हिंसा तो निर्वैरता या प्रेम के द्वारा ही संभव है क्योंकि अशस्त्र से बढ़कर करने वाला अनेक जीवों की हिंसा का भागी होता है, वहाँ ऋषि की अन्य कुछ नहीं है (आचारांग, १/३/४)।
हिंसा करने वाला अनन्त जीवों की हिंसा का भागी होता है। अत: आचारांग और सूत्रकृतांग में श्रमण-साधक के लिए जिस जीवनचर्या हिंसा-अहिंसा के विवेक में संख्या का प्रश्न इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है का विधान है उसे देखकर हम सहज ही यह कह सकते हैं कि वहां जितना कि प्राणी की ऐन्द्रिक एवं आध्यात्मिक क्षमता का विकास। जीवन में पूर्ण अहिंसा के आदर्श को साकार बनाने का एक प्रयत्न अवश्य यह मान्यता कि सभी आत्माएँ समान हैं, अतः सभी हिंसाएँ समान हुआ है। किन्तु उनमें अहिंसक मुनि जीवन का, जो आदर्शचित्र उपस्थित हैं, समुचित नहीं है। कुछ परम्पराओं ने सभी प्राणियों की हिंसा को किया गया है, वह अहिंसा के निषेधात्मक पहलू को ही प्रकट करता समान स्तर का मानकर अहिंसा के विधायक पक्ष का जो निषेध कर है। अहिंसा के विधायक पहलू की वहां कोई चर्चा नहीं है। यद्यपि दिया वह तर्कसंगत नहीं है। उसके पीछे भ्रांति यह है कि हिंसा का आचारांग में यह स्पष्टरूप से कहा गया है कि इस शुद्ध, नित्य और सम्बन्ध आत्मा से जोड़ दिया गया है। हिंसा आत्मा की नहीं प्राणों
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की होती है। अत: जिन प्राणियों की प्राणसंख्या अर्थात् जैविक शक्ति बाह्य पक्ष पर गहनतापूर्वक विचार किया है। वह यह मानती है कि अधिक विकसित है, उनकी हिंसा अधिक निकृष्ट है। पुनः हिंसा में किन्हीं अपवादात्मक अवस्थाओं को छोड़कर सामान्यतया जो विचार स्तर भेद स्वीकार करके ही अहिंसा को विधायक रूप दिया जा सकता में है, जो आन्तरिक है, वही व्यवहार में प्रकट होता है। अन्तरंग और है। हिंसा और अहिंसा के सम्बन्ध में यह प्रश्न इसलिए भी अधिक बाह्य अथवा विचार और आचार के सम्बन्ध में द्वैत-दृष्टि उसे स्वीकार्य महत्त्वपूर्ण बन गया कि इसका सीधा सम्बन्ध मांसाहार और शाकाहार नहीं है। उसकी दृष्टि में अन्त: में अहिंसकवृत्ति के होते हुए बाह्य रूप के प्रश्न से जुड़ा हुआ था। यदि हम शाकाहार का समर्थन करना चाहते में हिंसक आचारण कर पाना एक प्रकार की भ्रांति है, छलन है, हैं तो हमें यह मानना होगा कि हिंसा-अहिंसा के सम्बन्ध में संख्या आत्मा-प्रवंचना है। सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है कि 'यदि हृदय का प्रश्न महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण है उसका ऐन्द्रिक और पापमुक्त हो तो (हिंसादि) क्रिया करने पर भी निर्वाण अवश्य मिलता आध्यात्मिक विकास। मात्र यही नहीं, सूत्रकृतांग में अल्प आरम्भ है' यह एक मिथ्या धारणा है। यदि गीता का यह मन्तव्य हो कि अन्त: (अल्पहिंसा) युक्त गृहस्थ धर्म को भी एकान्त सम्यक् कहकर में अहिंसक वृत्ति के होते हुए भी हिंसात्मक क्रिया की जा सकती हिंसा-अहिंसा के प्रश्न को एक दूसरी ही दिशा प्रदान की गई। अहिंसा है तो जैन विचारणा का स्पष्ट रूप से उसके साथ विरोध है। जैन का सम्बन्ध बाहर की अपेक्षा अन्दर से जोड़ा जाने लगा। हिंसा-अहिंसा विचारणा कहती है कि अन्त: में अहिंसक वृत्ति के होते हुए हिंसा के विवेक में बाह्य घटना की अपेक्षा साधक की मनोदशा को अधिक की नहीं जा सकती, यद्यपि हिंसा हो सकती है। हिंसा किया जाना महत्त्वपूर्ण माना जाने लगा। यद्यपि सूत्रकृतांग के आर्द्रक नामक अध्याय सदैव ही संकल्पात्मक होगा और आन्तरिक विशुद्धि के होते हुए में बौद्ध धर्म की इस धारणा की आलोचना की गई है कि 'हिंसा-अहिंसा हिंसात्मक कर्म का संकल्प सम्भव ही नहीं है (सूत्रकृतांग, २/६/३५)। का प्रश्न व्यक्ति की मनोदशा के साथ जुड़ा हुआ, है न कि बाह्य घटना वस्तुत: हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में जैन दृष्टि का सार यह है पर।' किन्तु हम देखते हैं कि जैन परम्परा के परवर्ती ग्रंथों में मनोदशा कि हिंसा चाहे बाह्य हो या आन्तरिक, वह आचारण का नियम नहीं को ही हिंसा-अहिंसा के विवेक का आधार बनाया गया है। जहाँ हो सकती है। दूसरे, हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में बाह्य पक्ष की अवहेलना द्रव्य-हिंसा (बाह्य घटना) और भाव-हिंसा (मनोदशा) का प्रश्न सामने मात्र कतिपय अपवादात्मक अवस्थाओं में ही क्षम्य हो सकती है। हिंसा आया वहाँ यह माना जाने लगा कि भाव हिंसा ही वास्तविक हिंसा का हेतु मानसिक प्रवृत्तियां, कषायें हैं, यह मानना तो ठीक है, लेकिन है। भगवती (७/१/६-७), प्रवचनसार (३/१७), ओघनियुक्ति यह मानना कि मानसिक-वृत्तियों या कषायों के अभाव में की गई (७४८-७५८), निशीथचूर्णि (९२) आदि ग्रन्थों में एक स्वर से यह द्रव्यहिंसा हिंसा नहीं है, यह उचित नहीं कहा जा सकता। यह ठीक बात स्वीकार की गई है कि जो अप्रमत्त और कषायरहित है, उसके है कि संकल्पजन्य हिंसा अधिक निकृष्ट है, लेकिन संकल्प के अभाव द्वारा बाह्य रूप से होनेवाली हिंसा वस्तुत: हिंसा नहीं है। यह भी माना में होने वाली हिंसा हिंसा नहीं है या उससे कर्म-आस्रव नहीं होता गया कि जिस हिंसा में हिंसा करते हुए जितनी मनोभावों की क्रूरता है, यह जैन कर्म सिद्धान्त के अनुकूल नहीं है। व्यावहारिक जीवन अपेक्षित है वह हिंसा उतनी निकृष्ट कोटि की है। वनस्पति की हिंसा में हमें इसको हिंसा मानना होगा। की अपेक्षा पशु की हिंसा में और पशु की हिंसा की अपेक्षा मनुष्य की हिंसा में अधिक क्रूरता अपेक्षित है। अत: हिंसक भावों या कषायों पूर्ण अहिंसा के आदर्श की संभावना का प्रश्न की तीव्रता के कारण मनुष्य की हिंसा अधिक निकृष्ट कोटि की होगी। यद्यपि अन्त: और बाह्य रूप से पूर्ण अहिंसा के आदर्श की
. इस प्रकार हम देखते हैं कि हिंसा-अहिंसा का विवेक रखते समय उपलब्धि जैन विचारणा का साध्य है, लेकिन व्यवहार के क्षेत्र में इस बाह्य घटना पर ही नहीं वरन् कर्ता की मनोवृत्ति पर भी विचार करना आदर्श की उपलब्धि सहज नहीं है। अहिंसा एक आध्यात्मिक आदर्श होता है।
है और आध्यात्मिक स्तर पर ही इसकी पूर्ण उपलब्धि सम्भव है लेकिन
व्यक्ति का वर्तमान जीवन अध्यात्म और भौतिकता का एक सम्मिश्रण अहिंसा के बाह-पक्ष की अवहेलना उचित नहीं
है। जीवन के आध्यात्मिक स्तर पर पूर्ण अहिंसा सम्भव है लेकिन यह ठीक है कि हिंसा-अहिंसा के विचार में भावात्मक या आन्तरिक भौतिक स्तर पर पूर्ण अहिंसा की कल्पना समीचीन नहीं है। अहिंसक पहलू महत्त्वपूर्ण है किन्तु बाह्य पक्ष को अवहेलना उचित नहीं है। जीवन की सम्भावनाएं भौतिक स्तर से ऊपर उठने पर विकसित होती वैयक्तिक साधनाकी दृष्टि से आध्यात्मिक एवं आन्तरिक पक्ष ही सर्वाधिक हैं- व्यक्ति जैसे-जैसे भौतिकता के स्तर से ऊपर उठता जाता है, मूल्यवान् होता है। लेकिन जहाँ सामाजिक एवं व्यावहारिक जीवन का अहिंसक जीवन की पूर्णता की दिशा में बढ़ता जाता है। इसी आधार प्रश्न है वहाँ हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में बाह्य पहलू को झुठलाया पर जैन विचारणा में अहिंसा की दिशा में बढ़ने के लिए कुछ स्तर नहीं जा सकता। क्योंकि व्यावहारिक जीवन और सामाजिक व्यवस्था निर्धारित किये गये हैं। की दृष्टि से जिस पर विचार किया जा सकता है वह तो आचरण हिंसा का यह रूप जिसे संकल्पजा हिंसा कहा जाता है, का बाह्य-पक्ष ही है।
सभी के लिये त्याज्य है। संकल्पजा हिंसा हमारे वैचारिक या मानसिक गीता और बौद्ध आचार दर्शन की अपेक्षा जैन विचारणा ने इस जगत् पर निर्भर है। मानसिक संकल्प के कर्ता के रूप में व्यक्ति में
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स्वतन्त्रता की सम्भावनाएं सर्वाधिक विकसित हैं। अपने मानसिक जगत् के क्षेत्र में व्यक्ति अपेक्षाकृत अधिक स्वतन्त्र है। इस स्तर पर पूरी तरह से अहिंसा का पालन अधिक सहज एवं सम्भव है। बाह्य स्थितियां इस स्तर पर हमें प्रभावित कर सकती हैं, लेकिन शासित नहीं कर सकती। व्यक्ति स्वयं अपने विचारों का स्वामी होता है, अतः इस स्तर पर अहिंसक होना सभी के लिए आवश्यक है । व्यावहारिक दृष्टि से संकल्पजा हिंसा आक्रमणात्मक हिंसा है। यह न तो जीवन के रक्षण के लिए है और न जीवन-निर्वाह के लिए है, अतः इसे सभी के द्वारा छोड़ा जा सकता है।
जैनधर्म में अहिंसा की अवधारणा एक विश्लेषण
हिंसा का दूसरा रूप विरोधजा है यह प्रत्याक्रमण या सुरक्षात्मक है। स्व एवं पर के जीवन एवं स्वत्वों के रक्षण के लिए इसे करना पड़ता है। । इसमें बाह्य परिस्थितिगत तत्त्वों का प्रभाव प्रमुख होता है। बाह्य स्थितियां व्यक्ति को बाध्य करती हैं कि वह अपने एवं अपने साथियों के जीवन एवं स्वत्वों के रक्षण के लिए प्रत्याक्रमण के रूप में हिंसा करे जो भी व्यक्ति शरीर एवं अन्य भौतिक संस्थानों पर अपना स्वत्व रखना चाहते हैं, अथवा जो भी अपने और अपने साथियों के अधिकारों में आस्था रखते हैं, इस विरोधजा हिंसा को छोड़ने में असमर्थ हैं। गृहस्थ उपासक हिंसा के इस रूप को पूरी तरह छोड़ पाने में असमर्थ होते हैं क्योंकि वे शरीर एवं अन्य भौतिक वस्तुओं पर अपना स्वत्व रखना चाहते हैं। इसी प्रकार शासक वर्ग एवं राजनैतिक नेता जो मानवीय अधिकारों में एवं राष्ट्रीय हितों में आस्था रखते हैं, इसे पूरी तरह छोड़ पाने में असमर्थ हैं।
आधुनिक युग में गांधी एक ऐसे विचारक अवश्य हैं, जिन्होंने विरोध का अहिंसक तरीका प्रस्तुत किया और उसमें सफलता भी प्राप्त की। किन्तु अहिंसक के रूप में विरोध कर पाना, उसमें सफलता प्राप्त कर लेना हर किसी के लिए सम्भव नहीं है। अहिंसक रीति से अधिकारों का संरक्षण करने में वही व्यक्ति सफल हो सकता है जिसे शरीर के प्रति मोह न हो, पदार्थों में आसक्ति न हो और जिसके हृदय में विद्वेष का भाव न हो। यही नहीं, अहिंसक रीति से अधिकारों के संरक्षण की कल्पना एक सभ्य एवं सुसंस्कृत मानव समाज में ही सम्भव हो सकती है। यदि विरोधी पक्ष मानवीय स्तर पर हो, तब तो अहिंसकविरोध सफल हो जाता है, लेकिन यदि विरोधी पक्ष पाशविक स्तर पर हो तो अहिंसक विरोध की सफलता सन्देहास्पद बन जाती है। पुनः मानव में मानवीय गुणों की सम्भावना की आस्था ही अहिंसक विरोध का केन्द्रीय तत्व है। मानवीय गुणों में हमारी आस्था जितनी बलशाली होगी और विरोधी में मानवीय गुणों का जितना अधिक प्रकटन होगा, अहिंसक विरोध की सफलता भी उतनी ही अधिक होगी। जहां तक उद्योगजा और आरम्भजा हिंसा का प्रश्न है, एक गृहस्थ उपासक उससे नहीं बच सकता क्योंकि जब तक शरीर और सम्पत्ति का मोह है, आजीविका का अर्जन और शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति दोनों ही आवश्यक हैं। इस स्तर पर हिंसा को उस प्राणियों की हिंसा और स्थावर प्राणियों की हिंसा, इन दो भागों में बांटा जा सकता है और व्यक्ति अपने को उस प्राणियों की हिंसा से बचा सकता है।
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जैन विचारणा में गृहस्थ उपासक के लिए उद्योग, व्यवसाय एवं जीवनरक्षण के लिए भी त्रस प्राणियों की हिंसा का निषेध किया गया है।
लेकिन जब व्यक्ति शरीर और सम्पत्ति के मोह से ऊपर उठ जाता है तो वह पूर्ण अहिंसा की दिशा में और आगे बढ़ जाता है। जहां तक श्रमण साधक या संन्यासी का प्रश्न है, वह निष्परिग्रही होता है, उसे अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं होता अतः वह सर्वतोभावेन हिंसा के विरत होने का व्रत लेता है। शरीरधारण मात्र के लिए कुछ अपवादों को छोड़कर वह संकल्पपूर्वक और विवशतावश दोनों ही परिस्थितियों में बस और स्थावर की हिंसा से पूर्ण विरत हो जाता है। मुनि नथमलजी के शब्दों में 'कोई भी व्यक्ति एक ही डग में चोटी तक नहीं पहुँच सकता। वह धीमे-धीमे आगे बढ़ता है भगवान् महावीर ने अहिंसा की पहुँच के कुछ स्तर निर्धारित किये हैं। वे वस्तुस्थिति पर आधारित हैं। उन्होंने हिंसा को तीन भागों में विभक्त किया- ( १ ) संकल्पजा, (२) विरोधजा और (३) आरम्भजा संकल्पजा हिंसा आक्रमणात्मक हिंसा है वह सबके लिए सर्वथा परिहार्य है। विरोधजा हिंसा प्रत्याक्रमण हिंसा है उसे छोड़ने में वह असमर्थ होता है, जो भौतिक संस्थानों पर अपना अस्तित्व रखना चाहता है। आरम्भजा हिंसा आजीविकात्मक हिंसा है। उसे छोड़ने में वे सब असमर्थ होते हैं, जो भौतिक साधनों के अर्जन-संरक्षण द्वारा अपना जीवन चलाना चाहते हैं (तट दो, प्रवाह एक पृष्ठ ४० ) 1
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प्रथम स्तर पर हम आसक्ति, तृष्णा आदि के वशीभूत होकर की जानेवाली अनावश्यक आक्रमणात्मक हिंसा से बचें, फिर दूसरे स्तर पर जीवनयापन एवं आजीविकोपार्जन के निमित्त होने वाली स प्राणियों की हिंसा से विरत होवें; तीसरे स्तर पर विरोध के अहिंसक तरीके को अपना कर प्रत्याक्रमणात्मक हिंसा से विरत होवें इस प्रकार जीवन के लिये आवश्यक बनी हुई हिंसा से क्रमश: ऊपर उठते हुए चौथे स्तर पर शरीर और परिग्रह की आसक्ति का परित्याग कर सर्वतोभावेन पूर्ण अहिंसा की दिशा में आगे बढ़ें।
इस प्रकार पूर्ण अहिंसा का आदर्श पूर्णतया अव्यावहारिक नहीं रहता है। व्यक्ति जैसे-जैसे सम्पत्ति और शरीर के मोह से ऊपर उठता जाता है अहिंसा का आदर्श उसके लिए व्यवहार्य बनता जाता है। पूर्ण अनासक्त जीवन में पूर्ण अहिंसा व्यवहार्य बन जाती है। यद्यपि यह ध्यान रखना होगा कि शरीरधारी रहते हुए पूर्ण अहिंसा एक आदर्श ही रहेगी, वह यथार्थ नहीं बन पावेगी। जब शरीर के संरक्षण का मोह समाप्त होगा तभी वह आदर्श यथार्थ की भूमि पर अवतरित होगा। फिर भी एक बात ध्यान में रखनी होगी, वह यह कि जब तक शरीर है और शरीर के संरक्षण की वृत्ति है, चाहे वह साधना के लिए ही क्यों न हो, यह कथमपि सम्भव नहीं है कि व्यक्ति पूर्ण अहिंसा के आदर्श को पूर्णरूपेण साकार कर सके। शरीर के लिए आहार आवश्यक है, कोई भी आहार बिना हिंसा के सम्भव नहीं होगा। चाहे हमारा मुनिवर्ग यह कहता भी हो कि हम औदेशिक आहार नहीं लेते हैं किंतु क्या उनकी विहार यात्रा में साथ चलने वाला पूरा लवाजमा सेवा में रहने के नाम पर लगने वाले चौके औरेशिक नहीं? जब समाज में रात्रिभोजन सामान्य हो गया हो, क्या सन्ध्याकालीन गोवरी में
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
अनौद्देशिक आहार मिल पाना सम्भव है? क्या कश्मीर से कन्याकुमारी खड़ा होता है आत्मीयता, प्रेम और सहयोग के आधार पर खड़ा होता तक और बम्बई से कलकत्ता तक की सारी यात्राएँ औद्देशिक आहार है अर्थात् अहिंसा के आधार पर खड़ा होता है। क्योंकि हिंसा का अर्थ के अभाव में निर्विघ्न सम्भव हो सकती हैं? क्या आहेत प्रवचन की है-घृणा, विद्वेष, आक्रामकता; और जहाँ भी ये वृत्तियाँ बलवती होंगी प्रभावना के लिए मंदिरों का निर्माण, पूजा और प्रतिष्ठा के समारोह, सामाजिकता की भावना ही समाप्त हो जावेगी, समाज ढह जावेगा। अत: संस्थाओं का संचालन, मुनिजनों के स्वागत और विदाई-समारोह तथा समाज और अहिंसा सहगामी हैं। दूसरे शब्दों में यदि हम मनुष्य को अधिवेशन षनिकाय की नवकोटि युक्त अहिंसा के परिपालन के साथ । एक सामाजिक प्राणी मानते हैं तो हमें यह मानना होगा कि अहिंसा कोई संगति रख सकते हैं? हमें अपनी अन्तरात्मा से यह सब पूछना उसके लिए स्वाभाविक ही है। जब भी कोई समाज खड़ा होगा और होगा। हो सकता है कि कुछ विरल सन्त और साधक हों जो इन टिकेगा तो वह अहिंसा की भित्ति पर ही खड़ा होगा और टिकेगा। किंतु कसौटियों पर खरे उतरते हों, मैं उनकी बात नहीं कहता, वे शतश: एक दूसरा पहलू भी है, वह यह कि समाज के लिए भी अपने अस्तित्व वन्दनीय हैं, किन्तु सामान्य स्थिति क्या है? फिर भिक्षाचर्या, पाद-विहार, और अपने सदस्यों के हितों के संरक्षण का प्रश्न मुख्य है और जहाँ शरीर-संचालन, श्वासोच्छ्वास किसमें हिंसा नहीं है। महाभारत के अस्तित्व की सुरक्षा और हितों के संरक्षण का प्रश्न है, वहाँ हिंसा शान्ति-पर्व में कहा गया है, जल में जीव हैं, पृथ्वी पर और वृक्षों अपरिहार्य है। हितों में टकराव स्वाभाविक है, अनेक बार तो एक का के फलों में अनेक जीव हैं, ऐसा कोई मनुष्य नहीं जो इन्हें नहीं मारता हित दूसरे के अहित पर, एक का अस्तित्व दूसरे के विनाश पर खड़ा हो, पुन: कितने ही ऐसे सूक्ष्म प्राणी हैं जो इन्द्रियों से नहीं, अनुमान होता है, ऐसी स्थिति में समाज-जीवन में भी हिंसा अपरिहार्य होगी। से जाने जाते हैं, मनुष्य की पलकों के झपकने मात्र से ही जिनके पुन: समाज का हित और सदस्य-व्यक्ति का हित भी परस्पर विरोध में कंधे टूट जाते हैं। अत: जीव-हिंसा से बचा नहीं जा सकता (१५/ हो सकता है। जब वैयक्तिक और सामाजिक हितों के संघर्ष की स्थिति २५-२६)। एक ओर षट्जीवनिकाय की अवधारणा और दूसरी ओर हो तो बहुजन हितार्थ हिंसा अपरिहार्य भी हो सकती है। जब समाज पूर्ण नवकोटियुक्त पूर्ण अहिंसा का आदर्श, जीवित रहकर इन दोनों या राष्ट्र का कोई सदस्य या वर्ग अथवा दूसरा राष्ट्र अपने हितों के लिये में संगति बिठा पाना अशक्य है। अत: जैन आचार्यों को भी यह कहना हिंसा पर अथवा अन्याय पर उतारू हो जावे तो निश्चय ही अहिंसा की पड़ा कि 'अनेकानेक जीव-समूहों से परिव्याप्त विश्व में साधक का दुहाई देने से काम न चलेगा। जब तक जैन आचार्यों द्वारा उद्घोषित अहिंसकत्व अन्त: में आध्यात्मिक विशुद्धि की दृष्टि से ही है' 'मानव जाति एक है' की कल्पना साकार नहीं हो पाती, जब तक सम्पूर्ण (ओघनियुक्ति, ७४७)। लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं है कि हम मानव समाज ईमानदारी के साथ अहिंसा के पालन के लिए प्रतिबद्ध अहिंसा को अव्यवहार्य मानकर तिलांजलि दे देवें। यद्यपि एक शरीरधारी नहीं होता, तब तक अहिंसक समाज की बात कहना कपोल-कल्पना के नाते यह हमारी विवशता है कि हम द्रव्य और भाव दोनों अपेक्षा ही कहा जावेगा। आचारांग, सूत्रकृतांग आदि जैनागम जिस पूर्ण अहिंसा से पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध नहीं कर सकते हैं किन्तु उस के आदर्श को प्रस्तुत करते हैं उसमें भी जब संघ की या संघ के किसी दिशा में क्रमश: आगे बढ़ सकते हैं और जीवन की पूर्णता के साथ सदस्य की सुरक्षा या न्याय का प्रश्न आया तो हिंसा को स्वीकार करना ही पूर्ण अहिंसा के आदर्श को भी उपलब्ध कर सकते हैं। कम से पड़ा। गणाधिपति चेटक और आचार्य कालक के उदाहरण इसके प्रमाण कम हिंसा की दिशा में आगे बढ़ते हुए साधक के लिए जीवन का हैं। यही नहीं, निशीथचूर्णि में तो यहाँ तक स्वीकार कर लिया गया अन्तिम क्षण अवश्य ही ऐसा है, जब वह पूर्ण अहिंसा के आदर्श है कि संघ की सुरक्षा के लिए मुनि भी हिंसा का सहारा ले सकता है। को साकार कर सकता है। जैनधर्म की पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो ऐसे प्रसंगों में पशु-हिंसा तो क्या मनुष्य की हिंसा भी उचित मान ली पादोपगमन संथारा एवं चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान की अवस्थाएं गई है। जब तक मानव समाज का एक भी सदस्य पाशविक प्रवृत्तियों ऐसी हैं जिनमें पूर्ण अहिंसा का आदर्श साकार हो जाता है। में आस्था रखता है यह सोचना व्यर्थ ही है कि सामुदायिक जीवन में
पुनः अहिंसा की सम्भावना पर हमें न केवल वैयक्तिक दृष्टि से पूर्ण अहिंसा का आदर्श व्यवहार्य बन सकेगा। निशीथचूर्णि में अहिंसा विचार करना है अपितु सामाजिक दृष्टि से भी विचार करना है। चाहे के अपवादों को लेकर जो कुछ कहा गया है, उसे चाहे कुछ लोग यह सम्भव भी हो, व्यक्ति शरीर, सम्पत्ति, संघ और समाज से निरपेक्ष साध्वाचार के रूप में सीधे मान्य करना न चाहते हों; किंतु क्या यह होकर पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध कर सकता है; फिर भी ऐसी नपुंसकता नहीं होगी जब किसी मुनि संघ के सामने किसी तरुणी साध्वी निरपेक्षता किन्हीं विरल साधकों के लिए ही सम्भव होगी, सर्व सामान्य का अपहरण हो रहा हो या उस पर बलात्कार हो रहा हो और वे अहिंसा के लिए तो सम्भव नहीं कही जा सकती है। अत: मूल प्रश्न यह है की दुहाई देते हुए मौन दर्शक बने रहें? क्या उनका कोई दायित्व नहीं कि क्या सामाजिक जीवन पूर्ण अहिंसा के आदर्श पर खड़ा किया जा है? यह बात चाहे हास्यास्पद लगती हो कि अहिंसा की रक्षा के लए सकता है? क्या पूर्ण अहिंसक समाज की रचना सम्भव है? इस प्रश्न हिंसा आवश्यक है किन्तु व्यावहारिक जीवन में अनेक बार ऐसी का उत्तर देने के पूर्व मैं आपसे समाज-रचना के स्वरूप पर कुछ बातें परिस्थितियाँ आ सकती हैं जिनमें अहिंसक-संस्कृति की रक्षा के लिए कहना चाहूँगा। एक तो यह कि अहिंसक-चेतना अर्थात् संवेदनशीलता हिंसकवृत्ति अपनाना पड़े। यदि हिंसा में आस्था रखनेवाला कोई समाज के अभाव में समाज की कल्पना ही सम्भव नहीं है। समाज जब भी किसी अहिंसक समाज को पूरी तरह मिटा देने को तत्पर हो जावे, तो
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जैनधर्म में अहिंसा की अवधारणा : एक विश्लेषण
क्या उस अहिंसक समाज को अपने अस्तित्व के लिए कोई संघर्ष नहीं विवशता में संकल्प करना होता है। फिर भी पहली अधिक निकृष्ट करना चाहिये? हिंसा-अहिंसा का प्रश्न अब निरा वैयक्तिक प्रश्न नहीं कोटि की है क्योकि आक्रमणात्मक हैं। यह अनर्थदण्ड है, अर्थात् है। जब तक सम्पूर्ण मानव समाज एक साथ अहिंसा की साधना के अनावश्यक है, वह या तो मनोरंजन के लिए की जाती है या शासन लिए तत्पर नहीं होता है, किसी एक समाज या राष्ट्र द्वारा की जानेवाली करने के लिए, या स्वाद के लिए। हिंसा का यही रूप ऐसा है जो अहिंसा के आदर्श की बात कोई अर्थ नहीं रखती है। संरक्षणात्मक और सबके द्वारा छोड़ा जा सकता है, क्योंकि यह हमारे जीवन जीने के सुरक्षात्मक हिंसा समाजजीवन के लिए अपरिहार्य है। समाज-जीवन में लिए जरूरी नहीं है। हिंसा का दूसरा रूप जिसमें हिंसा करनी पड़ती इसे मान्य भी करना ही होगा। इसी प्रकार उद्योग-व्यवसाय और कृषि है, हिंसा तो है किन्तु इसे छोड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि यह आवश्यक कार्यों में होनेवाली हिंसा भी समाज-जीवन में बनी ही रहेगी। मानव है, अर्थदण्ड है। जैसा कि हमने अहिंसा की सम्भावना के प्रसंग में समाज में मांसाहार एवं तज्जन्य हिंसा को समाप्त करने की दिशा में देखा था। वे सभी गृहस्थ उपासक जो अपने स्वत्वों का रक्षण करना सोचा तो जा सकता है किन्तु उसके लिये कृषि के क्षेत्र में एवं अहिंसक चाहते हैं, जो जीवन जीने के लिए उद्योग और व्यवसाय में लगे हुए आहार की प्रचुर उपलब्धि के सम्बन्ध में व्यापक अनुसंधान एवं तकनीकी हैं, जो समाज, संस्कृति और राष्ट्र की सुरक्षा एवं विकास का दायित्व विकास की आवश्यकता होगी। यद्यपि हमें यह समझ लेना होगा कि लिये हुए हैं, इससे नहीं बच सकते। न केवल गृहस्थ उपासक अपितु जब तक मनुष्य की संवेदनशीलता को पशुजगत् तक विकसित नहीं किया मुनिजन भी, जो किसी धर्म, समाज एवं संस्कृति के रक्षण, विकास जावेगा और मानवीय आहार को सात्विक नहीं बनाया जावेगा, मनुष्य एवं प्रसार का दायित्व अपने ऊपर लिये हुए हैं, इस प्रकार की अपरिहार्य की आपराधिक प्रवृत्तियों पर पूरा नियन्त्रण नहीं होगा। आदर्श अहिंसक हिंसा से नहीं बच सकते हैं। समाज की रचना हेतु हमें समाज से आपराधिक प्रवृत्तियों को समाप्त फिर भी यह आवश्यक है कि हम ऐसी हिंसा को हिंसा के रूप करना होगा और आपराधिक प्रवृत्तियों के नियमन के लिए हमें मानव जाति में समझते रहें, अन्यथा हमारा करुणा का स्रोत सूख जावेगा। विवशता में संवेदनशीलता, संयम एवं विवेक के तत्त्वों को विकसित करना होगा। में चाहे हमें हिंसा करनी पड़े, किन्तु उसके प्रति आत्मग्लानि और
हिंसित के प्रति करुणा की धारा सूखने नहीं पावे, अन्यथा वह हिंसा हिंसा और अहिंसा का सीमा-क्षेत्र
हमारे स्वभाव का अंग बन जावेगी, जैसे-कसाई बालक में। हिंसा-अहिंसा हिंसा और अहिंसा के सीमा-क्षेत्र को समझने के लिए हमें हिंसा के विवेक का मुख्य आधार मात्र यही नहीं है कि हमारा हृदय कषाय के तीन रूपों को समझ लेना होगा-१. हिंसा की जाती है, से मुक्त हो, किन्तु यह भी है कि हमारी संवेदनशीलता जागृत रहे, २. हिंसा करनी पड़ती है और ३. हिंसा हो जाती है। हिंसा का वह हृदय में दया और करुणा की धारा प्रवाहित होती रहे। हमें अहिंसा रूप जिसमें हिंसा की नहीं जाती वरन् हो जाती है-हिंसा की कोटि को हृदय-शून्य नहीं बनाना है। क्योंकि यदि हमारी संवेदनशीलता जागृत में नहीं आता है, क्योंकि इसमें हिंसा का संकल्प पूरी तरह अनुपस्थित बनी रही तो निश्चय ही हम जीवन में हिंसा की मात्रा को अल्पतम रहता है; मात्र यही नहीं, हिंसा से बचने की पूरी सावधानी भी रखी करते हुए पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध करेंगे, साथ ही वह जाती हैं, हिंसा के संकल्प के अभाव में एवं सम्पूर्ण सावधानी के हमारी अहिंसा विधायक बन कर मानव समाज में सेवा और सहयोग बावजूद भी यदि हिंसा हो जाती है तो वह हिंसा के सीमाक्षेत्र में नहीं की गंगा भी बहा सकेगी। आती हैं। हमें यह भी समझ लेना होगा कि किसी एक संकल्प की साथ ही जब अपरिहार्य बन गई दो हिंसाओं में किसी एक को पूर्ति के लिए की जानेवाली क्रिया के दौरान सावधानी के बावजूद चुनना अनिवार्य हो तो हमें अल्प-हिंसा को चुनना होगा। किन्तु कौन-सी अन्य कोई हिंसा की घटना घटित हो जाती है, जैसे-गृहस्थ उपासक हिंसा अल्प-हिंसा होगी, यह निर्णय देश, काल परिस्थिति आदि अनेक द्वारा भूमि जोतते हुए किसी त्रस-प्राणी की हिंसा हो जाना अथवा किसी बातों पर निर्भर करेगा। यहाँ हमें जीवन की मूल्यवत्ता को भी आंकना मुनि के द्वारा पदयात्रा करते हुए सप्राणी की हिंसा हो जाना, तो उन्हें होगा। जीवन की यह मूल्यवत्ता दो बातों पर निर्भर करती है-१. उस हिंसा के प्रति उत्तरदायी नहीं माना जा सकता है क्योंकि उनके प्राणी का ऐन्द्रिक एवं आध्यात्मिक विकास और २. उसकी सामाजिक मन में उस हिंसा का कोई संकल्प ही नहीं है। अत: ऐसी हिंसा हिंसा उपयोगिता। सामान्यत: मनुष्य का जीवन अधिक मूल्यवान् है और नहीं है। जैन परम्परा में हिंसा के निम्न चार स्तर माने गये हैं- मनुष्यों में भी एक सन्त का, किन्तु किसी परिस्थिति में किसी मनुष्य १. संकल्पजा, २. विरोधजा, ३. उद्योगजा, ४. आरम्भजा। इनमें की अपेक्षा किसी पशु का जीवन भी अधिक मूल्यवान् हो सकता है। 'संकल्पजा' हिंसा वह है जो की जाती है, जबकि विरोधजा, उद्योगजा सम्भवत: हिंसा-अहिंसा के विवेक में जीवन की मूल्यवत्ता का यह विचार
और आरम्भजा हिंसा, हिंसा की वे स्थितियां हैं जिनमें हिंसा करनी हमारी दृष्टि में उपेक्षित ही रहा, यही कारण था कि हम चीटियों के पड़ती है। फिर भी चाहे हिंसा की जाती हो या हिंसा करनी पड़ती प्रति तो संवेदन-शील बन सके किन्तु मनुष्य के प्रति निर्मम ही बने हो दोनों ही अवस्थाओं में हिंसा का संकल्प या इरादा अवश्य होता रहे। आज हमें अपनी संवेदनशीलता को माड़ना है और मानवता के है, यह बात अलग है कि एक अवस्था में हम बिना किसी परिस्थितिगत प्रति अहिंसा को सकारात्मक बनाना है। दबाव के स्वतंत्ररूप में हिंसा का संकल्प करते हैं और दूसरे में हमें
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