Book Title: Jain Dharm ke Naitik Siddhant
Author(s): Ishwarchand Sharma
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 5
________________ डा. ईश्वरचन्द्र : जैनधर्म के नैतिक सिद्धान्त : २६३ ------------------ उद्देश्य कर्मपुद्गल से निवृत्ति प्राप्त करना है. आकाश को भी जनदर्शन में सर्वव्यापी द्रव्य स्वीकार किया गया है. आकाश के दो भाग हैं, लोकाकाश तथा अलोकाकाश. लोकाकाश , आकाश का वह भाग है जिसमें धर्म, अधर्म, पुद्गल जीव तथा काल स्थित होते हैं. अलोकाकाश वह (शून्य) द्रव्य है, जो लोकाकाश से परे है और जिसमें उपरोक्त पांचों द्रव्य नहीं हैं. अलोकाकाश में धर्म, अधर्म न होने के कारण किसी प्रकार की गति या स्थिति नहीं होती है. जैनदर्शन में काल भी ऐसा द्रव्य स्वीकार किया गया है, जो पुद्गल तथा जीव के परिवर्तन का आधार है. हमें यह देखना है कि आकाश के लोक भाग में धर्म अधर्म पुद्गल तथा जीव होते हैं. पद्गल और जीव गति और स्थिति से प्रभावित होते हैं. पुद्गल जीव को बन्ध में डाल देता है और जीव अपने आपको पुद्गल से मुक्त करके निर्जरा एवं जीवनमुक्ति प्राप्त करने की चेष्टा करता है. किन्तु इस प्रकार पुद्गल से निवृत्त होने की प्रक्रिया में, जीव अनेक परिवर्तनों से गुजरता है. पुद्गल में भी सूक्ष्मसे स्थूल बनने में परिर्वतन होते हैं. पुद्गल तथा जीव का यह परिवर्तन, जो कि इन दोनों के विकास का कारण है, काल तत्त्व पर आधारित है. पुण्य-पुण्य का अर्थ शुभ कार्य माना जाता है. जैनदर्शन में भी पुण्य की यही परिभाषा स्वीकार की जाती है. किन्तु पुण्य के दो अंग हैं. क्रियात्मक दृष्टि से तो पुण्य एक शुभ कर्म है, जो जीव द्वारा किया जाता है. यदि शुभकर्म का अर्थ वह कर्म-पुद्गल हो जो जीव द्वारा संचित किया जाता है और जिसका आगामी काल में भोग किया जाता है, तो हम पुण्य के पौद्गलिक अंग की ओर संकेत कर रहे होते हैं. वास्तव में पुण्य एक प्रवृत्ति भी है और संस्कार भी. यहां पर प्रवृत्ति का अर्थ क्रियाशीलता और संस्कार का अर्थ कर्मपुद्गल है. जो क्रियाएँ शुभ संस्कारों को संचित करने में सहायता देती हैं वे पुण्य कहलाती हैं. जैनदर्शन के अनुसार नौ प्रकार के पुण्य स्वीकार किये गये हैं- (१) अन्नपुण्य (२) पानपुण्य (३) वस्त्रपुण्य (४) लयनपुण्य (५) शयनपुण्य (६) मनपुण्य (७) शरीरपुण्य (८) वचन पुण्य (९) नमस्कारपुण्य. अन्नपुण्य का अर्थ किसी ऐसे भूखे या दरिद्र या अकिचन तपस्वी को भोजन देना है जो उसका पात्र है. इसी प्रकार पानपुण्य का अर्थ किसी प्यासे व्यक्ति की प्यास को बुझाना है. वस्त्रपुण्य का अर्थ उन लोगों को वस्त्र दान देना जिन्हें शरीर को ढंकने के लिये आवश्यकता है. जैनदर्शन के अनुसार यद्यपि अन्न, जल और वस्त्र का दान किसी भी सुपात्र व्यक्ति को दिया जा सकता है, तथापि ये तीनों संयमशील महाव्रती साधुओं के प्रति किये जायं तो उनका महत्त्व और भी अधिक हो जाता है. लयन तथा शयन पुण्यों का अर्थ ठहरने का स्थान तथा शयन के लिये पट्टा आदि देना है. मनपुण्य शरीर पुण्य तथा वचन पुण्य का अर्थ शरीर मन और वाणी का इस प्रकार प्रयोग करना है कि व्यक्ति हर प्रकार की हिंसा से बचे और दूसरों को धर्म तथा नैतिकता की ओर आकर्षित करे. नमस्कारपुण्य का अर्थ गुणी जनों को श्रद्धापूर्वक नमस्कार करना है. पाप-जनदृष्टिकोण के अनुसार पाप का अर्थ राग द्वेष आदि भावों से प्रभावित होकर निकृष्ट कर्म करना है. यह वास्तव में मनुष्य की नीच प्रवृत्तियों का उसकी शुभ प्रवृत्तियों के विरुद्ध आन्दोलन है. जैनदर्शन के अनुसार निम्नलिखित अठारह पाप माने गये हैं- (१) प्राणवध अथवा जीवहिंसा जिसका अर्थ किसी भी जीवधारी को अथवा उसकी जीवनशक्ति को क्षति पहुंचाना है. (२) असत्य अथवा मृषावाद अर्थात् असत्य बोलना. (३) अदत्तादान पाप अथवा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से चोरी करना. (४) अब्रह्मचर्य पाप जिसका अर्थ मन अथवा शरीर द्वारा कामवृत्ति की तृप्ति करना है, (५) परिग्रह पाप,जिसका अर्थ अपनी सम्पत्ति में आसक्ति है. (६) क्रोधपाप (७) मान पाप अर्थात् अहंकार. (८) माया पाप अथवा छल-कपट. (६) लोभपाप अथवा लालच करना (१०) रागपाप अथवा आसक्ति (११) द्वेषपाप, जिसका अर्थ किसी भी जीव के प्रति घृणा रखना है. (१२) क्लेश पाप अथवा कलह. (१३) अभ्याख्यान पाप, जिसका अर्थ किसी व्यक्ति का अपमान करने के लिये अपवाद फैलाना है. (१४) पैशून्य पाप, जिसका अर्थ चुगलखोरी है. (१५) पर-परिवाद पाप, जिसका अर्थ दूसरों की निन्दा अथवा उनके दोषों पर बल देना है. (१६) रति-अरति पाप, जिसका अर्थ संयम में अरुचि और विषयभोग आदि में रुचि है. (१७) मायामृषा पाप, जिसका अर्थ औचित्य और सद्गुण के आवरण में अनुचित तथा दूषित कर्म करना है. (१८) मिथ्यादर्शनशल्य पाप जिसका अर्थ असत् को सत् स्वीकार करना है. ___Jain E-RI w.garmendrary.org

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